सोर की होली के रंग ही निराले. एक तरफ अल्मोड़े की बैठि या बैठकी होली के सुर आलाप तो दूसरी ओर गुमदेश-लोहाघाट-चम्पावत -पाटी की थिरकती नाचती हर थाप पे मदमाती खड़ी होली का संगम होता. बैठ कर गाई-बजाई जाने वाली होली बैठि -होली कहलाती जिसकी शुरुवात पूस के पहले इतवार से हो जाती. संगीत के ठुमरी अंग से मिलती जुलती, श्रतु परंपरा से चली शास्त्रीप रिवार संगीत पर आधारित बैठि होली जो राग कल्याण, श्याम कल्याण, काफी, जंगला काफी, खमाज, जैजैवंती, विहग के अलावा झिँझोटी, सहाना से विरल तालों में निबद्ध होती और गायी जाती चांचर -ताल में. फिर तीन ताल, कहरुआ का समन्वय और समापन पर फिर वही चांचर ताल.कुछ होलियां धमार, दादरा वा अन्य में भी गायीं जातीं. धमार के खुले बोल बड़ा समा बांधते. जब भी थोड़ी सुस्ती आती तो धमार उत्प्रेरक बन जाता. माघ फागुन आते श्रृंगार रस उद्दाम होता तो वैराग्य भाव भी. आखिरकार निर्वेद पर ही राग रंग सिक्त मन थमता.
(Holi in Pithoragarh)
होरि खेलें लालज्यू बाजे ताल जैसे कृषन घननन,
एक गावत एक मृदंग बजावत एक नाचत छन नन.
बहुत दिनांक के रूठे श्याम को में तो होली में मना आऊँगी,
श्री वृन्दावन की कुंज गलि से, गोदी में उठा लाऊँगी.
बालम निपट नादान, सखी दिन कैसे कटेंगे.
सखियाँ कहें मोसे गहना रिपहिनो, मैं गहना तजि दीन्हो.
बिन पिया सेजमोहेसून लगत है राखेगा कौन मान, सखी.
राधा नन्द कुंवर समुझाय रही, होरी खेलो फागुन रुत आय रही.
अब की होरिन में घर से न निकसो, चरनन शीश नवाय रही.
अति धूम हो रही बृज में, ऐसी होरी खेलत नन्दलाल.
काहू की बैयाँ पकर झकझोरी काहू को अंग से लगाय करत बेहाल.
रस की भरी चालि जात उपोरी गुजरिया
जो कुछ सौदा कर ले मुसाफिर
चार दिनां की लागी रे बजरिया.
खड़ी होली में, होली की अष्ट्मी को वृक्ष की बड़ी पय्या डाली को काट उस पर सफ़ेद कपड़े की चीर बँधी जाती. हाथों में हाथ डाल गोल घेरा बना कदम -दर – कदम गाते चीर वृक्ष के चक्कर लगाए जाते.
(Holi in Pithoragarh)
सिद्धि को दाता विघ्न विनाशन, होली खेलें गिरजापति नंदन
गोरी को नंदन मूसा को वाहन , होली खेलें गिरजाओ
ला हो भवानी अक्षत चन्दन, होली खेलें.
तुम सिदि करो महाराज होलिन के दिन में
तुम विघ्न हरो महाराज होलिन के दिन में
गणपति गौरि गणेश मनाऊँ
इन सबको पूजूँ आज होलिन के दिन में.
कैल बाँधी चीर हो रघुनन्दन राजा
सिदि को दाता गणपति बाँधी.
होली की एकादशी को चीर में रंग पड़ जाता. अब रंग के साथ खड़ी होली गायी जाती.
मैं तो रंग सइयां के मलूंगी, काहे पकड़े बइयां,
मैं तो रंग सइयां के मलूंगी.
मद की भरी चली जात गुजरिया
सौदा जो करना है कर ले मुसाफिर
चार दिना की लागी रे बजरिया
दधि मोरा खायो मटकिया फोरी
अब न रहूंगी तोरी मथुरा नगरिया.
मद की भरी चली जात.
खड़ी और बैठि होली के साथ ही शुरू हो जाता सैणीयों की होली का क्रम. काम काज से निबट फुर्सत बटा कर ढोलक -मजीरे के साथ गाती नाचती आमा, ठुल ईजा, केंजा काकी का समूह जिन्हें देख सुन बहू – ब्वारियां, बालिका- किशोरियाँ कितने राग -ताल की धरोहर एकबट्या लेतीं. होली पर ब्वारी सास से होली देखने की अनुमति मांग रही:
उमड़ घुमड़ ढपू बाजे मेरो पिया खेले धमाल
सुन हो सांसु मेरी,हम ढपु देखन जाय.
सैंणियों की होली में स्वांग भी होते. मर्दानी धज सजती. आपसी संवाद होते.
सैणी: त्वे बुढे की लम्बी दाढ़ी त्वे बूढ़े मैं रूनि ना
त्वे बूढ़ा का फूटिया आंखा त्वे बूढ़ा मैं रूनी
ना मैंस बनी
सैणी: फुटि आँखा चशम लगूंलो तब ले छोरी छोडूं ना सांचि बतै दे छोरी मैं छोडूंनाss.
सब रंगों में रची बसी होली में आलू के गुटके बनते. लाल खुस्याणी हरी मर्चा धनिये पुदीने भाँग के भुने दानों की चटनी पड़ती तो सूजी वाले,पहाड़ी खोये वाले,हाथ से किनारी किए गोजे गरमा गरम बंटते. साथ में गरम चा के गिलास.
अब त्यार हुआ और संपन्न खेती दूध दन्याली तो खाने खिलाने में कंजड़ पना कहाँ? शाम तो छोड़ो सुबह से ही बोतल को पेंदे से ठोक ढक्कन से आजाद करने के उपक्रम हो जाते. भांति भांति की वैरायटी जिसमें मिलिट्री वाली नंबर वन के प्रतिमान पर होती उस पर भी रम. तो शहर में खुली देसी-विदेशी के साथ रोडवेज से आई और काली पार से आयातित रकसी की भी विपुल भागीदारी होती. धूम्र से बरमाण्ड के द्वार खोलने की शिव बूटी की भी प्रचुरता रहती. संगीत में जितने सुर हैं उनसे परे जो भी अनुभव जन्य है उसके बोध में भोले की प्रतीति खूब रमाती.
सोर में होली मनाने का ऐसा अलग ही ठसका होता. अलग ही अंदाज. खास तौर पर बैठकी होली में रसिक जनों की प्रीत और अपनायी जा रही रीत का चुम्बक खूब रिझाता. संध्या से शुरू सम बस अल्ल्सुबह राग भैरवी तक होल्यारों को मदमस्त बनाये रखता.फागुन से राग रंग के तराने भरी होली का स्वागत पूस के पहले इतवार से ही हो जाता.हारमोनियम के सम जांचे जाते.तबले की मुसकें कसी जाती. चांदी सी अनवार वाली छोटी हथोड़ी की ठुक ठुक होती. रात का भोजन प्रायः पहाड़ में जल्दी ही हो जाता. खा पी के बैठक में जाने की तैयारी हो जाती. अभी तो ठंडा भी खूब रहता सो टोपी मफलर पंखी दुशाला सब की लद -फद मुकम्मल रहती. देसी पान,बंगला मीठा, जर्दा दखिनी और जहाजी सुपारी का स्टॉक वास्केट कोट की जेबों में रिज़र्व रहता. शौकीन माचिस सिगरेट बीड़ी भी ठूंस रखते. जहां बैठक होती वहां भी सब इंतज़ाम रखे जाते.ठोस- तरल सब रख अच्छे प्रबंधन की चर्चा तुरंत फैलती.
खड़ी होली चीर बाँधने सी शुरू हो कर रंग के दिन मतलब छरड़ी या छरड़ी के दूसरे दिन भोज भंडारे के साथ खतम होती. होलिका एकादशी से छरड़ी में रंग से सरोबार होने तक मोहल्ले मोहल्ले या पूरे गाँव के लोग बाग चीर के पास आकर होली गाते और पाँव के कदमों को नियत सी चाल में रख साथ में हाथ की मुद्राओं को सह -सम्बन्धित कर गोल घेरे में नाचते गाते. ढोल ढोलक वाले कभी बीच में आ जाते तो कभी घेरे में लग जाते.अक्सर कोई होलयार पधान बन बीच में आता और दिशा निर्देश देता. विशिष्ट पदन्यास चलता रहता. फिर बारी बारी गाँव या मोहल्ले के हर घर के आँगन में जा आशीष दी जाती. असीस देने की भी एक खास सुर ताल से बँधी शैली होती जिसमें सकुटुंब सपरिवार के शुभ मंगल स्वस्ति की कामना प्रार्थना निहित होती:
आज का बसंत कैका घरा!
उनर पूत परिवार, जीवो लाख सौ बरिसा!
हो हो होलक रे -केसरी रंग लागो भिगावन को
हो हो होलक रे !
पिथौरागढ़ जनपद में खड़ी होली गायन की पुरानी रीत चली आई. पहले चम्पावत जनपद भी इसी में शामिल था. कुमूँ यानी लोहाघाट चम्पावत गुमदेश की खड़ी होली यहीं से फैली और सोर में फैलती रही. खड़ी होली के गायन में लोक संगीत का तत्व प्रधान होता रहा.
बैठकी होली भारतीय शास्त्रीय संगीत से निबद्ध रही जिस में अनेक घरानों की स्पष्ट छाप पड़ी. समयनुकूल राग का चयन कर पुरानी बंदिशों का गायन होलियार करते हैं. एक गायक गायन आरम्भ करता है उसका स्वरुप बांधता है. राग का आकार गढ़ता है. शेष गायक अपनी अपनी बारी या तरंग से उसे उठाते हैं और अपने प्रस्तुति कौशल का प्रदर्शन करते हुए समां बांध देते हैं. इस तरह थोड़े बहुत अंतर के साथ खड़ी होली की तरह ही बैठकी होली में भी सामूहिकता का अनूठा माहौल जुट जाता है.
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बैठकी होली गायन की परंपरा मुख्यतः अल्मोड़ा से आई. इसके प्रचार प्रसार का माध्यम बने वह रसिक और रस सिद्ध होलियार जो कामधंधे, नौकरी व्यवसाय रिश्तेदारी प्रवास जैसे किसी भी सिलसिले से इसे अन्यत्र ले गये. पिथौरागढ़ में बैठकी होली गायन की शुरुवात कोई छः दशक पुरानी है. पुराने लोग व जानकार इसका श्रेय श्री सुन्दर सिंह मटियानी और उनके दगडुआ श्री खिम सिंह जी को देते हैं. सुन्दर सिंह और उनके अग्रज नारायण सिंह जिन्हें नर सिंह मास्साब के नाम से लोग जानते. उन्हें अल्मोड़ा में भी दूर दूर तक बैठकी होलियों का न्योता जाता था. नर सिंह मास्साब तो यायावर रहे. पिथौरागढ़ के ग्रामीण अंचलों में होली पर उनके दौरे चेलों सहित चलते रहते. थल, मुवानी, बेरीनाग, सांगड़ी,छड़नद्यो में तो रामलीला और बैठकी होली का श्री गणेश उनके प्रयासों से ही हुआ.
पिथौरागढ़ के समीप छाना गाँव और गंगोलीहाट के आसपास के कुछ गांवों में बैठकी होली पहले से ही खासी प्रचलित रही पर पिथौरागढ़ शहर इस आस्वाद से वंचित ही रहा. छाना गाँव के पांडे बैठकी होली और राग रागिनियों के बड़े जानकार थे. नरसिंग मास्साब होलियों में कई दिनों तक छाना में रमे रहते और वहां दिन रात चलने वाली होलियों का आस्वाद लेते. छाना गाँव में होने वाले सत्कार और बैठकी होली की रीत के वह बड़े प्रशंसक थे.छाना गाँव के होली गायकों को प्रोत्साहित करने और बैठकों में अपनी उपस्थिति बनाये रखने में बांस के जोशी परिवार हमेशा आगे रहे. बांस के जोशी अपने समय के रईस और समृद्ध होने के साथ कलापारखी रहे. इनके परिवारों में आदमियों को लला कहे जाने की रीत रही. बैठकी होली की परंपरा को आगे ले जाने वालों में बांस के खष्टि लला यानी खष्टीबल्लभ जोशी जी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है. होली के अलावा शिवरात्री और जन्माष्टमी पर भी गायन वादन की बैठक होतीं. पूस के पहले इतवार से ही छाना के होरियार या होलियार बांस जाते व वहां के प्रतिष्ठित जोशीयों के यहाँ बैठकें होतीं. आदमी लोग महफ़िल में बैठते और औरतें ओट से होलियां सुना करती. छाना ग्राम में एक खल हुआ करता, “माजिखल” जहां बड़ी बैठकें हुआ करतीं. छाना के निवासियों की संगीत रसिकता को देख ये कहा जाता कि छाना के बालगोपाल तो रोना भी धमार से शुरू कर विहाग पर खतम करते हैं.
पिथौरागढ़ में बैठकी होली के रसिया अनेक रहे जिनके प्रयासों से एक स्वस्थ परंपरा विकसित हुई. इनमें श्री नित्यानंद जी शर्मा, श्री राधे श्याम खन्ना, श्री जे सी पाटनी, श्री कीर्ति बल्लभ जोशी, श्री रमेश चंद्र पांडे एडवोकेट, बिष्टजी लखपति, श्री लीलाधर पाटनी, श्री गोपालदत्त पांडे, सनातन गुरू,श्री चंचल सिंह बिष्ट मालदार जैसे स्वर संगीत प्रेमियों ने पचास के दशक से होली की बैठकों को लगातार आगे बढ़ाया. श्री सुन्दर सिंह मटियानी, श्री खीम सिंह जी, श्री अम्बा दत्त जी, श्री नैन सिंह ऐर और उनके अग्रज श्री श्याम सिंह ऐर और श्री केशव राम जी उर्फ़ केसी मास्साब इन होली बैठकों की जान हुआ करते.
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खिम दा यानी खीम सिंह जी गाते भी खूब तबला बजाने में भी सिद्ध हस्त.रामपुर के तबलचियों के फैन हुए वह. वहीं मुख़्तार साब याने कि कीर्ति बल्लभ जी बस केवल धमार गाते. बुढ़ापे में जब गले ने सुर खींचने मंद कर दिए तब भी रात रात बैठकों में जमे रहते और दाद देते. जहां खुश हो उनकी दाद मिल गई तो समझ जाओ कि महफ़िल में सही सुर राग और ताल बने है.उनके अंदाज निराले होते. छोटे छोटे बच्चों को आस पास बैठा किसी एक को अपनी गोद में बारी बारी से बैठा लेते और उसकी कलाई पकड़ गायी जा रही होली के सम पर छोटे छोटे हाथों से ताली बजवाते. महेंद्र मटियानी ने बताया था कि मुख़्तार साब की गोद में बैठ हम कई दगडुओं ने ताल और सम -खाली -भरी का आरम्भिक ज्ञान पाया. मुख़्तार साब के बाद गफ्फार अली, त्रिलोचन पुनेठा, चुम्मन लाल वर्मा और जमीर भाई यानी जमीर अली का दौर आया.गफ्फार अली तो गजब के तबला मास्टर थे. सभी प्रचलित ताल बड़ी सिद्ध हस्तता से पकड़ लेते और पूरी शास्त्रीयता से बजाते. पर पूछो कि क्या बजाया तो एक बोल बताने में भी झिझक जाते यानी थ्योरी में फेल होने के बाद भी तबले की ताल और गमक को साधने की मोहिनी विद्या उनकी उँगलियों में ऊपर वाले ने पूरी कृपा और बरकत के साथ दे डाली थी.रामपुर वाले अहमद जान थिरकुवा को जिन लोगों ने सुना जाना वो तबला प्रेमी अनायास ही तुलना में गफ्फार भाई का जिक्र करते.
होली की धुन में मगन और बैठक करने कराने के पारंगत लोगों में गोपाल दत्त पांडे और सनातन गुरू को जुनूनी कहा जाता था. पूस का इतवार आया नहीं कि आगे की होली बैठक का पूरा खाका खिंच जाता. कब कहाँ किसके यहाँ की डिटेल प्रोग्रामिंग पांडे जू और सनातन गुरू के दिमाग में कुलबुलाती. कभी किसी दिन कोई घर तय न हो पाए तो पांडे जू की चाय पकोड़ी की दुकान आबाद हो जाती. सनातन गुरू ने अपना दायरा और फैला रखा था. वो भजन कीर्तन और मानस पाठ कराने के भी उस्ताद रहे. साधन सीमित होते पर जरुरी सब चीज बस्त पकड़ में ले आते. तब तो पूरे पिथौरागढ़ शहर में चार पांचेक ही हारमोनियम हुआ करते और कुल जमा आठ दस गैस बत्तीयां. ये वही पंचलेट थी जिस पर रेणु ने ह्रदय स्पर्शी कहानी लिख डाली थी. पिथौरागढ़ में समृद्ध दुकानदारों के पास ही गैस बत्ती होती. तब बैठक के लिए भी इनका जुगाड़ सिर्फ तब हो पाता जब दुकान बंद हो जाएं. पर होली बैठक के लिए ना कभी कोई न करता. इसका फिलामेंट बदलना और पंप कर रौशनी धधकाने का हुनर भी कुछेक हाथ ही जानते. पंचलाइट के साथ तबला हारमोनियम भी पब्लिक प्रॉपर्टी बन जाती. पूरे जतन और केयर के साथ चीज बस्त का प्रयोग होता. आखिर तबला रामपुर से मंगाना होता और जर्मन रीड का बाजा होता. तबले के प्रयोग की शुरुवात खिमदा ने कराई. उससे पहले ढोलक पे ही थाप पड़ती थी.
जनपद पिथौरागढ़ में शास्त्रीय संगीत और लोक रंग को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में यहाँ के जिलाधिकारियों का बड़ा योगदान रहा. पहले जिलाधिकारी जीवन चंद्र पांडे थे. उनके साथ लोकथात की गहरी पकड़ वाले बहादुर राम टम्टा. ये द्वय बैठकी होली के रसिक और गंभीर श्रोता थे. पिथौरागढ़ रहते इनके पारदर्शी प्रशासन और जनता के कल्याण हेतु विकास की चरम सिद्धि का एक बहुत बड़ा कारण ये भी था कि इन्होंने लोगों का दिल छू लिया. पर्व, उत्सव आयोजनों में अपनी अभिरुचि से शासन और जनता के बीच की दूरी मिटा दी. होली पर अपने सरकारी बंगले में बैठकों का आयोजन करवा ऐसे श्रृंखला प्रभाव उपजा दिए कि लोग आज भी उस दौर के सुराज को याद करते हैं.
पिथौरागढ़ की बैठकी होली की समृद्धि और शास्त्रीय स्वरुप को बनाने और संरक्षित करने में अल्मोड़ा से आए गुणी जनों का खासा योग रहा. पहले पिथौरागढ़ अल्मोड़ा जिले का ही क़स्बा था. यहाँ की सरकारी नौकरियों, वकालत और व्यापार के सिलसिले के बढ़ने के साथ अल्मोड़ा निवासियों की आवाजाही बढ़ी. इनमें से कई परिवार पिथौरागढ़ में ही बस गये. लोक उत्सव मनाने में अल्मोड़ा का विशिष्ट कौशल अपना जादू दिखाने लगा. अब वह ऐपण देना हो या सिंगल पुआ गोजा बनाना सब तेजी से प्रदर्शन प्रभाव के सुयोग से प्रचारित प्रसारित होने लगा.होली दीवाली पे अल्मोडिया छाप पड़ी तो सातूँ -आठूँ यहाँ से प्रचलित हुआ.
जब पिथौरागढ़ जनपद बना और भारत चीन युद्ध के बाद सीमांत इलाकों को अधिक विकसित करने की सुध आई तो आवाजाही और बढ़ी. सुरम्य सोर घाटी की बेहतर जलवायु और उर्वर जमीन से बसाव भी तेजी से बढ़ा. अल्मोड़ा, गंगोलीहाट से आए कई परिवार यहीं मकान बना बस गये. अब तो होली की बैठकें भी इतनी तेजी से बढ़ने लगीं कि होली के शास्त्रीय गायक वादक एक ही रात में कई कई बैठकों में न्यूते जाने लगे. अल्मोड़ा, गंगोली, लोहाघाट से आए कई प्रवासी परिवार जो यहीं बसे उनमें से अधिकांश अच्छे गायक वादक और रसिक रहे जिन्होंने दूर जगह बसने के बाद अपनी परंपरागत थात को खूब जमाया. बैठकी होली खूब चल पड़ी. पुराने जानकारों की स्मृति में पी डब्लू डी वाले और एस एस बी वाले जीवन चंद्र पंत जी का नाम सबसे पहले आता है. दोनों अलग विभागों के थे पर नाम राशि एक. फिर जिलाधिकारियों में मोहन चंद्र जोशी भी होली के गहन रसिया रहे. अपने सरकारी आवास पर परंपरागत होली की खूब धूम मचाने में उन्होंने कोई कसर न छोड़ी.
सोर घाटी में बैठकी होली को स्वयं स्फूर्त विकास देने में बिषाड़ गाँव के मोहन चंद्र भट्ट जी, सिलोनी गाँव के श्री भुवन जोशी, चंडाक के श्री भुवन चंद्र जोशी, चिरंजीव जोशी, और श्री हरी दत्त पाटनी खूब कर गुजरे.हरिराम भट्ट जी और उनके चेलों ने खूब मेहनत की.
सत्तर के दशक से अस्सी के उत्तरार्ध तक बैठकी होली की शास्त्रीयता और गुणवत्ता पर बदलते जमाने का कोप पड़ा. पुराने लोग अपनी यात्रा पूरी कर गये अन्य कामधंधो में अधिक संलिप्त हो गये. कई बैठकें नशे के अड्डों में तब्दील होने लगीं. ये ऐसा संक्रांति काल रहा जब पूस का पहला इतवार होली के टीके के लम्बे समय में आठ -दस बेहतर बैठकों के संपन्न होने को तरसने लगा. एक सन्नाटा सा पसर गया.
इस सन्नाटे को तोड़ने की पहल हुई. जब हरिराम भट्ट जी के चेले सामने आए जिनको गुरु ने हाथ से ताली बजा कर, बैठि-होली की ताल पर चाल बताते हुए, एक-एक राग की गायकी गा-गा कर सिखाई. इनमें भुवन जोशी ने बड़ी मेहनत की. होली का माहौल बनाये बचाये रखने में गोविन्द मखोलिया होलसेलर, बीज भंडार वाले जगदीश पुनेड़ा, संगीत मास्साब कर्नाटक जी और कपूर साब, कलेक्ट्रट के राम दत्त भट्ट जी, डी आई ओ एस के हीराबल्लभ भट्ट जी, वायरलेस, सिविल डिफेन्स और लो नि वि के जीवन चंद्र पंत जी, उद्योग विभाग के उपाध्याय जी का खासा योगदान रहा.तो उत्प्रेरक बने राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय पिथौरागढ़ में आए रसायन विज्ञान के प्रवक्ता श्री के बी कर्नाटक.
मूलतः कर्नाटक खोला अल्मोड़ा के बासिंदे कर्नाटक जी पूरी सजधज से रहते और होली की बैठक को मदमस्त बनाने का हुनर जानते. उनके गायन ने होली की बैठकों की रौनक लौटा दी. वह विद्वान गुरू के नाते शास्त्र पारंगत शिष्यों की नई पीढ़ी भी सोर घाटी में रोप गये. गायन में ऐसा ही योगदान श्री नंदन जोशी ने दिया. दोनों के योग से होली की बैठकों की रौनक तो बढ़ी ही नई पीढ़ी ने होली गायन की शास्त्रीय बारीकियां भी सीखीँ. महाविद्यालय के संगीत विभाग में भी कई धुरंधर मौजूद रहे. श्रीमती हेमा जोशी जब अपनी रौ में गाना शुरू करतीं तो ऐसे जगत में विचरण का भास होता जहां स्वर और राग रागिनियाँ आत्मसाक्षात्कार करा देतीं.
नैनीताल से आए श्री संतोष साह का नई पीढ़ी पर वरद हस्त रहा. अपनी लगन और धुन के पक्के विनम्र सहृदय साह जी तबले के शहंशाह रहे. पिथौरागढ़ में तबला वादक गिने चुने ही रहे.वह भी समय था जब के सी मास्साब, जमीर भाई और जीवन चंद्र पंत जी के अलावा बैठकों में तबला बजाने वाला कोई न होता था. संतोष साह ने ये कमाल कर दिखाया कि लोग ये जाने कि संगत क्या कमाल कर दिखाती है. स्वयं खुद और उनकी शिष्य मंडली होली पर तबले की परंपरागत व शास्त्रोक्त संगत से बैठकों को गुणवत्ता से रस सिक्त कर गयीं.दिन रात एक कर योग्य चेलों को वादन गायन में पारंगत बना सोर घाटी में होली की बैठकों को साह जी ने फिर से स्वतः स्फूर्ति की द्रुत दे डाली. यही नहीं पिथौरागढ़ से बाहर यहाँ की खड़ी होली को प्रतिष्ठित करने प्रदर्शित करने के उन्होंने बेहतर प्रबंध किए. नैनीताल में होली की दुर्गति दूर करने जब युगमंच ने बीड़ा उठाया तो संतोष साह ने पिथौरागढ़ लोहाघाट की खड़ी होली का वह समागम नैनीताल में करा डाला कि लोग मदमस्त हो उठे. तब से अब तक ये सिलसिला बढ़ते ही रहा.
(Holi in Pithoragarh)
नैनीताल में रचनात्मक विधाओं का चुम्बक जैसे जहूर भाई के इंतखाब में है वैसे ही पिथौरागढ़ में ठा. मिलाप सिंह अधिकारी वस्त्र विक्रेता के बोर्ड लगी दुकान में भी वही अनवार दिखाई देती है. जहां प्रसन्न मुख गजेंद्र भाई और ललित संगीत प्रेमियों की संगति में रहते. होली के दिनों में सिनेमा हॉल से नीचे अधिकारी भवन में बैठकी होली परवान चढ़ती जहां कर्नाटक जी और संतोष साह जी, नंदन जोशी जैसे गुरू और उनकी फैलती बेल अपनी समृद्ध परंपरा को नये आयाम देने में जुट जाती. इन लोगों का योग देखिये कि गायक वादकों की संख्या श्रोताओं से अधिक हो गयी.
गुरू शिष्य परंपरा की नवस्फूर्ति में प्रकाश चंद उभरे जिनकी संगत सटीक और दमदार रहती. राजेंद्र पंत और खुशाल सिंह ने जहां खूब होली गाई वहीं वायलिन बजाने में भी निपुणता प्राप्त की. खुशाल सिंह गायनेत्तर भंगिमाओं से भी बैठकों की रसिक रौनकता का नया अध्याय रच गये. इस दौर में श्री जगदीश पुनेड़ा, जगत सिंह मतवाल, गोविन्द मखोलिया, जीवन चंद्र पंत, केदार खर्कवाल, गोपाल सिंह मटियाली, दिनेश पंत, रिंकी पांडे, भुवन पांडे, महेंद्र मटियानी ने होली की बैठकों को रस सिक्त करने में जी जान लगाई.
जाने माने चिकित्सक के साथ सरल सहृदय विनम्र योगी पुरुष डॉ नवीन चंद्र पाठक लोक संस्कृति को शांत सहज भाव से परिपक्व करने के लिए हमेशा याद किए जायेंगे जो बैठकी होली के बड़े रसिया थे. उनके साथ ही इस सदी की शुरुवात के पहले नई पीढ़ी को बहुत कुछ सौंप जाने वाले “बाली उस्ताद” भी जो होली गायन के अपने अभिनव अंदाज से मंत्र मुग्ध कर देने के लिए हमेशा तैयार दिखते थे.
(Holi in Pithoragarh)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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