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इंडियन स्पाइसेज़

(1)

वो ज़्यादातर चुप रहता था. इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता था किउसकी आदत कम बोलने की थी या उसे ज्यादा बोलना पसंद नहीं था . एक बात जो काफी भरोसे के साथ कही जा सकती थी कि उसके भीतर बोलने को लेकर कोई हिचक या संकोच जैसी बात नहीं थी. उसके चेहरे पर एक खास तरह की दृढ़ता थी. वो शर्मीला कतई नहीं लगता था. उसका चेहरा काफी बड़ा था. उसके चेहरे के भूगोल का बड़ा हिस्सा रूखा, भावहीन और सपाट था. एक निर्जन समतल मैदान की तरह. अगर किसी तरह के भाव उसके चेहरे पर होते तो वे ज़रूर दिखते और कहीं से आकर उभरते तो भी दिखते. चेहरे पर कोई भी हलचल नुमाया हुए बिना नहीं रह सकती थी. वो भावहीन चुप्पा किस्म का इन्सान था.

मैंने पहली बार उसे टिफिन सेंटर की कुर्सी पर बैठे देखा था. ये कोई कॉर्पोरेट ऑफिस नहीं था इसलिए उसकी कुर्सी और उसके गिर्द के परिवेश में कोई नफासत नहीं थी. जहाँ रोटियाँ बन रहीं थी उस जगह और सब्ज़ी दाल के बड़े भगौनों के पास का खांचा उसका ऑफिस स्पेस था. एक कुर्सी रखे जाने जितनी जगह. पर ये जगह उसने अपने लिए खुद मुक़र्रर की थी. वो ही इस टिफ़िन सेंटर का मलिक और एकमात्र मैनेजर संचालक जैसा कुछ था. इस तरह के किसी नामकरण को लेकर उसकी कोई चेष्टा नहीं थी. आसपास रहने वाले विद्यार्थी और सेल्समैन – मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव के कमरों में यहीं से टिफ़िन में खाना पहुँचाया जाता था. कई अनियमित ग्राहक यहाँ ख़ुद आकर भी खाना पैक करवाकर ले जाते थे. ये संचालक की कुछ वक़्त पहले जगी महत्वाकांक्षा लगती थी कि उसने अपने टिफ़िन सेंटर में अतिरिक्त स्पेस निकाल कर टेबलें लगवा ली थीं. ताकि ग्राहक सीधे गरमागरम खाने को उसी जगह भोग लगाने बैठ सकें. इस तरह ये टिफ़िन सेंटर और रेस्टोरेंट का हाइब्रिड मॉडल था. अपने लिए उसने इन्हीं सब वजहों से कुछ ख़ास जगह नहीं छोड़ रखी थी. उसे इसकी दरकार भी नहीं थी. उसके मिज़ाज को भी नहीं.

उसकी बगल में गैस के एक बड़े से चूल्हे पर दो एक लोग रोटी बनाने का काम करते थे और पीछे एक आदमी टिफ़िन पैक करने का काम करता था. उसके पास ही एल्युमीनियम के भगौनों में दाल और सब्जियां रखी होती थीं जिन्हें वो पॉलिथीन की थैलियों में माप के अनुसार डालने का काम करता था. रोटी दाल सब्जी के अलावा एक कम्पलीट टिफ़िन में थोडा कच्चा प्याज़, कटा हुआ आधा नीम्बू और आधा पापड़ भी शामिल था. नियमित रूप से टिफ़िन मंगवाने वाले के लिए कम पैसे में ये एक्स्ट्रा चीज़ें सेंटर मालिक की तरफ से उदार होकर दिए जाने वाले तोहफ़े थे. यहाँ अचार का ज़िक्र रह गया, वो भी टिफ़िन में उपलब्ध होने वाले तोहफों में शामिल था.

रोटियाँ बेलने और सेकने वाले लोगों और टिफ़िन पैक करने वाले स्टाफ़ के बीच भी यदा कदा ही कोई संवाद होता था. ज़्यादातर ग्राहक नियमित थे. ज़्यादातर कस्टमर ऐसे थे जो इस जगह से किसी न किसी रूप में जुड़े थे और अपरिचित नहीं रह गए थे. पर कभी कभार कोई बिलकुल नया बन्दा यहाँ आता तो संचालक से अपेक्षा थी कि वो व्यवसाय सुलभ मुस्कान से उनका स्वागत करता. पर ये बिलकुल अलग ही किस्म की मितव्ययिता थी.

वो ग्राहक के आर्डर को लगभग मशीनी अंदाज़ में लेता. ग्राहक खाने के बारे में कहता जैसे कि – ‘ एक खाना पैक करके दीजिये’. इस पर वो कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं देता और पीछे खड़ा आदमी उसके आर्डर पर पैकिंग शुरू कर देता. स्टाफ के लिए ग्राहक के आर्डर पर मालिक की प्रतिक्रिया से ज्यादा उसकी पवित्र उपस्थिति भर ही अनिवार्य होती थी. मालिक का काम पैसे लेने का ज़रूर होता.

मालिक, स्टाफ और उपस्थित ग्राहकों में एक हैरान कर देने वाला रिश्ता पूरे समय बना रहता था. ये सब मिलकर एक मशीन बना रहे थे जिसके पुर्जे अलग अलग समय में हिलते थे पर उनमें तारतम्य पूरा दिखाई पड़ता था.

मालिक फिर भी कुछ हद तक एक मज़ेदार आदमी था. वो कम से कम एक बार मुस्कुराया था. एक ग्राहक ने ये बात इस दावे के साथ बताई कि इसे लगभग प्रमाण के तौर पर शुमार किया जा सकता है. ग्राहक ने पैसे दिए. उसने पैसे लिए और गिने. गिनने के बाद और उसके किसी और काम में व्यस्त होने के बीच के बारीक अंतराल में ग्राहक ने धन्यवाद कहा. इस अनपेक्षित अभिवादन पर वो शिष्टाचार वश आधा अधूरा मुस्कुरा दिया था.

कुछ था यहाँ कि यहाँ एक बार आया आदमी लौट कर ज़रूर आता था.

(2)

उस लड़के का सारा खेल ठेले पर चलता था. वो चायनीज़ का ठेला था. मंचूरियन ड्राई और विथ ग्रेवी में उसे महारत जैसी हासिल थी. लोगों की फरमाइश का वो ध्यान रखता था. जैसे कोई कहता बहुत स्पाइसी बनाना तो वो आग परोसता था, कोई कहता बच्चों के हिसाब से ज्यादा तीखा नहीं तो वो उस तरह कस्टमाइज कर तैयार करता था. उसकी उम्र ज्यादा नहीं थी. और वो नेपाली नहीं था. उसके ठेले का नाम कोई स्थानीय देवी के नाम पर था. उसके साथ चायनीज़ जुड़ना थोड़ा अलग लगता था. पर नाम पर कौन गौर करता था. एक भीड़ उस लड़के के भरोसे जुटी रहती थी. शाम को उसका ठेला लगते ही लोगों का उसके ठेले पर मंडराना शुरू हो जाता था. कई वहां बैठ कर या खड़े खड़े ही ज़ायके का लुत्फ़ लेते, कई अपने बच्चों के लिए पैक करवा कर घर ले जाते. कई अपनी प्रेमिकाओं के साथ उनकी ख़ास माइश पर वहां आते.

लड़के के हाथों में ग़ज़ब की फुर्ती थी. वो एक ही काम को हज़ारों बार कर चुका था. वो रोज़ न जाने कितनी ही बार मसालों के सटीक मिश्रण और ठीक ठीक आंच की कीमियागरी के साथ बिलकुल एक जैसा ज़ायका परोसता था. गैस चूल्हा, कड़ाही, छन छन और कई पदार्थों में झपट पड़ता उसका हाथ आखिर में कड़ाही में छूटता था. उसके हाथ से कच्ची सामग्री के कड़ाही में छूटते ही छन्न की आवाज़ के साथ मसालेदार धुंए का एक छोटा बादल कडाही के गिर्द तैरने लग जाता. लोग मंत्रमुग्ध से उसे देखते थे. कई लोगों को संदेह था कि वो चीन से ट्रेनिंग लेकर आया है. ये संदेह कई लोगों के लिए दावे में बदल जाता. उसे लेकर उसके प्रशंसक अतिशयोक्तिपूर्ण दावे भी करने लगे. जैसे कुछ नियमित ग्राहकों का मानना था कि अकेले में वो चीनियों की तरह चॉप स्टिक्स से खाता है. कुछ लोग यहाँ तक भरोसा करते थे कि वो मंदारिन जानता है. तो कुछ की सनक उसे चीनी जासूस घोषित कर रही थी. खैर… ज़्यादातर का मानना था कि चीन तो दूर की कौड़ी है पर हांगकांग ज़रूर वो गया होगा. यद्यपि उसे देखकर कोई भी समझदार तो यही कहेगा कि वो इस शहर से बाहर शायद ही कभी गया होगा. और ऐसा ही था.

उसका काम सिर्फ कुछ न कुछ बनाना ही था. पैकिंग का काम एक दूसरा लड़का करता था. एक बार आर्डर जितना बनाने के बाद वो दूसरे आर्डर पर लग जाता, फिर तीसरे और बाद में चौथे. इस तरह अपने आप को हर बार दोहराता था. उसका व्यक्तित्व आर्डर लेने की प्रतिक्रिया से बनता था फिर हर आर्डर पर अपने को दोहराता था. उसे किसी ने बोलते हुए सुना नहीं था. उसके आस पास से कोई आवाज़ आती थी तो वो छन् की आवाज़ थी. वो मसालों की तीखी गंध वाले धुंए में लिपटा रहता था. आस पास खड़े लोगों के नथुनों की श्लेष्मा झिल्ली को रगड़ता तीक्ष्ण धूम्र ही उसका कुल व्यक्तित्व था.

आप उसकी तारीफ नहीं कर सकते. ‘कुछ अच्छा बना है’ कहने से न तो वो खुश होता था, न ही नाराज़. कोई नई बात नहीं थी ये कहना कि तुम एक उम्दा कारीगर हो.

(3)

उस जगह ख़ासी चहल पहल थी. ये फ़ास्ट फ़ूड का एक जटिल संकुल सा था जो शहर के एक बेहद जाने पहचाने चौराहे से कुछ ही दूर था. चौराहे पर एक बड़ा गोलाकार पार्क बना हुआ था जहां शाम के समय बच्चे जिद करके अपने परिवारों को लाया करते थे. वे सब उस पार्क में एकाध घंटे बिताकर वहां से वापसी करते. वापसी का ये रास्ता सीधे घर की ओर नहीं जाता था, बल्कि आग गंध और स्वाद के इस बेतरतीब भीड़भरे लेकिन मादक जंगल से उलझता हुआ घरों की ओर लौटता था.

चायनीज़ सबकी पहली पसंद था. मुम्बैया पंजाबी और साउथ इंडियन भी पसंद में होड़ लेते थे. चायनीज़ के नाम पर जो कुछ भी दिया जाता था वो बीजिंग में परोसे जाने वाले वेज जंक से कितना मिलता था, मिलता भी था या नहीं ये सब सवाल बेमानी ही थे. इस तरह के सवाल अगर होते भी थे या किये भी जा सकते थे तो उसकी जगह फेसबुक थी.

खूब सारी टेबल्स और प्लास्टिक की कुर्सियां फ़ास्ट फ़ूड की कई सारी दुकानें.

जय भोले चायनीज़ से मुंबई जंक्शन तक. नामों में कहीं इनोवेशन लगता तो कहीं चलताऊ रवैया सामने आता था..

तेज़ रौशनी चुभती सी और यहाँ वहां उड़ते कीट.

वे दोनों मेरे पास वाली टेबल पर आमने सामने बैठे थे. लड़के ने खूब दाढ़ी उगा रखी थी जो उसके चेहरे पर ठीक ठाक लग रही थी और उसके बेतकल्लुफ होने को और मजबूती से सामने लाती थी. लड़की कुछ ओवरवेट थी. माफ़ करें अगर ये कहना गुस्ताखी लगे. अगर आप मानते हैं कि आजकल ओवरवेट के लिए प्लम लफ्ज़ इस्तेमाल होना चाहिए तो मैं अपना शब्द वापस लेकर कहूँगा कि वो लड़की खाते पीते खानदान से ताल्लुक रखती थी. उसका चेहरा गोल और बड़ा था.

वे दोनों कुछ देर से आमने सामने चुप बैठे थे. वे बड़ी देर तक चुप बैठे रहे. कोई एक दूसरे की तरफ़ भी नहीं देख रहा था. किसी के चेहरे पर रंज़ या गुस्सा नहीं. शायद वे दोनों प्रेमी थे. बहुत थोड़ी सम्भावना उनके ठीक ठाक दोस्त होने की भी थी. पर सिर्फ दोस्त होने में जो बेतकल्लुफी होती है वो उनके बीच नहीं थी. स्थगित संवाद के बावजूद मन ये मानता था कि वे आपस में प्रेम में थे. वे अपने अपने काम से थक कर आये हो सकते थे. बल्कि ऐसा ही था. लड़की के सुंदर चेहरे पर थकान साफ़ दिख रही थी. लड़के के चेहरे पर दाढ़ी ने बेशक उसे छुपा रखा था पर वो जिस तरह से टेबल के नीचे पाँव पसार कर बैठा था उससे साफ़ था कि वो भी थका हुआ था. वे दोनों इतने थके हुए थे कि कुछ भी बोलना उनके लिए और थकाने वाला काम था. लड़के ने वेटर के इस बार फिर पूछने पर कुछ आर्डर दिया. थोड़ी देर बाद वेटर आर्डर रखकर चला गया. वे दोनों खाने लगे. खाने को लेकर कोई गहरा राग उनमें नहीं था. उनके आसपास रौनक थी. हर कोई अपनी पसंद की चीज़ें खाने में व्यस्त था. बच्चे खासे खुश. उनके मां बाप भी एक अच्छे दिन के शानदार समापन में लगे थे. खुशियों के बीच वे दोनों अपनी थकान के दायरे में थे. वे चुपचाप खा रहे थे. वे एकाध बार एक दूसरे की ओर देख रहे थे. उन दोनों का एक दूसरे की ओर देखना अलग अलग समय में हो रहा था. लड़की जब दाढ़ी वाले लड़के की ओर देखती तो वो लड़का नीचे नज़र किये खा रहा होता. लड़का जब लड़की की ओर देखता तो लड़की ‘कहीं ओर देखती पर कहीं नहीं देखती’ धीरे धीरे मुंह हिला रही होती. इससे दोनों को कोई शिकायत नहीं थी. इससे किसी को कोई शिकायत नहीं थी. न आसपास के लोगों को. वे पास बैठकर ही संतोष में थे शायद. कुछ कहने बोलने की ज़रुरत महसूस नहीं की जा रही थी.

अब मुझे ये विश्वास हो गया था कि वे असल में गहरे प्रेम में थे. मेरे इस विश्वास के बहुत बाद लड़की ने लड़के को एक भरपूर नज़र से देखा. और उसके बहुत बाद लड़के ने पैसे चुकाए और वे दोनों वहां से साथ साथ निकल गए.

संजय व्यास
उदयपुर में रहने वाले संजय व्यास आकाशवाणी में कार्यरत हैं. अपने संवेदनशील गद्य और अनूठी विषयवस्तु के लिए जाने जाते हैं.

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