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नगर पिथौरागढ़ का सम्पूर्ण इतिहास

‘शोर’ परगने को वर्तमान में जिला पिथौरागढ़, जिला बनने से पूर्व पिठौरागढ़, पिठौडागढ़ नाम से पुकारा जाता था. आम बोलचाल और शोरयाली भाषा में इसे शोर कहा जाता था. गंगोली, काली कुमाऊँ, अल्मोड़ा, नैनीताल एवं गढ़वाल के बुजुर्ग लोग वर्तमान समय तक भी शोर ही कहते हैं. यद्यपि पिठौरगढ़ को सर्वसम्मति से वर्तमान समय में पिथौरागढ़ नाम से अधिक जाना जाता है.

वर्तमान समय में यह नगर पूर्व में वड्डा मुनाकोट से लेकर पश्चिम में पौण, पपदेऊ, हुडेती, सुगौली तक और उत्तर में चंडाक की पहाड़ियाँ, जाजरदेवल, सात सीलिंग, पंडा से लेकर दक्षिण में एंचोली, गुरना, धमौड तक नौ वर्ग किमी के क्षेत्रफल में फैला है. छोटी छोटी पहाडियों में बसे गाँव और चारों ओर बसे अन्य गांव तथा बीच में स्थित शहर एक अनूठा नज़ारा पेश करते हैं. अनेक प्राकृतिक नालों, छोटी बड़ी पहाड़ियों के बीच एक गाड़ भी गुजरती है जिसे ठुली गाड़ भी कहा जाता है. यह नगर वर्तमान में मैदान और सीढ़ीदार खेतों के मध्य उभरता हुआ एक पर्वतीय महानगर का रूप ने रहा है. प्राकृतिक और धन-धान्य से परि-पूर्ण यह नगर वास्तव में अद्वितीय है.

पिथौरागढ़ तिब्बत व नेपाल की सीमा में बसे होने से पुरातन काल से ही समारिक महत्व का क्षेत्र रहा है. नगर के उत्तर पूर्वी छोर पर पंडा, कासनी, जाखनी, भड़कटिया, जाजरदेवल, आदि गावों की भूमि में सेना के शिविर, विद्यालय, फ़ार्म, गोदाम आदि हैं.

पिथौरागढ़ जनपद सैनिक बाहुल्य जनपद है. इसलिए यहाँ के जन-जीवन में सैनिक छाप साफ़ दिखती है. इस जनपद के आकड़े यह बताते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध तथा उसके बाद हुए तमाम युद्धों तथा सैनिक व असैनिक कारवाहियों में यहां के सैनिक अधिक मारे गये. सन 1962 और 1965 के यद्ध से लेकर श्रीलंका और सोमालिया की सैनिक कार्यवाही में पिथौरागढ़ जनपद के लोग अधिक मारे गये हैं. कृषि और सेना यहां का मुख्य व्यवसाय है. तथा 60 प्रतिशत से अधिक लोग सेना में कार्यरत हैं. सन 1980 से लेकर 1990 तक के आकड़े यह बताते हैं कि इस जनपद में लगभग चार करोड़ रूपया मनी आर्डर से आता था. इसलिए इसको मनी आर्डर की अर्थव्यवस्था भी कहा गया है. पिथौरागढ़ नगर में अपने लिए गृह निर्माण कार्य मुख्यतः सैनिक, कर्माचारी एवं शिक्षक वर्ग कर रहे हैं. नगर के आसपास भी गृह निर्माण का काम तेजी से हो रहा है. वर्तमान में जहाँ पर हवाई पट्टी बनी है उसे सैणीसोर कहा जाता है इसका नाम नैनी-सैनी भी है. यह स्थान जमाल बासमती के लिए प्रसिद्ध था.

आज से लगभग पचास साल पहले इस नगर का स्वरूप कैसा था? वर्तमान में जहाँ पर नगरपालिका कार्यालय है वहां पर एक छोटा सा अस्पताल था. जहां पर न्यायिक भवन है वहां परगना मजिस्ट्रेट कार्यालय था. मुख्य कापरेटिव बैंक के स्थान पर मिशन स्कूल स्थित था. इतिहास के पन्ने फिर से अपनी जगह पड़ने लायक हो जाते हैं, जब वह दोहराये जाते हैं. कत्यूरी, खस, चंद, बम, गोरखा और ब्रिटिश शासन में यहां पर सैनिक छावनियां अवश्य ही रही होंगी. सन 1863 जैमिनीय आश्व मैधिक की एक हस्तलिखित पुस्तिका में पिठौरागढी – सेना वसतौ लिखा गया है. इससे पता चलता है कि पिथौरागढ़ पूर्व काल से ही सामरिक महत्व का नगर रहा था.

इसका मुख्य बाजार पुराना बाजार था. शिवालय मंदिर से प्रारंभ होकर नेहरु चौक तक की सीढियों तक था. जिसमें मुख्य रूप से पपदेऊ और पितरौट के स्वर्णकारों की दुकान, शाह एवं खत्रीयों की मिठाई व परचून की दूकान के साथ मुस्लमान दर्जी और हज़ाम भी इसी बाजार में रहते थे. स्वर्णकार, गहने निर्माण का कम किया करते थे. इस नगर में प्रारंभ से ही गहने उद्योग का कारोबार पर्वतीय क्षेत्रों में अन्य नगरों की अपेक्षा अभी भी सशक्त है. राजकीय महिला अस्पताल वाली सड़क से ऊपर का क्षेत्र मिशन भाटकोट के पास था.

वर्तमान में जहाँ नया बस स्टेशन बना है, टिलढूकरी के पूर्वी हिस्से में मिशन के लोग धान की रोपाई किया करते थे, वहीँ पर पवन उर्जा से चलने वाली एक चक्की भी थी जहाँ पर गेहूं पिसाई होती थी. कहा जाता है कि ठुलीगाड़ में इतना अधिक पानी था कि उसके मूल स्त्रोत से लेकर रई तक एक साथ बाईस घराट ( पन-चक्कियां ) चला करती थी. वर्तमान में पर्यावरण असंतुलन होने से ट्रांस साइबेरियन पक्षी जिसकी चोंच लाल रंग की होती थी. कुछ साल पहले तक ही यहां आते थे लेकिन अब नहीं आते हैं. यह पक्षी एक निश्चित स्थान पर ही जनवरी से मार्च अंतिम हफ्ते तक रहते और अप्रैल तक अपने देश लौट जाते थे. यह तथ्य श्री शेर बहादुर साही पूर्व प्रधानाचार्य धनौढा ने बताया.

सन 1952 में पहली बार पिथोरागढ़ में बस आयी थी खर्कवाल बंधुओं के सहयोग से पहली बार सन 1955 में मैला ग्राम से दस हजार रुपया खर्च करके पाइपों के द्वारा पानी वर्तमान अस्पताल के निकट तक आया था. वर्तमान में जहाँ सोलजर बोर्ड है. वहां 1857 की क्रांति के बाद सैनिक छावनी बनी थी. सरस्वती देवसिंह मैदान को परेड खेत के नाम से जाना जाता था. वहीं पर एक कोत का नौला भी था जहां पर इस वक्त सुलभ शौचालय बना दिया गया है. कोत शब्द हथियार रखने के स्थान को कहते थे. इसलिए इसको कोत का नौला कहा जाता था. सैनिक, परेड खेत में कवायत किया करते थे, इस समय जहाँ राजकीय बालिका इंटर कालेज है उस स्थान में गोर्ख-किल था. जिसे गढ़ी कहा जाता था. इस गढ़ी में लगभग 150 सिपाही रह सकते थे. इनके जल की आपूर्ति नीचले जंगल में स्थित एक नौले से होती थी. किले के पास ही शक्तिपीठ मां उल्का देवी का मंदिर है. इसे गोरखा लोग अपनी कुल देवी मानते थे.

किवंदती है कि कभी इस स्थान पर नरबलि भी होती थी. यह भी कहा जाता है कि पूर्व समय में यह मंदिर वर्तमान भाटकोट के पास था वहां अपने प्रति हुए असम्मान से मां उल्का देवी का मंदिर गढ़ी के पास स्थानांतरित कर दिया गया. जो भी हो एक शिलालेख के माध्यम लेखक को यह ज्ञात हुआ कि नौला, मंदिर और किला सन 1790 में श्री पांच राणा सरकार नेपाल द्वारा निर्मित किया गया था. सन 1960 में यह किला टूट गया था.

इस समय की तहसील जो एक पत्थर की दीवार के परकोटे से घिरी है पूर्ण रूप से एक किला है. इसमें लगे एक लेख के द्वारा ज्ञात हुआ है कि इसका निर्माण समय सन 1840 ई है. इस किले को बनाने में जौहार- दारमा और सोर लोगों ने अपनी मदद दी थी. सन 1935 में ग्राम बजेटी से तहसील को हटाकर इस किले में स्थानांतरित कर दिया गया था. इस किले को लन्दन फोर्ट के नाम से जाना जाता था. मध्य शहर में स्थित होने से इस किले का महत्व अधिक बढ़ गया है.

सिमलगैर बाजार का नामकरण सेमल वृक्षों की बहुतायता से हुआ है. पिथौरागढ़ नगर की सीमा निर्धारण के लिए इसे बारा पत्थर के अन्दर रखा गया था. वर्तमान राजकीय इंटर कालेज पिथौरागढ़ सन 1928 में किंग जार्ज कौरोनेशन हाईस्कूल के नाम से खुला था. शुरुआत में इस जगह का नाम घुड़साल था. घुड़साल के उत्तर पश्चिम में उदयपुर एवं ऊँचाकोट की पहाड़ियां हैं. आज से 500 साल पहले बम राजाओं की यह स्थली थी जो बाद में बमनधौन नामक स्थान चली गयी. आज भी बमनधौन में प्राचीन पुरातत्व मूर्तियाँ- मंदिर हैं. उदयपुर के पाद प्रदेश में गुरु गोरखनाथ की एक अलख थी इसका एक मंदिर अभी भी पपदेउ गांव में है. यदपि अज्ञानता से जो शिलालेख यहाँ था वह नष्ट हो चुका है.

1962 में राजकीय इंटर कालेज की भूमि के पास ही एक डिग्री कालेज खोला गया. इस महाविद्यालय के खुलने से पहले इस स्थान पर भवानीदेवी प्राइमरी पाठशाला पपदेऊ थी. ग्राम पपदेऊ की एक दानी महिला भवनीदेवी ने पांच हजार रूपया नगद देकर मोतीलाल चौधरी के प्रयासों से यह विद्यालय खुलवाया. किंग जार्ज कौरोनेशन हाईस्कूल के पहले प्रधानाचार्य श्री चंचलावल्भ पन्त थे. महाविद्यालय खुलने से पूर्व मिडिल स्कूल, बजेटी में कक्षाएं चला करती थी. बजेटी वह स्थान है जहाँ इस जनपद का पहला मीडिल स्कूल 1906 में खुला था. राजकीय इंटर कालेज, पूर्व में ठा. दानसिंह मालदार के भवन में चला था. सरस्वती देवसिंह स्कूल भी मालदार परिवार के सहयोग एवं प्रेरणा से बना. इसके प्रथम प्रधानाचार्य मोहन सिंह मल थे. राजकीय इंटर कालेज पिथौरागढ़ खोलने में स्वर्गीय कृष्णानन्द उप्रेती के सहयोग को नहीं भुलाया जा सकता है. किंगजार्ज हाईस्कूल की निर्माण कंपनी एल.आर.साह फर्म अल्मोड़ा थी.

पिथौरागढ़ में दर्शनीय एवं पुरातात्विक महत्व की जगहों में ध्वज, थलकेदार, मोस्टामानो, कासनी, दिंगास, मरसौली, अर्जुनेश्वर, घुनस्यारी देवी, असुरचुला, नकुलेश्वर आदि स्थान विशेष हैं. यह स्थान अपने अतीत की समृद्धि को भो इंगित करते हैं. एंचोली से लेकर जाखापुरान मार्ग में जगह – जगह मंदिर और पीपल के वृक्ष हैं. एक मन्दिर में सूर्य की मूर्ति भी रखी हुई है. इसी पैदल मार्ग में रामेश्वर के निकट भारुड़ी का नौला है नौले में संस्कृत में लिखा एक लेख है.

रामेश्वर महात्यम में इस स्थान के सभी स्थलों का वर्णन किया गया है. यही स्थान प्राचीन काल का कैलाश मानसरोवर यात्रा पद भी था. थरकोट के निकट बोर गांव में एक नौला बना हुआ है. इसके बारे में कहा जाता है कि कलाकार ने इसे एक हाथ से बनाया. जो भी हो नौला कलात्मक दृष्टिकोण से सुन्दर एवं प्राचीन है. पिथौरागढ़ नगर एवं इसके आसपास विरासत एवं संस्कृति बिखरी पड़ी है.

नगर के पूर्वी छोर में भाटकोट है. यहां एल.डब्ल्यू. एस. भाटकोट गर्ल्स इंटर कालेज है. यह विद्यालय सन 1908 का बना हुआ है. इस स्थान को राजा रानी की गुफा नाम ने भी जाना जाता था. गुफा की ढलान और नीचे खेतों में वर्षा ऋतु में दूसरी से चौदहवीं सदी तक के मिट्टी के बर्तन मिलते हैं. गुफा के पिछले हिस्से में काले रंग के चिन्हित टुकड़े भी मिलते हैं. मदनचन्द्र भट्ट इतिहासकार का मानना है कि यह चित्रित टुकड़े दूसरी शताब्दी के हैं. इस प्रकार के पुरातात्विक तथ्य इस नगर की प्राचीनता को सिध्द करते हैं.

मूर्तियों में पांडेगांव, पपदेऊ, मैठाना, कासनी आदि स्थानों की शिव पार्वती और राधा कृष्ण की मूर्तियों को अद्वितीय माना जा सकता है. ऐसा प्रतीत होता है कि कि कभी यहां आदिम सभ्यता भी थी क्योंकि किस्से कहानियों में भाटकोट की गुफा, नागधरौड की गुफा, सुनौली, सिरादेवल, भवानी उडियार की गुफा प्रसिद्ध हैं.

पिथौरागढ़ नगर के परिपेक्ष में इस जनपद से प्राप्त ताम्र-पत्रों एवं अन्य अभिलेखों का वर्णन भी आवश्यक है. इसी क्रम में पिथौरागढ़ नगर से लगे घुंसेरीगुफा के पुजारी के पास रजबार भारथी पाल का अकू से जारी किया गया सन 1394 ई. का एक ताम्रपात्र भी मिला है.

पिथौरागढ़ नगर से ऊत्तर की ओर थल मुवानी मार्ग के निकट बत्युली गांव के श्रीदेवी दत्त जोशी के संकलन में तीन ऐतिहासिक वस्तुएं सुरक्षित रखी गयी हैं. निरेपाल देव साके 1215 सन 1353 ई का ताम्रपात्र, बलिनारायण संसार मल्ल का शाके 1364 सन 1442 ई. का ताम्रपत्र, चन्द राजा बाजबहादुर की तीन महत्वपूर्ण बहियां और बाज बहादुर चन्द द्वरा मिली मोहरसुदा कलमदान जिसमें साके 1480 लिखा गया है. इसके बम्स शाह का कांस्य पत्र संवत् 1854 भी इनके पास उपलब्ध है.

भेंटा गाँव से प्राप्त लक्ष्मण चंद और कल्याण पाल का ताम्र पत्र भी बहुत महत्वपूर्ण है इसके अनुसार रजवार कल्याणपाल और चम्पावत के राजा लक्ष्मण चंद ने महानन्द वैद्य को सन 1603 में भिसज गाँव दान में दिया था. ताम्र पत्र पन्द्रह पंक्तियों का है. इसी ताम्र पत्र में जिस लक्ष्मण चंद का उल्लेख आया है, गढ़वाल के भरत कवी ने भी मानोदय काव्य में इसका उल्लेख किया है. गढ़वाल के राजा मानसिंह ने लक्ष्मण चंद के समय में चम्पावती नगर को घेर डाला था. पालों के अंतिम ज्ञात ताम्रपत्र में महेंद्रपाल का 1623 का ताम्र पत्र है.

ताम्र पत्रों की भाषा और गोरखा युग के आदेश पत्रों की भाषा को देखने से ज्ञात होता है कि गोरखा काल में समस्त पर्वतीय भू-भाग में गोरखाली भाषा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित हो चुका था. नेपाली खसकुरी भाषा का प्रभाव भी इन ताम्र पत्रों में देखने को मिलता है. वर्तमान कुमाऊंनी भाषा को सभी युगों की भाषा का मिला-जुला स्वरूप भी कहा जा सकता है. कुमाऊंनी भाषा में तिब्बती भाषा का प्रभाव भी है.

1995 में पुरवासी के सोल्हवें अंक में डॉ दीप चन्द्र चौधरी का लिखा लेख “पिथौरागढ़ नगर – ऐतिहासिक अवलोकन”

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Girish Lohani

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  • बहुत अच्छा?

    पिथौरागढ़ के नामकरण एवं तथ्यात्मक इतिहास पर भी लेख प्रकाशित करें कृपया.

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