भगत सिंह के जीवन पर बनी फिल्में बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों के मध्य भी चर्चा का विषय बनी रहीं. इसलिए कि स्वतंत्रता आंदोलन के उस कालखंड (1925-31) पर फिल्माया गया एक क्रांतिकारी का जिंदगीनामा उसके अभियान और विचारधारा के साथ कितना न्याय कर सका. ऐसा क्यों हुआ कि बॉलीवुड को एकाएक भगत सिंह तेजी से याद आ गए और उन पर एक साथ पाँच-पाँच फिल्में उतार दी गईं. आश्चर्य यह कि कहानी एक और फिल्में अनेक. सभी फिल्मों की जानकारी का स्रोत भगत सिंह पर उपलब्ध संस्मरण साहित्य और दस्तोवज ही हैं. उल्लेखनीय यह है कि उस आंदोलन का कोई साथी अब जीवित नहीं है. आजाद हिंदुस्तान में चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के जो साथी बचे भी थे वे बहुत उपेक्षित जिंदगी जीते हुए एक-एक कर मर-खप गए और उनका कोई पुरसाहाल नहीं हुआ.
भगत सिंह भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के ऐसे नायक थे जिनके पास विचार की अकूत पूँजी थी. अपने शुरुआती क्रांतिकारी सफर से लेकर फाँसी के फंदे तक लगभग छह वर्ष की अवधि में वे बड़ी क्रांतिकारी घटनाओं यथा सांडर्स-वध और दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट में शामिल होने के साथ-साथ निरंतर लिखते और बोलते रहे. यदि उनके एक हाथ में पिस्तौल थी तो दूसरे में कलम. अध्ययन उनका बहुत फैला हुआ था. ऐसा उनकी जेल नोट बुक देखने से भी प्रमाणित होता है. उनके पत्र, अदालती बयान और सयम-समय पर लिखे गए उनके निबंधों, टिप्पणियों से भी यह जाहिर होता है कि विचार की दुनिया को खंगालने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया था. ऊपरी तौर पर देखने पर वे एक राजनीतिक व्यक्ति थे पर उनके भीतर गहन साहित्यिक और सांस्कृतिक समझ विद्यमान थी. उनके पास भारतीय राजनीति और अपने समय को देखने की एक गहरी दृष्टि थी. उन्होंने समाज और राजनीति का कोई विषय नहीं छोड़ा जिस पर कहा और लिखा न हो. चाहे वह भाषा और लिपि का जटिल सवाल हो या फिर सांप्रदायिक की समस्या, धर्म और ईश्वर, इंकलाब का अर्थ, मजदूर और किसानों के हित, सर्वहारा की सत्ता, अछूत का प्रश्न, शोषण पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था से मुक्ति अथवा मार्क्सवादी सिद्धांतों को सामने रखकर समाजवादी समाज के निर्माण का बड़ा उद्देश्य. यदि उनके राजनीतिक गुरु राधामोहन गोकुल थे तो उन्होंने मार्क्स और लेनिन से विचार की ऊर्जा ग्रहण की. उनके प्रेरणास्रोत करतार सिंह सराबा जैसे भारतीय क्रांतिकारी शहीद थे लेकिन दूसरी ओर उन्हें अत्यंत स्फूर्तिवान संग-साथ भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव और चंद्रशेखर आजाद जैसे मित्रों और क्रांतिकारी संगठनकर्ताओं का प्राप्त हुआ जो उन्हें बहुत ऊँचाईयों की ओर ले गया. वे साफ कहा करते थे कि क्रांति से उनका अर्थ अंततोगत्वा एक ऐसी समाज व्यवस्था की स्थापना से था जो हर प्रकार के संकटों से मुक्त होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा. इसे गहराई से जानना चाहिए कि वे क्रांति को बम या पिस्तौल का संप्रदाय नहीं मानते थे. उनका अभिप्राय अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन था.
तो क्या भगत सिंह पर बनी मौजूदा फिल्में इस क्रांतिकारी नायक की इस तस्वीर को प्रस्तुत करने में कामयाब हो सकी हैं जिस भगत सिंह को हम उसकी विचारयात्रा को जानते-बूझते संपूर्ण भारतीय क्रांतिकारी संग्राम का सर्वाधिक विचारवान क्रांतिकर्मी और प्रवक्ता मान लेते रहे. हम पहले यह भी साफ कर दें कि क्रांति के उस कालखंड में भगत सिंह कोई व्यक्ति नहीं, अपितु अपने क्रांतिकारी दल ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ का बौद्धिक नेतृत्व करने वाले उसके एक सदस्य ही थे. सारे अभियानों के पीछे पूरी पार्टी की शक्ति और संयुक्त योजनाएँ थीं जिन्हें कार्यान्वित करने का दायित्व दल के सेनापति कभी भगत सिंह को सौंपते, तो कभी सुखदेव, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, भगवानदास माहौर, सदाशिवराव मलकापुरकर या फिर विश्वनाथ वैशम्पायन, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, गया प्रसाद, पं. किशोरीलाल, दुर्गा भाभी, सुशीला दीदी, सुखदेव राज, धनवंतरि अथवा विजयकुमार सिन्हा को. किसी भी ऐक्शन के पीछे पार्टी की एक सोची-समझी रणनीति और उसकी क्रियान्वयन पद्धति थी. भगत सिंह वहाँ अकेले नहीं होते थे. उनके क्रांतिकारी सफरनामे को सिर्फ एक रोमांटिक हीरो के रूप में इन मुंबईया फिल्मों की तरफ पेश करना उस संपूर्ण क्रांतिकारी चेतना का अपमान और नासमझी है जिसके लिए अपने समय में भारतीय क्रांतिकारी दल समर्पित रहा है. साहित्य और इतिहास में दक्षिणपंथी लोगों की घुसपैठ कम नहीं रही है जिसके चलते भगत सिंह जैसे प्रगतिशील क्रांतिकारी नायक को मात्र सांडर्स को मारने, बम फेंकने, इंकलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद करते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे में झूले जाने वाले जोशीले नौजवान के रूप में दिखाया जाता रहा. इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा दौर में राष्ट्रवादी उनकी जुनूनी छवि को देशभक्तिपूर्ण संवाद थमाकर अपने पक्ष में खड़ा करने की घिनौनी कोशिशें करते रहे. कहना न होगा कि भगत सिंह की इसी छवि की ओर हिंदी सिनेमा आकृष्ट हुआ और और उसने उसमें फिल्मी मिर्च-मसाला लगाकर अंततः दर्शकों के सम्मुख परोस दिया. भगत सिंह की बना दी गई रोमांटिक तस्वीर को अपने ढँग से इस्तेमाल करना जैसे बॉलीवुड का लक्ष्य बन गया. यह सही है कि फिल्मों के निर्माता करोड़ों रुपया लगाकर व्यवस्था परिवर्तन के लिए सचेत और समर्पित क्रांतिकारी भगत सिंह को पर्दे पर क्यों प्रस्तुत करना चाहेंगे. उनका उद्देश्य क्रांति नहीं है. उनका काम फिल्में बनाना और उनसे पैसा कमाना है. जाहिर है कि बाजार के इस समय में फिल्म वाले वह सब कुछ बेचना चाहते हैं जो उनके धंधे में गर्माहट ला सके. फिर चाहे वह सेक्स हो या भगत सिंह. भगत सिंह की चेतना का प्रचार-प्रसार फिल्मी दुनिया का मकसद हो भी नहीं सकता. इन फिल्मों को उस नजरिए से देखा भी नहीं जाना चाहिए कि उनमें उस संग्राम को आगे बढ़ाने का उद्देश्य निहित हो सकता है जिसे भगत सिंह अधूरा छोड़ गए थे और जिसे क्रांति-विरोधी शक्तियों के 1947 में सत्ता में आ जाने के चलते हासिल नहीं किया जा सका था. हुआ यह कि ‘लगान’ ओर ‘गदर’ जैसी पीरियड फिल्मों की कामयाबी के बाद फिल्म निर्माताओं को लगा कि भगत सिंह भी स्वतंत्रता संग्राम के दौर के ऐसे नायकों में हैं किनकी छवि को भुनाया और बेचा जा सकता है. पर इसके लिए उन्हें ‘मसाले’ की तलाश थी. यानी क्रांतिकारी हीरो ऐसा हो जिसकी जिंदगी में प्यार-व्यार भी हो. अब तक प्रदर्शित फिल्मों ‘शहीदः 23 मार्च 1931’ और ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ में भगत सिंह की मंगेतर/प्रेमिका को ईजाद कर लिया गया क्योंकि इसके बिना हिंदी सिनेमा की माँग पूरी नहीं होती. वे भूल गए कि ‘गांधी’ फिल्म भी सफल हुई थी जिसमें कोई प्यार का गाना या दृश्य नहीं थे.
भगत सिंह पर धर्मेंद्र की फिल्म में बॉबी द्ओल (भगत सिंह) और ऐश्वर्या राय (प्रेमिका) साथ-साथ गाना गाते हैं. कहा जाता है कि ऐश्वर्या राय को इस छोटी-सी भूमिका के लिए 30 लाख रुपए पारिश्रमिक दिया गया. दूसरी फिल्म के निर्माता राजकुमार संतोषी भी अजय देवगन (भगत सिंह) के साथ उनकी मंगेतर को फिल्मी लटके-झटके के साथ ‘तुडुक-तुडुक’ और ‘बल्ले-बल्ले’ करा देते हैं. भगत सिंह के जीवन में कोई ऐसा प्रेम-प्रसंग नहीं था, पर शायद इस नाच-गाने के बिना फिल्में पूरी नहीं हो सकती थीं. निर्माता इन दृश्यों को फिल्मों की माँग कहेंगे और यह भी बताएँ गे कि यह उनके व्यवसाय की मजबूरी है पर क्या व्यावसायिक मजबूरी के चलते एक क्रांतिकारी शहीद की छवि को जनता और नई पीढ़ी के सम्मुख गलत ढँग से प्रस्तुत करने की छूट किसी को दी जानी चाहिए यह हमारी इतिहास-चेतना की अनुपस्थिति का बड़ा उदाहरण है कि यह फिल्में सिनेमा हॉल में प्रदर्शित हो रही हैं और हम सवाल भी नहीं खड़े कर सकते. ‘माउंटवेटनः द लास्ट वायसराय’ जैसी फिल्में हमारे इतिहास को विकृत ढँग से प्रस्तुत करती हैं और हम चुप रहते हैं. मुझे याद है कि मनोज कुमार के धारावाहिक ‘भारत के शहीद’ में भी कई स्थानों पर क्रांतिकारियों की छवि को ध्वस्त किए जाने पर हमारे मध्य बहुत हलचल नहीं हुई थी. यद्यपि बाद को कुछेक सवालों पर उसका प्रसारण बाधित हुआ था. यह सही है फिल्में या धारावाहिक इतिहास नहीं होते और न ही उन्हें देखकर हमें कोई इतिहास संबंधी निष्कर्ष निकालने चाहिए. बावजूद इसके यदि पर्दे पर उतारी गई छवियाँ इतिहास अथवा उसके नायक के व्यक्तित्व और विचारधारा को इस हद तक नुकसान पहुँचाएं कि लोग उसे लेकर किसी बड़े भ्रम का शिकार होने लगें तो उन सभी को उस पर प्रश्नचिन्ह लगाना चाहिए जो उसकी वास्तविकता से गहराई तक परिचित हैं. आश्चर्य होता है कि भगत सिंह के परिवार के दो सदस्यों ने धर्मेंद्र और संतोषी की फिल्मों में सलाह-मशविरा भी दिया था. कुछ और भगत सिंह के रिश्तेदार जो इन फिल्मों का विरोध कर रहे हैं वे सिर्फ यह दिखाने के लिए ही कि वे भी उस शहीद के रक्त-संबंधी हैं और उनका भी भगत सिंह पर ‘अधिकार’ है. उनकी ओर से जो आपत्तियाँ अब तक तक दर्ज की गई हैं उनमें भगत सिंह की विचारधारा को दबाने या छिपाने को लेकर कहीं कोई चिंता नहीं है.
भगत सिंह पर बनी इन फिल्मों से यह तो लाभ होगा कि नई पीढ़ी उस क्रांतिकारी शहीद के नाम से बखूबी परिचित हो सकेगी. पर अच्छा यह होता कि यदि यह फिल्में भगत सिंह को संपूर्ण रूप से जानने-समझने का प्रस्थान बिंदु बन सकतीं. भगत सिंह से परिचित होने के लिए फिल्में नहीं, इतिहास और साहित्य ही माध्यम बनेगा. यह अच्छी बात है कि भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज और उस आंदोलन की सारी चीजें आज हमारे बीच उपलब्ध हैं. हम उम्मीद करेंगे कि आने वाले समय में भगत सिंह की क्रांतिकारी चेतना को जानने के प्रयास तेज होंगे. यह देखा जाना जरूरी है कि देवदास और भगत सिंह पर बनी फिल्में तो किस तरह बेशर्म तरीके से मिथ को सच व सच को मिथ में तब्दील कर सकती हैं. ऐसा लगने लगा है कि पॉपुलर मीडिया भगत सिंह के चरित्र के साथ न्याय नहीं कर सकता. आखिर क्यों देवदास और भगत सिंह पर बनी फिल्में मिथ और सच, फिक्शन और फैक्ट में कोई अंतर नहीं रहने देतीं यह जानते हुए भी कि वे इतिहास के एक जरूरी कालखंड को पर्दें पर उतारने जा रहे हैं. उन्हें हर चीज को कमोडिटी (उत्पाद) में बदल देने में महारत हासिल है. ‘लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ में भगत सिंह से यदि अपने व्यावसायिक हितों के चलते भांगड़ा करवाया गया है तो कौन कह सकता है कि भविष्य में यदि गांधी पर कोई फिल्म बनती है तो उसमें गांधी को नहीं नचवाया जाएगा.
‘शहीद 23 मार्च 1931’ में भगत सिंह वैचारिक चेतना से लैस अपनी असली रूप में कहीं दिखाई नहीं देकर एक रूमानी, उन्मादी और कई जगह बदहवास युवक से दिखाई पड़ते हैं. इस फिल्म में इतिहास की अक्षम्य चूकें हैं. क्या फिल्म निर्माता इतना भी शोध नहीं करते कि वे सही ऐतिहासिक तथ्यों को दर्शकों तक पहुँचा सकें. फिल्म में लाला लाजपतराय को गदर पार्टी का नेता बताना पूर्णतया गलत है. क्रांतिकारी संग्राम की घटनाएँ भी बहुत क्रमबद्ध नहीं हैं. पूरी फिल्म में सिर्फ भगत सिंह ही हर क्षण केंद्रीय नायक बने रहते हैं. उनके नजदीकी साथियों की कोई हिस्सेदारी नजर नहीं आती. सुखदेव और राजगुरू का कद भी किसी तरह नहीं उभरता. बॉबी देओल के फिल्मी लटके-झटके उसे भगत सिंह के नजदीक नहीं पहुँचने देते. चंद्रशेखर आजाद की भूमिका में सन्नी देओल भी मसल-मैन ही बने रहे जो किसी तरह आजाद के चरित्र के अनुरूप नहीं है. इस फिल्म में भगत सिंह के विचार पक्ष के साथ बड़ा अन्याय किया गया है. उन्हें एक आस्तिक और एक हिंदू राष्ट्रवादी बनाकर दिखाने के पीछे क्या कोई षड्यंत्र तो नहीं है. यह उनके धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक चिंतन के सर्वथा विपरीत है. भगत सिंह जब एक जगह देशभक्ति का गीत गाते हैं तो पीछे भारत माता की तस्वीर दिखाई गई है जिसमें केसरिया ध्वज भी है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इसी चित्र को अपने कार्यक्रमों में रखता और देश भर में प्रचारित करता है. यह सब अखंड हिंदू राष्ट्र की फासीवादी कल्पना पर आधारित है. ऐसा करके भगत सिंह के विचारों की हत्या की गई है जिस पर कड़ी आपत्ति की जानी चाहिए. देखकर कितना अजीब लगता है कि एक नास्तिक क्रांतिकारी जिसकी पुनर्जन्म के प्रति कोई आस्था नहीं है उसे फिल्म में अपनी माँ से यह संवाद करते हुए प्रदर्शित किया जाए कि माँ उसे दुःखी नहीं होना चाहिए. माँ सवाल करती है कि अगले जन्म में वह उसे पहचानेगी कैसे. इस पर भगत सिंह बने बॉबी जवाब देते हैं कि गर्दन पर फाँसी के फंदे के निशान से. यहाँ और भी दृश्य है जब जेल अधिकारी फाँसी से पहले भगत सिंह से कहते हैं कि वह भगवान को स्मरण कर ले. भगत सिंह सुनकर कहते हैं कि भगवान को याद करना तो बाहरी आचार है, उसका वास तो हम सबके भीतर है. क्या इस फिल्म के निर्माता भगत सिंह के उस आलेख को विस्मृत कर बैठे जिसे उस क्रांतिकारी चिंतक ने अंतिम दिनों में जेल के भीतर लिबिद्ध किया था – ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’. यह सर्वत्र उलब्ध है और इससे भगत सिंह की विचार की दुनिया पर गहराई से रोशनी पड़ती है. होना यह चाहिए था कि भगत सिंह के लिखे-बोले को ही नहीं, बल्कि उससे पूर्व से लेकर 1931 में लाहौर की फाँसी के समय तक के क्रांतिकारी संग्राम के दस्तावेजों की मदद से भारतीय क्रांतिकारियों की उस चिंतनधारा को जानने-समझने का प्रयास किया जाता जिसके चलते उन क्रांतिवीरों ने अपनी लड़ाई का लक्ष्य स्वतंत्रता से बढ़कर समाजवाद के अपने बड़े उद्देश्य को समर्पित कर दिया था. भगत सिंह के दल का गांधीवाद के बरक्स सर्वथा अलग क्रांतिकारी मार्ग था जिसमें आजादी के लिए विदेशी हुकूमत से किसी लुंज-पुंज समझौते की कोई गुँजाइश नहीं थी. उनका लक्ष्य मार्क्सवादी सिद्धांतों के आधार पर शोषणरहित समाजवादी समाज का निर्माण था. इसके लिए वे सर्वहारा की सत्ता कायम करना चाहते थे. उन्हें मजदूरों और किसानों की शक्ति पर भरपूर भरोसा था. यदि ये फिल्में इस भगत सिंह को पर्दे पर दिखातीं तो क्रांतिकारी संग्राम के प्रति वे न्याय कर पातीं. सवाल इतिहास को गलत तरीके से प्रस्तुत करने का है और इसलिए फिल्म के नाम पर ऐसी गलतियों ओर षड्यंत्रों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि मुख्य धारा का हिंदी सिनेमा अंततः सत्ता वर्ग की संस्कृति और विचारधारा का पोषक होता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछले दिनों जनता के मध्य देश भर में भगत सिंह को तेजी से याद किए जाने की कवायदों के चलते उसकी विचार चेतना के जरिए मौजूदा शासन व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती सामने आने का खतरा दिखाई पड़ रहा हो. इस स्थिति में भगत सिंह के खलिस चिंतन-रूप को बिगाड़-मिटाकर आम लोगों के समक्ष एक राष्ट्रवादी, विचारविहीन और समाजवादी लक्ष्य से परे एक भगत सिंहीय छवि गढ़ने की साजिश चलाई जा रही हो. सांप्रदायिक ओर अंधराष्ट्रवादी घालमेल से लबरेज ये फिल्में भगत सिंह को क्रांतिकारी के बजाय एक ‘सुपरमैन’ की तरह नई पीढी को दिखाने की कोशिशें करती लगती हैं जबकि इस क्रांतिकारी का बड़ा लक्ष्य एक धर्मनिरपेक्ष, वर्गविहीन, जाति मुक्त और शोषणरहित समाज की संरचना था जिसमें सर्वहरा की सत्ता हो. वह सत्ता परिवर्तन का पक्षधर तो कतई नहीं था. उसके सपने में व्यवस्था के बदलाव का संपूर्ण लेखा-जोखा था.
संतोषी की फिल्म ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ कमोवेश भगत सिंह की असली छवि के थोड़ी निकट पहुँचती है जिस पर संतोष किया जा सकता है. यहाँ समाजवादी अवधारणाओं पर बहस है जिसके माध्यम से क्रांतिकारी लक्ष्य को जानने-समझने में दर्शकों को कुछ मदद मिल सकती है. दृश्य में मार्क्स और लेनिन के चित्र आशय को और भी स्पष्ट करते हैं. इसमें काकोरी की शहादतों के बाद फीरोजशाह कोटला के खंडहरों में क्रांतिकारियों की बैठक का भी नजारा है जिसमें दल के नाम के साथ ‘समाजवादी’ शब्द का समावेश करके एक बड़ी और दूरगामी लड़ाई की योजना को आकार देने की क्रांतिकारियों की कोशिशों की छवियों को विस्मृत नहीं किया गया है. यह भी ध्यान देने योग्य है कि यह फिल्म भगत सिंह के ही इर्द-गिर्द न घूमती रहकर उनके साथी कामरेडों के कुछेक अक्स भी सामने लाती है जो प्रशंसनीय है. अच्छा होता कि भगत सिंह पर बनी ये फिल्में अपने कालखंड के इतिहास की उस वैचारिक जद्दोजहद का भी थोड़ा-बहुत प्रस्तुतीकरण करतीं जहाँ कांग्रेस के लुंज पुंज विचार और उनकी आधी-अधूरी आजादी के लक्ष्य से उनका कड़ा टकराव था. 1925 से कुछ समय पूर्व बना ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ जिसने 1928 तक आते-आते अनेक क्रांतिकारी कार्यक्रम में समाजवाद को समाहित कर लिया था, और तब तक इस दल ने मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों के प्रति अपनी पूर्ण आस्था व्यक्त कर ली थी यह किसी से छिपा नहीं है. हिंदी सिनेमा भगत सिंह और उनके साथियों की इस विचार संपदा की रक्षा नहीं कर पाया, यह कहना किसी तरह से गलत नहीं होगा. आधे-अधूरे भगत सिंह को पर्दे पर दिखाने या विचारधारा को एक तरफ रखकर नख-शिख-दंत विहीन भगत सिंह का प्रदर्शन अंततः इतिहास के प्रति न्याय नहीं है. यह इतिहास के प्रति वैसा ही षड्यंत्र और धोखा है जैसा एक समय पं. जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत सरकार की ओर से स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन के लिए डॉ. रमेशचंद्र मजूमदार को हटाकर डॉ. ताराचंद्र को लाकर किया गया ओर अपने पक्ष में मनमर्जी से छद्म अतीत की इबारतें दर्ज कराई गईं, जिसमें क्रांतिकारी संग्राम को कमतर करने की नापाक कोशिशें साफ दिखाई पड़ती हैं. यदि ये हिंदी फिल्मकार सांप्रदायिकता या अछूत के सवाल पर ही नहीं, समाजवाद और नास्तिकता के मसले पर भगत सिंह के प्रश्नों और तर्कों से थोड़ा भी रूबरू हो गए होते तो फिल्मों की ऐसी छीछालेदर न होती. भगत सिंह तब पूरे कदम के साथ वहाँ तनकर खड़े होते और दर्शक उनके लक्ष्यों को जानकर लाभान्वित हो सकते थे. तब वे अनावश्यक ही पुनर्जन्म के बवंडर में भगत सिंह जैसे धर्मनिरपेक्ष चिंतक को ढकेलने की गलतियाँ न करते. मैं पहले ही कह चुका हूँ कि फिल्में इतिहास नहीं होतीं और न ही उन्हें किसी इतिहास का आइना मानने की निरर्थक कवायदें करनी चाहिए, पर यह भी उतना ही है कि उन्हें इतिहास को विकृत करने और उसके मनमाने प्रस्तुतीकरण का भी कोई अधिकार नहीं मिल जाना चाहिए. भगत सिंह को गुजरे अभी अधिक समय नहीं बीता, और लंबी सजा पाए उनके संगी-साथी क्रांतिकारी तो आजाद हिंदुस्तान में अब तक जिंदा बचे हुए थे. उनके रहते फिल्मकार इस काम को ज्यादा बेहतर ढँग से सच के निकट पहुँचकर अंजाम दे सकते थे जिसे नहीं किया गया. आखिर क्या जरूरत थी भगत सिंह पर एक साथ पाँच-पाँच फिल्मों की. कोई एक साफ-सुथरी ऐतिहासिक तथ्यों को ठीक-ठाक छानबीन करके बनी फिल्म ही दर्शकों को उस कालखंड से परिचित कराने के लिए पर्याप्त थी जिसके नतीजे देखने के लिए हम लालायित होते.
याद आता है कि बहुत पहले मनोज कुमार की ‘शहीद’ फिल्म आई जो कुछेक ऐतिहासिक घटनाओं की भूलों के चलते भी दर्शकों को ज्यादा बाँध पाई थी. उसमें बम परीक्षण में शहीद हुए भगवतीचरण वोहरा की लाश को रावी नदी में जल प्रवाह करना दिखाया गया था जो सच नहीं था. असलियत यह थी कि उनकी मृत देह को वहीं गड्ढा खोदकर दफना दिया गया. रावी की छांड में उतना पानी नहीं था कि उसे बहाया जा सकता. बाद को मुखबिरी के आधार पर पुलिस ने भगवतीचरण की अस्थियाँ खुदवाकर मुकदमे में भी पेश कीं. फिल्मकार से ऐसा इसलिए हुआ कि यशपाल ने निजी स्वार्थवश अपनी संस्मरण कृति ‘सिंहावलोकन में पूरी घटना को तोड़-मरोड़कर इसी ढँग से पेश किया है जिससे भविष्य के लेखकों और फिल्मकार से इस तरह की भूलें होती चली गई. यदि क्रांतिकारियों पर लिखा गया दूसरा साहित्य भी देख-जाँच लिया जाता तो इस तरह की चीजों से बचा जा सकता था. पर हमारे यहाँ फिल्मकार ही नहीं, इतिहास को दर्ज करने वाले भी घटनाओं की गहराई में उतरने की कोशिशें नहीं करते. सब नकल करते हैं और वे अपने-अपने पूर्वाग्रहों से भी मुक्त नहीं हो पाते. इतिहास लेखन के लिए जिस निष्पक्षता और साहस की आवश्यकता होती है उसे प्रायः हम अनुपस्थित पाते हैं. क्रांतिकारी आंदोलन की गुप्त कार्यवाहियों के चलते संस्मरण लेखकों ने भी अपनी-अपनी तरह घटनाओं का प्रस्तुतीकरण करके स्थितियों को बहुत हद तक जटिल बनाया है. इसके लिए हम किसे दोष दें. संघ परिवार के लेखक यह जानने की कोशिश क्यों करेंगे कि भगत सिंह की जेल नोट बुक में सिर्फ मार्क्स और ऐंगल्स नहीं, वहाँ रूसों, देकार्त, स्पिनोजा, मार्क ट्वेन, दोस्तोयवस्की और अरस्तू की कृतियों से गुजरते हुए भगत सिंह ने अनेक विचारों और जीवन-पद्धति का निर्धारण किया था. भगत सिंह पर फिल्में बनाते हुए निर्माता अपनी दृष्टि को वहाँ तक फैलाकर ले जा सकते थे कि आजाद भारत में भगत सिंह जैसे नौजवान आज भी प्रताड़ित किए जा रहे हैं और ऐसा स्वतंत्र देश में शुरुआती समय से लेकर अब तक निरंतर होता चला आ रहा है. यह पूँजीवादी सत्ता और व्यवस्था का चरित्र है कि वह आज के भगत सिंह को अपने लिए खतरा ही नहीं मानता बल्कि उन्हें दंड भी देता है. भगत सिंह की विरासत आज भी जिंदा है पर वह दमन के लिए अभिशप्त है. शंकर शैलेंद्र (गीतकार शैलेंद्र) ने 1948 में ही अपनी प्रसिद्ध कविता में इसीलिए दर्ज कर दिया था –
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की
यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे,
बंब-संब की छोड़ो भाषण दिया कि पकड़े जाओगे
न्याय अदालत की मत पूछो सीधे मुक्ती पाओगे
कांग्रेस का हुक्म जरूरत क्या वारंट तलाशी की
भगत सिंह का रास्ता संसदवाद की तरफ नहीं जाता. वह एक विद्रोही नायक है जिसके सपने में उस समाज की संरचना का आकार-प्रकार है जहाँ जाति-धर्म का बोलवाला नहीं होगा, जो पूँजी के खौफनाक खेल से मुक्त होती, जिसमें शोषण नहीं रहेगा और सत्ता सर्वहारा मजदूर-किसानों के हाथों की शक्ति बनेगी. आओ, इतिहास से लेकर फिल्मों, नाटकों और जमीन पर उसी भगत सिंह को उतारने की कोशिशों में हम सब बेधड़क होकर शामिल हों. संसदमुखी राजनीतिक दल, पेशेवर फिल्मकार और बिके हुए इतिहास लेखक इस काम को अंजाम नहीं दे सकते. हमें उनसे सावधान ही नहीं रहना है बल्कि उनके कुचक्रों का पर्दाफाश आगे बढ़कर करने का साहस दिखाना होगा. भगत सिंह पर बनी फिल्में जनता के साथ धोखा है. क्या कुछेक फिल्मकारों की इस बात पर हम भरोसा करें कि उनकी चित्रावली से भगत सिंह के वे दृश्य काट दिए गए जिनमें उनके भाषणों में मार्क्स का उल्लेख किया गया है. तो क्या फिल्म सेंसर बोर्ड पर सत्ता का शिकंजा है या वह संघ परिवार के चिंतन-मनन का प्रतिनिधित्व करता है. अतीत को तोड़ने-मरोड़ने की यह कोशिशें राजनीतिक या आर्थिक लाभ के लिए होती हैं तब फिर यह मसला और अधिक गंभीर बन जाता है जिसके लिए किसी को माफ नहीं किया जा सकता.
मुझे स्मरण है कि इन फिल्मों को भगत सिंह के भाई कुलतार सिंह के साथ देखने के बाद सहारनपुर में आयोजित एक समारोह में मेरे व्याख्यान से पूर्व एक नौजवान ने मुझसे खड़े होकर कहा – ‘आप असली भगत सिंह को जरूर सामने रखिए ताकि हम उनकी क्रांतिकारी छवि से परिचित हो सकें नहीं तो आज के युवक पूछने पर कहेंगे कि भगत सिंह का असली नाम अजय देवगन था.’ मैं उस नौजवान का आभारी हूँ कि इतिहास और अपने समय पर आने वाले खतरे की वह ठीक-ठाक शिनाख्त कर पा रहा था. छात्र – से लग रहे उस युवक का नाम मुझे याद नहीं रहा पर उसका चेहरा मेरी आँखों के सामने आज भी घूम जाता है. उसके तेज और पनीले दृगों को मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा.
– सुधीर विद्यार्थी
वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी सुधीर विद्यार्थी अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके हैं. सम्प्रति बरेली में रहते हैं.
(www.kabaadkhaana.blogspot.com से साभार)
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