एक बुढ़िया अपने बेटे बहू के साथ एक अकेले घर में रहती थी. वे दोनों उसके साथ बुरा बर्ताव करते और बहुत दुख करते. बुढ़िया अपने दुख की कथा अपने अंदर दबाये रखती जिससे वह दिन दिन मोटी होती गयी. अब तो बेटे बहू उसे छोड़ शहर चले गए कि इस मोटी के साथ रहना उनके बस में नहीं.
अब बुढ़िया घर पर अकेली रह गयी. उसकी व्यथा बढ़ती गयी किसे सुनाए किसको कहे, इस दुख में वह मुटाते हुए फट पड़ने को हो गयी. घर के आंगन की छत पर एक कद्दू की बेल चढ़ी थी उसने कद्दू को ही अपनी कथा सुना दी.
अब बुढ़िया का मोटापा कम हुआ और बेल पर लगा कद्दू मुटा कर फटने को हो आया तो उसने अपनी कथा एक चूहे को सुना दी और फटने से बच गया. अब चूहे ने फटने से बचने को अपनी कथा एक मिट्टी के गड्ढे को सुना दी गड्ढा भर गया चूहा बच गया.
गड्ढे पर एक पौधा उगा बड़ा हुआ उसमें फल आये और दिन पर दिन मोटे होते गए और एक दिन फट कर उनके बीज सब ओर फैल गए. जहाँ-जहाँ बीज गिरे और पौधे उगे उनके तने की लकड़ी से बांसुरी और ढोल बजाने के लुकुड़ बने और उन्होंने बज बज कर कथा को हर ओर फैलाया. फिर कोई भी अपनी काथ न कह पाने से नहीं फटा.
(इस लोक कथा को शब्द दिए हैं कमलेश उप्रेती ने. कमलेश पिथौरागढ़ ज़िले के डीडीहाट में एक अध्यापक हैं. वे सरकारी अध्यापकों की उस खेप में शामिल हैं जो बेहद रचनात्मक है और विचारवान है.)
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