मशकबीन और हुड़के की जोड़ी पहाड़ के लोक की सबसे जुदा जोड़ी हुआ करती थी. एक तरफ बीनबाजे के नाम से पहाड़ों में मशहूर विदेश से आये एक बाजे की धुन थी दूसरी तरफ ठेठ पहाड़ी वाद्य हुड़के गमक. बीनबाजे की निसासी धुन और हुड़के की उत्साही गमक ने साथ में पहाड़ की वादियों में एक नया लोक संगीत रचा.
(Hudka and Bagpiper)
हुड़के और मशकबीन दोनों को अलग-अलग भी पहाड़ों में खूब बजाया गया. हुड़के की गमक के साथ खूब झोड़े गाये गये तो मशकबीन की धुन के बिना कभी पहाड़ी शादियों की पहचान भी रहा. दोनों की साथ में जुगलबंदी पहाड़ के कौतिकों में शुरु हुई.
नंदादेवी का धार्मिक मेला हो, क्या जौलजीबी का व्यापारिक मेला, सभी जगह मशकबीन और हुड़के जोड़ी खूब देखने को मिलती. कभी मशकबीन की धुन और हुड़के की गमक से निकलने वाला यह लोकसंगीत पहाड़ के कौतिकों की शान हुआ करते.
बहते पानी की तंरगों में से निकलने वाली हुड़के गमक के साथ मशकबीन का दूर तक सुनाई देने वाला संगीत पहाड़ों में दशकों दशक गूंजा. ऐसा कोई कौतिक न था जहां मशकबीन और हुड़के की जोड़ी ने अपना धमाल न मचाया हो. ऐसे कम ही पहाड़ी थे जो इस संगीत में थिरके बिना रह सकते थे.
(Hudka and Bagpiper)
समय के साथ-साथ यह जोड़ी पहाड़ के कौतिकों से गायब होती चली गयी और साथ में खत्म हो गयी कौतिकों में होने वाली मुक्त पैरों संग हाथ की उँगलियों की वह हलचल जिसे देखकर हरकोई रोमांचित हो उठता. कभी पहाड़ के कौतिकों की हीरो रही यह जोड़ी अलग-अलग आज भी पहाड़ों में खूब बजती है.
अब जब पहाड़ के कौतिक उत्सव और महोत्सव में पूरी तरह तब्दील होते जा रहे हैं वहां इस जोड़ी का फिर से लौट सकना कभी न पूरा हो सकने वाले सपने के पूरा जैसा होना है. अब इसे याद कर सकने के सिवा और किया भी क्या जा सकता है.
(Hudka and Bagpiper)
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