भारतीय समाज की बनावट अनादि काल से सामंतवादी रही है. ऋग्वेद के काल में जब ऋचाओं में अपनी आवश्यकताओं के लिए मनुष्य ने देवताओ को गढ़ा तो अधिकांश पुरुष देवता ही पैदा हुए. ऋग्वेद की अंतिम ऋचाओं में ही उषा और अदिति नाम की देवियां सर्वप्रथम अस्तित्व में आई. अर्थात महिलाओं के साथ यह विभेद हमारी सभ्यता के प्रारंभ से ही देखा जाता है. (International Women’s Day)
सभ्यता के विकास के साथ समाज ने अनेक करवटें ली समाज व्यवस्था से, राज व्यवस्था राज व्यवस्था में भी एक से बढ़कर एक सल्तनतों का परिवर्तन भारत ने देखा लेकिन भारतीय समाज में महिलाओं को हमेशा से ही अपने अस्तित्व के लिए एक अलग लड़ाई लड़नी पड़ी है.
जहां स्त्री की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है हमारी संस्कृति का यह आधार वाक्य भी महिलाओं के प्रति अपराध और गैर बराबरी को बढ़ावा देने वाला वाक्य है, यह इस बात को स्थापित करता है कि हम महिलाओं की पूजा तो कर सकते हैं मगर हम उन्हें बराबरी का अधिकार नहीं दे सकते. बराबरी आजादी और प्रगति का एक सामान्य तत्व है किसी भी वर्ग व्यक्ति और समुदाय को बगैर बराबरी दिए हम उसकी आजादी और प्रगति को सुनिश्चित नहीं कर सकते.
इसलिए नित नए नारों से महिलाओं को आगे बढ़ा देने की योजना तब तक कामयाब नहीं हो सकती जब तक हम महिला को महिला होने के नाते नहीं बल्कि प्रकृति में प्राणी मात्र होने के नाते यह बराबर दें. यह बराबरी हम उसे किसी कानून और नीति के जरिए नहीं दे पाएंगे यह बराबरी सिर्फ और सिर्फ नजरिए में बदलाव के साथ ही संभव होगी .
कामयाबी के लिए महिलाओं को देनी होती है अतिरिक्त परीक्षा: यद्यपि आज हमारे समाज में सेना पुलिस वैज्ञानिक खेल साहित्य सभी दुष्कर समझे जाने वाले क्षेत्रों में महिलाओं ने अपने लिए अलग और बड़ा मुकाम हासिल किया है लेकिन महिलाओं द्वारा अर्जित यह सफलता कभी भी सामान्य सफलता नहीं रही है. जो भी महिलाएं कामयाब रहीं हैं उन्हें हर चरण में अपनी क्षमता के लिए अलग प्रयास करने होते हैं. कार्य के परिणामों के अतिरिक्त उन्हें हर बार यह साबित करना पड़ता है कि यह सफलता उनके द्वारा बगैर किसी अतिरिक्त सहायता लिए हासिल की है अर्थात कामयाबी अथवा सफलता महिलाओं के लिए कभी भी एक सामान्य प्रक्रिया नहीं रही है उन्हें हर चरण में अतिरिक्त प्रयास और सावधानी बरतकर खुद को साबित करना होता है. यह अतिरिक्त सावधानी समाज में महिलाओं के प्रति दुराग्रह पूर्ण नजरिए के कारण ही उत्पन्न हुई है. महिलाओं के प्रति यह परंपरागत दुराग्रह पूर्ण नजरिया ही महिला बराबरी के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है.
सिर्फ कड़े दन्ड प्रावधान ही नहीं है समाधान: महिलाओं के प्रति अपराध हमेशा से संवेदनशील और गंभीर प्रवृत्ति के माने जाते रहे हैं. उसके बाद भी समाज में निरंतर महिलाओं के प्रति अपराधो में वृद्धि देखी जाती रही है.
वर्ष 2012 में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में चलती बस में निर्भया के साथ जो घृणित अपराध घटित हुआ उसने पूरे देश में महिला अपराध के विरुद्ध एक ऐतिहासिक एकजुटता दिखाई दी. इस दबाव के चलते सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस .वर्मा की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने बहुत ही कठोर कानूनी प्रावधानों का सुझाव सरकार को दिया. वर्मा रिपोर्ट को आधार मान कर सरकार ने महिला अपराधों के प्रति बहुत कठोर रवैया अपनाते हुए बहुत सख्त कानून बनाए विशेष न्यायालयों का गठन किया. किशोरों के प्रति अपराध के लिए एक विशेष अधिनियम, नाबालिग बच्चों के विरुद्ध यौन हमले के निवारण के लिए, बनाया गया– पोक्सो अधिनियम. सजा को बेहद कड़ा किया गया फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन किया गया.
फरवरी 2013 के उपरांत महिला अपराधों से संबंधित महत्वपूर्ण धारा, 354 भा. द. वि. में बहुत महत्वपूर्ण संशोधन करते हुए न केवल महिला का पीछा करना बल्कि उसे घूरना तक अपराध की श्रेणी में ला दिया गया. लेकिन उसके उपरांत भी महिलाओं की सामाजिक स्थिति जस की तस बनी हुई है. गत वर्ष कठुआ जम्मू कश्मीर, उन्नाव उत्तर प्रदेश, सूरत गुजरात, नादिया पश्चिम बंगाल, पौड़ी उत्तराखंड में महिला अपराध की बहुत ही जघन्य और वीभत्स घटनाएं घटित हुई. कानूनी प्रावधानों को सख्त बनाते हुए देश के 4 राज्यों राजस्थान, हरियाणा, जम्मू कश्मीर तथा अरुणाचल प्रदेश में 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों के साथ लैंगिक अपराध बलात्कार को मृत्युदंड से दंडित अपराध की श्रेणी में ला दिया है .
कार्यस्थल में यौन शोषण के अपराधों को रोकने के लिए विभागीय समितियों का गठन अखिल भारतीय स्तर पर किया गया है. लेकिन उसके बाद भी महिलाओं के भीतर सामाजिक सुरक्षा का वह सामान्य भाव आज तक जागृत नहीं है जो कि एक स्वतंत्र और प्रगतिशील राष्ट्र की पहचान होती है. जहां तक महिला अपराधों के रिपोर्ट होने का प्रश्न है वह भारत को विश्व रैंकिंग में बहुत ऊपर नहीं रखता. एन.सी.आर.बी. के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 6.9 प्रति लाख की आबादी में महिला अपराध रिपोर्ट किया जाता है. यह आंकड़ा रिपोर्ट किए हुए अपराध का ही है. हमारी सामाजिक बनावट में महिला संबंधित अधिकांश अपराध समाज की पंचायतों द्वारा दबा दिए जाते हैं अथवा लोकलाज से बाहर भी नहीं आ पाते. यदि इस तथ्य की पड़ताल की जाए तो भारत में महिला अपराधों का आंकड़ा हमेशा से चिंताजनक रहा है. निर्भया बलात्कार, हत्या के बाद अपराधों की रिपोर्ट करने की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई है.
कुछ राज्यों में यह वृद्धिदर 2013 के बाद 25% की रही है लेकिन एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार देश में जहां महिलाओं के प्रति अपराधों में सामान्य बढ़ोतरी 10 से 12% तक देखी जा रही है वहीं इन मामलों के न्यायालय में लंबित रहने का अनुपात 20% की दर से बढ़ रहा है, जो और भी अधिक चिंताजनक है. महिलाओं के प्रति अपराध की दृष्टि से उत्तराखंड राज्य की स्थिति भी बहुत संतोषजनक नहीं है. उत्तराखंड राज्य में अकेले पुलिस क्षेत्र में वर्ष 2016 में महिलाओं के विरुद्ध 2035 मामले दर्ज हुए जिसमें 349 मामले बलात्कार से संबंधित अपराध के थे. वहीं वर्ष 2017 में कुल अभियोग 2310 पंजीकृत हुए, जिसमें 450 मामले बलात्कार से संबंधित अपराध के हैं. वर्ष 2018 में महिलाओं के विरुद्ध कुल 2960 अपराध पंजीकृत हुए जिनमें बलात्कार शीर्षक में 482 अभियोग पंजीकृत हुए. इस प्रकार महिलाओं के विरुद्ध पंजीकृत अपराधों की बढ़ोतरी का जो राष्ट्रीय इंडेक्स 10 से 12 प्रतिशत का है. उत्तराखंड में यह वृद्धि प्रतिशत राष्ट्रीय इंडेक्स 10 से 12% से अधिक ही है.
महिला अपराधों के प्रति विशेष न्यायालय-फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन के बाद भी इस स्थिति का बिगड़ना और अधिक चिंताजनक है जिस पर तत्काल गंभीर प्रयास किए जाने की आवश्यकता है.
कुल मिलाकर महिला सुरक्षा, महिला अपराध तथा महिलाओं की प्रगति यह सब अलग-अलग विषय नहीं हैं. बल्कि यह सब विषय मिलकर ही एक मुखर और सुरक्षित महिला और समाज का निर्माण करते हैं, इसलिए महिला उत्थान के लिए हमें अलग-अलग नहीं बल्कि समग्रता में विचार और प्रयास करने की आवश्यकता है. इस सब की बुनियाद में कानून में बदलाव से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है महिलाओं के प्रति समाज के नजरिए में बदलाव.
प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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