उत्तराखण्ड में हेनरी रैमजे का युग (1856-1884) ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने का काल था. औपनिवेशिक शिक्षा का प्रारम्भ हुआ और राष्ट्रीय पुनर्जागरण का आलोक यहाँ पहुँचने लगा जो सदी के अंत तक ज्यादा प्रभावशाली तत्व बन गया. इस बीच उत्तराखण्ड में स्थानीय संगठनों तथा उदार सरकार परस्त प्रेस की शुरूआत 1870 में अल्मोड़ा में डिबेटिंग क्लब और 1868 में ’समय विनोद’ और 1871 में ’अलमोड़े अखबार’ के प्रकाशन के साथ शुरू हुई .
1901 में गढ़वाल यूनियन की स्थापना, 1902 में हैप्पी क्लब (अल्मोड़ा) 1908–9 में युवक संघ (पौड़ी), 1914 में प्रेम सभा (काशीपुर) के साथ तथा 1902-3 में .’गढ़वाल समाचार’, 1905 में ’गढ़वाली’ के प्रकाशन के साथ यह प्रक्रिया व्यापक होती चली गयी. इस बीच एक ओर उत्तराखण्ड के प्रबुद्ध वर्ग ने अंग्रेजी शिक्षा, पत्रकारिता, वकालत, संस्थाओं.संगठनों के माध्यम से उदार जागृति को संभव बनाया. साथ ही लार्ड लिटन के समय (1876-80) में बने प्रेस एक्ट, आर्म्स एक्ट का विरोध कर और एलबर्ट बिल का समर्थन कर राष्ट्रीय स्वर में अपना स्वर भी मिलाया. लार्ड रिपन (1 880-84) के समय जब सबके लिए न्यायिक बराबरी हेतु एलबर्ट बिल लाया गया तो अलमोड़े में इसका समर्थन हुआ. बुद्धि बल्लभ पंत तथा लीलानन्द जोशी के सहयोग से इसके समर्थन में सभा हुई. 1871 में स्थापित रैमजे इंटर कालेज और इसके बाद स्थापित मेसमोर कालेज पौड़ी ने शिक्षितों में राष्ट्रीय चेतना को विस्तार दिया.
पिछली सदी के दूसरे हिस्से में दयानंद, केशव चन्द्र सेन, विवेकानंद, रामतीर्थ का आगमन उत्तराखण्ड में हुआ. 1875 में आर्य समाज की स्थापना से एक साल पूर्व 1874 में सत्यधर्म प्रकाशनी की सभा की स्थापना हो चुकी थी, जो 1875 में आर्य समाज में मिला दी गई. तत्पश्चात 1880 में जसपुर, 1881 में काशीपुर, 1898 में हल्द्वानी, 1904 में रामनगर, 1916 में अल्मोड़ा, 1927 में रामगढ़ तथा 1982 में रानीखेत में आर्य समाज की स्थापना हुई. 1897 में विवेकानंद के उस भाषण से युवावर्ग प्रभावित हुआ जिसे अल्मोड़ा के तत्कालीन जिलाधिकारी ने बीच में रोक दिया था. अल्मोड़े में धर्मान्तरण के कारण रैमजे इंटर कालेज के समानान्तर स्थापित यह हिन्दू स्कूल तब सरकारी हो गया था. लेकिन इन्हीं श्रोताओं में से अगली सदी में उत्तराखण्ड के संग्रामी तैयार होने वाले थे. इस समय विवेकानन्द के साथ भगिनी निवेदिता भी थी. ऐनी बेसेन्ट’ तथा मदन मोहन मालवीय भी तब अल्मोड़ा में थे.
पिछली सदी के अंत में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ तो उसके दूसरे अधिवेशन से ही उत्तराखण्ड के प्रतिनिधियों का कांग्रेस में शामिल होना शुरू हो गया था. कांग्रेस के दिसम्बर 1886 के कलकत्ता अधिवेशन में अल्मोड़े के ज्वालादत्त जोशी उपस्थित थे. वे 1887 के मद्रास, 1888 के इलाहाबाद, 1889 के बम्बई तथा 1892 के अधिवेशनों में भी गये थे. 1890 के कलकत्ता कांग्रेस में हरिराम पाण्डे गये थे. 1887 में प्रयासों के बावजूद कांग्रेस में बेगार सम्बन्धी प्रश्न नहीं उठ सका लेकिन 1893 में बेगार के विरोध में प्रस्ताव पारित हो गया. इसी दौर में विवेकानन्द, ऐनी बेसेन्ट, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय के आगमन ने शिक्षित समाज को प्रेरणा दी.
इस सदी के प्रारम्भ में उत्तराखण्ड के निवासी बेगार तथा जंगलात की समस्याओं से सर्वाधिक त्रस्त थे. वन कानूनों ने किसानों के प्राकृतिक पारम्परिक अधिकारों पर हस्तक्षेप किया था और बेगार ने तो जैसे उत्तराखण्ड के समाज को बेजार ही कर दिया था. एक आर्थिक – सम्मान का प्रश्न था तो दूसरा आत्मसम्मान का.
भारत में रेल आगमन के बाद जंगलों के दोहन तथा राज्य रक्षण का कार्य महत्व पाने लगा था. 1864 में सरकार ने वन विभाग की स्थापना की. इसी साल वन सर्वेक्षक के रूप में वेबर की नियुक्ति हुई. 1868 में उत्तराखण्ड के जंगल वन विभाग को सौंप दिये गये. 1868 में मेजर पियर्सन ने वनों की व्यवस्था संभाली. 1863 में बैकेट के बन्दोबस्त में सयाणों से उन इकरारनामों को लिखाने में सफलंता प्राप्त की गयी, जिनके अनुसार वनों और चरागाहों में ग्रामीणों के अधिकार जाते रहे और बेगार तथा बर्दायश देना उनका सामान्य कर्तव्य स्वीकारा गया था. बेगार, बर्दायश तथा वन सम्बन्धी भावी असंतोष के बीज वास्तव में इसी समय बोये गये थे. 1868 तथा 1878 के वन अधिनियमों ने वनों पर राज्य के अधिकार की शुरूआत कर दी जिसे 1893 की एक अधिघोषणा ने और कठोरता दी.
स्थानीय समाज में धर्मान्तरण की कुछेक घटनाओं के प्रति भी आक्रोश था. साथ ही 1857 के बाद औपनिवेशिक सरकार की अस्त्र-शस्त्र सम्बन्धी लाइसेंस नीति को कुमाऊँ में भी कठोरता से लागू करने का असंतोष था.
1857 में अस्त्र – शस्त्र छीनने का जब गवर्नर का आदेश आया तो रैमजे ने इसका विरोध किया था और उसकी बात मानी गई पर 1888 के बाद लाइसेन्स प्रणाली कठोरता से लागू की जाने लगी. जंगली जानवरों से जानमाल की रक्षा हेतु भी यह लाइसेंस जरूरी था.
इस सदी के प्रारम्भिक दो दशकों में राष्ट्रवाद की दोनों धाराएँ आमने-सामने आने लगी. उनके एक दूसरे को आत्मसात करने की स्वाभाविक संभावना थी. बंगाल के विभाजन से पूर्व 1903 में जब लार्ड कर्जन उत्तराखण्ड की यात्रा पर आया था तो ग्रामीण किसानों के प्रतिनिधियों ने उन्हें जंगलात और बेगार की समस्याओं के बाबत अपना आवेदन पत्र दिया था. लेकिन 1903 की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी अलमोड़े शहर से जुड़े खत्याड़ी गाँव के काश्तकारों द्वारा सामूहिक रूप से बेगार हेतु जाने से इन्कार करना. हेनरी रैमजे के काल में सोमेश्वर घाटी की घटना जिसमें ग्रामीणों ने बेगार में आने से इन्कार किया था, के बाद यह दूसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी. इन दोनों घटनाओं का सम्बन्ध नरमपंथी शहरी चेतना से कम और ग्रामीणों पर बेगार के बोझ के निरन्तर बढ़ते जाने- यहाँ तक कि असहनीय होने से ज्यादा था.
सोमेश्वर तथा खत्याड़ी के प्रसंगों में एक प्रमुख अन्तर था. सोमेश्वर के सामूहिक प्रतिरोध को रैमजे ने जुर्माना कर कुचल दिया और ग्रामीण समुदाय आगे न प्रतिरोध कर सका और न ही न्यायालय की शरण में जा सका, जबकि खत्याड़ी की इस घटना के बाद क्रमबद्ध प्रतिरोधों का सिलसिला चला था और सरकार की नीतियों के विरुद्ध उच्च न्यायालय का निर्णय लाने में वे ग्रामीण सफल रहे.
बंगाल के विभाजन ने इस दूरस्थ क्षेत्र में असर किया था. 1905 में विभाजन के खिलाफ नंदा देवी (अल्मोड़ा) में सभा हुई. इस साल कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में उत्तराखण्ड से हर गोविन्द पंत, मुकुन्दी लाल, गोविन्द बल्लभ पंत, बदरी दत्त पाण्डे आदि युवक गये थे. ये सभी छात्र थे. सिर्फ बदरी दत्त पाण्डे शिक्षा उपरान्त पत्रकारिता से जुड़ चुके थे. 1906 में हरिराम त्रिपाठी ने “वन्देमातरम’, जिसका उच्चारण ही तब देशद्रोह माना जाता था, का कुमाऊँनी अनुवाद. “जै जै माई जन्मभूमि धन्य धन्य तुम’ के रूप में किया था.
1907 में जंगलात बाबत अलमोड़े में सभा हुई. इसी साल कुमाऊँ तथा रुहेलखण्ड के दफ्तर बरेली में लाट हिबेट ने कुली बेगार में परिवर्तन असंभव बताया और यह भी कहा कि कुमाऊँ को न काउन्सिल में सदस्यता की आवश्यकता है और न कालेज की. 1907 में ही बेगार के विरुद्ध श्रीनगरवासियों ने भी प्रार्थना पत्र दिया था. गिरिजा दत्त नैथानी ने ‘बेगार तथा बर्दास्या भाईयों के नाम’ अपील प्रकाशित की. 1908 के कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में उत्तराखण्ड के जोहार क्षेत्र के प्रखर सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता रामसिंह पांगती भी गये थे. उन्होंने तभी से जोहार में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार शुरू कर दिया था. 1908 से ही बद्री शाह ठुलघरिया रामजे इंटर कालेज के शिक्षक की हैसियत से स्वदेशी तथा राष्ट्रवाद की बातें विद्यार्थियों से करने लगे थे. वे विवेकानन्द के मित्र थे और राजनैतिक रूप से तिलक समर्थक थे. उनका ’दैशिक शास्त्र’ एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है. इस बीच मार्ले-मिंटो सुधारों की घोषणा हुई और उत्तराखण्ड में स्टिफ के वन बन्दोबस्त (1911) की तथा अल्मोड़ा शहर के वासियों से बेगार लेने की भी. 1911 से 1916 तक कुमाऊँ में जो वन व्यवस्था की गई उसमें सम्बंध अस्सी साल (1823) के बन्दोबस्त में निर्धारित गाँवों की सर्वथा उपेक्षा की गई.
प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व सामाजिक चेतना निरन्तर प्रखर होती रही. 1912 में अल्मोड़े में वाचस्पति पंत, ज्वालादत्त जोशी, हरिराम पाण्डे, मुंशी सदानन्द सनवाल, शेख मानुल्ला, माधव गुरुरानी, बदरीदत्त जोशी आदि के प्रयासों से कांग्रेस की स्थापना हुई. राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में जाने वाले प्रबुद्ध जन अब तक कांग्रेस की स्थानीय शाखा नहीं खोल सके थे लेकिन सामाजिक शक्तियों ने अब उन्हें ऐसा करने की क्षमता दी. अब तक कांग्रेस को जन्मे 27 साल हो चुके थे. लेकिन आम पर्वतवासी का कांग्रेस से कोई प्रत्यक्ष परिचय न था.
इसी समय उत्तराखण्ड के अनेक नवयुवक वकालत की डिग्री लेकर लौट रहे थे या उनके दीक्षान्त का समय आ रहा था. 1913 के कांग्रेस अधिवेशन में उत्तराखण्ड के ज्यादा प्रतिनिधि शामिल हुए थे. कांग्रेस और आर्य समाज के सम्मेलन अल्मोड़ा में हुए. शुद्ध साहित्य समिति तथा छात्रों के संगठनों की स्थापना हुई. नायक सुधार सभा की शुरूआत हुई. ’अल्मोड़ा अखबार’ को न केवल बदरी दत्त पाण्डे जैसा प्रखर संपादक मिला बल्कि उसमें बेगार विरोधी, जंगलात तथा स्थानीय संगठन की जरूरत बाबत लेखों का प्रकाशन होने लगा था. ‘अल्मोड़ा अखबार’ में बदरीदत्त पाण्डे का आना पत्रकारिता के नये युग की शुरूआत थी. शिल्पकारों को द्विजों के बराबर का दर्जा देने की बात सवर्ण समाज से उठने लगी थी. 1912-13 में गढ़वाल-देहरादून की अनेक सभाएँ तथा संगठन एक हुए. ’गढ़वाल समाचार’ का पुनर्प्रकाशन हुआ. ’विशाल कीर्ति’ का प्रकाशन शुरू हुआ और “गढ़वाली’ निरन्तर प्रकाशित होने लगा. 1912 में जोहार में “जोहार उपकारिणी सभा’ की स्थापना कर समाज सुधार तथा स्वदेशी कार्य शुरू हुआ.
बह हलचल अलमोड़े शहर तक केन्द्रित न थी, जहाँ इंडियन क्लब, शुद्ध साहित्य समिति, राजपूत रात्रि पाठशाला, स्टूडैन्ट कल्चरल ऐसोसियेशन सक्रिय थे बल्कि प्रथम विश्व युद्ध में विभिन्न मोर्चों पर झोंकने हेतु पहाड़ी युवकों की भर्ती ने भी एक तरह की सक्रियता को जन्म दिया था, यद्यपि इसका भान बेगार आन्दोलन की पराकाष्ठा के समय युद्ध से लौटे सैनिकों की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी से ही हुआ था.
1913 में टम्टा सुधारिणी सभा का रूपान्तरण एक व्यापक शिल्पकार सभा में हो चुका था. सुनकिया (मुक्तेश्वर) में खुशीराम द्वारा आयोजित शुद्धीकरण समारोह में लाला लाजपतराय तथा स्थानीय प्रबुद्धों की हिस्सेदारी ने सामाजिक परिवर्तन के सकारात्मक संकेत दिये थे. नायक कन्याओं को वेश्यावृत्ति से मुक्त कराने के क्रमबद्ध प्रयास भी इन्हीं वर्षों में शुरू हुए. देहरादून में रास बिहारी बोस का प्रभाव युवाओं पर बढ़ रहा था. वे अल्मोड़ा में भी रह चुके थे.
तिलक तथा सहयोगियों को छोड़ अन्य कांग्रेसी नेताओं ने विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की मदद का समर्थन किया. तिलक द्वारा शुरू की गयी ’होमरूल लीग’ का उत्तराखण्ड में भी स्वागत हुआ. अलमोड़े में – बदरी दत्त पाण्डे, हेमचन्द्र जोशी, मोहन जोशी, चिरंजीलाल, मोहन सिंह मेहता, गुरुदास साह आदि ने होमरूल लीग की स्थापना की. उत्तराखण्ड में एक क्षेत्रीय सामाजिक राजनैतिक संगठन की स्थापना का स्वप्न नेतृत्व वर्ग 1908 से ही देखने लगा था. इस बाबत ’लीडर’ तथा “अल्मोड़ा अखबार’ में पत्र छप चुके थे.
1870 से विकसित हो रही एक उदार शहराती चेतना तथा अपने जंगल और जिमी (जमीन) के प्रश्नों के कारण आन्दोलनरत ग्रामीण किसानों के संघर्षों का समन्वय 1912-16 के बीच सबसे ज्यादा हुआ. सितम्बर 1916 में स्थापित कुमाऊँ परिषद के जन्म के पीछे यद्यपि हरगोविन्द पंत, गोविन्द बल्लभ पंत, बदरी दत्त पाण्डे, इन्द्रलाल साह, मोहन सिंह दड़मवाल, चन्द्र लाल साह, प्रेम बल्लभ पाण्डे, भोला दत्त पाण्डे और लक्ष्मी दत्त शास्त्री जैसे प्रबुद्धों के नाम मिलते हैं पर चाह यह आम जनता की भी थी, जो अब संगठित होने का अर्थ समझ गयी थी और इसकी कोशिश कर रही थी. अतः प्रबुद्ध वर्ग तत्कालीन जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर रहा था.
1916 जहाँ राष्ट्रीय संदर्भ में इसलिए महत्वपूर्ण था कि इस साल न सिर्फ कांग्रेस की गरम-नरम धाराएँ पुनः एक हो गई वरन कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग भी करीब आई, वहीं इस साल उत्तराखण्ड में जन्मी कुमाऊँ परिषद लगभग आधी सदी के आन्दोलन का प्रतिफल थी. यह आगामी एक दशक तक स्थानीय कांग्रेस के रूप में अपनी भूमिका निभाने वाली थी और उत्तराखण्ड में स्थापित होमरूल लीग की शाखाएँ राष्ट्रीय अभिव्यक्ति का स्थानीय हिस्सा थी. इस साल कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उत्तराखण्ड से सबसे अधिक प्रतिनिधियों का आगमन हुआ था. इसी साल मोहन जोशी ने अल्मोड़े में क्रिश्चियन फ्रैन्डस एसोसिएसन की भी स्थापना की थी, जो बाद में क्रिश्चियन यंग पीपुल्स सोसायटी हो गई थी. कुमाऊँ परिषद का मुख्य उद्देश्य तत्कालीन उत्तराखण्ड की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का समाधान खोजना था. इसमें कुली – बेगार, जंगलात, नयाबाद, भू तथा वन बन्दोबस्त, समाज सुधार, शिक्षा तथा काउन्सिल में कुमाऊँ का प्रतिनिधित्व आदि प्रमुख मुद्दे थे. परिषद का जन्म 1870 के आस पास से प्रारम्भ होने वाली सुधारवादी समझौतापरस्त चेतना के प्रौढ़ और सोद्देश्य होने से जुड़ा था. उस चेतना से विकसित होने के बावजूद यह संस्था बुनियादी रूप से उससे भिन्न थी.
पिछली कड़ी – कुमाऊँ में अंग्रेज 1815 से 1857
मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा सम्पादित सरफरोशी की तमन्ना के कुछ चुनिन्दा अंश.
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