कला साहित्य

कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो: प्रेमचंद की कहानी

उन दिनों दूध की तकलीफ थी. कई डेरी फर्मों की आजमाइश की, अहीरों का इम्तहान लिया, कोई नतीजा नहीं. दो-चार दिन तो दूध अच्छा, मिलता फिर मिलावट शुरू हो जाती. कभी शिकायत होती दूध फट गया, कभी उसमें से नागवार बू आने लगी, कभी मक्खन के रेजे निकलते. आखिर एक दिन एक दोस्त से कहा-भाई, आओ साझे में एक गाय ले लें, तुम्हें भी दूध का आराम होगा, मुझे भी. लागत आधी-आधी, खर्च आधा-आधा, दूध भी आधा-आधा. दोस्त साहब राजी हो गए. मेरे घर में जगह न थी और गोबर वगैरह से मुझे नफरत है. उनके मकान में काफी जगह थी इसलिए प्रस्ताव हुआ कि गाय उन्हीं के घर रहे. इसके बदले में उन्हें गोबर पर एकछत्र अधिकार रहे. वह उसे पूरी आजादी से पाथें, उपले बनाएं, घर लीपें, पड़ोसियों को दें या उसे किसी आयुर्वेदिक उपयोग में लाएं, इकरार करनेवाले को इसमें किसी प्रकार की आपत्ति या प्रतिवाद न होगा और इकरार करनेवाला सही होश-हवास में इकरार करता है कि वह गोबर पर कभी अपना अधिकार जमाने की कोशिश न करेगा और न किसी का इस्तेमाल करने के लिए आमादा करेगा. (Hindi Story by Munshi Premchand)

दूध आने लगा, रोज-रोज की झंझट से मुक्ति मिली. एक हफ्ते तक किसी तरह की शिकायत न पैदा हुई. गरम-गरम दूध पीता था और खुश होकर गाता था—

रब का शुक्र अदा कर भाई जिसने हमारी गाय बनाई.
ताजा दूध पिलाया उसने लुत्फे हयात चखाया उसने.
दूध में भीगी रोटी मेरी उसके करम ने बख्शी सेरी.
खुदा की रहमत की है मूरत कैसी भोली-भाली सूरत.

मगर धीरे-धीरे यहां पुरानी शिकायतें पैदा होने लगीं. यहां तक नौबत पहुंची कि दूध सिर्फ नाम का दूध रह गया. कितना ही उबालो, न कहीं मलाई का पता न मिठास. पहले तो शिकायत कर लिया करता था इससे दिल का बुखार निकल जाता था. शिकायत से सुधार न होता तो दूध बन्द कर देता था. अब तो शिकायत का भी मौका न था, बन्द कर देने का जिक्र ही क्या. भिखारी का गुस्सा अपनी जान पर, पियो या नाले में डाल दो. आठ आने रोज का नुस्खा किस्मत में लिखा हुआ. बच्चा दूध को मुंह न लगाता, पीना तो दूर रहा. आधों आध शक्कर डालकर कुछ दिनों दूध पिलाया तो फोड़े निकलने शुरू हुए और मेरे घर में रोज बमचख मची रहती थी. बीवी नौकर से फरमाती-दूध ले जाकर उन्हीं के सर पटक आ. मैं नौकर को मना करता. वह कहतीं-अच्छे दोस्त है तुम्हारे, उसे शरम भी नहीं आती. क्या इतना अहमक है कि इतना भी नहीं समझता कि यह लोग दूध देखकर क्या कहेंगे! गाय को अपने घर मंगवा लो, बला से बदबू आयगी, मच्छर होंगे, दूध तो अच्छा मिलेगा. रुपये खर्चे हैं तो उसका मजा तो मिलेगा.

चड्ढा साहब मेरे पुराने मेहरबान हैं. खासी बेतकल्लुफी है उनसे. यह हरकत उनकी जानकारी में होती हो यह बात किसी तरह गले के नीचे नहीं उतरती. या तो उनकी बीवी की शरारत है या नौकर की लेकिन जिक्र कैसे करूं. और फिर उनकी बीवी से भी तो राह-रस्म है. कई बार मेरे घर आ चुकी हैं. मेरी बीवी जी भी उनके यहां कई बार मेहमान बनकर जा चुकी हैं. क्या वह यकायक इतनी बेवकूफ हो जायेंगी, सरीहन आंखों में धूल झोंकेंगी! और फिर चाहे किसी की शरारत हो, मेरे लिएयह गैरमुमकिन था कि उनसे दूध की खराबी की शिकायत करता. खैरियत यह हुई कि तीसरे महीने चड्ढा का तबादला हो गया. मैं अकेले गाय न रख सकता था. साझा टूट गया. गाय आधे दामों बेच दी गई. मैंने उस दिन इत्मीनान की सांस ली.

आखिर यह सलाह हुई कि एक बकरी रख ली जाय. वह बीच आंगन के एक कोने में पड़ी रह सकती है. उसे दुहने के लिए न ग्वाले की जरूरत न उसका गोबर उठाने, नांद धोने, चारा-भूसा डालने के लिए किसी अहीरिन की जरूरत. बकरी तो मेरा नौकर भी आसानी से दुह लेगा. थोड़ी-सी चोकर डाल दी, चलिये किस्सा तमाम हुआ. फिर बकरी का दूध फायदेमंद भी ज्यादा है, बच्चों के लिए खास तौर पर. जल्दी हजम होता है, न गर्मी करे न सर्दी, स्वास्थ्यवर्द्धक है. संयोग से मेरे यहां जो पंडित जी मेरे मसौदे नकल करने आया करते थे, इन मामलों में काफी तजुर्बेकार थे. उनसे जिक्र आया तो उन्होंने एक बकरी की ऐसी स्तुति गाई, उसका ऐसा कसीदा पढ़ा कि मैं बिन देखे ही उसका प्रेमी हो गया. पछांही नसल की बकरी है, ऊंचे कद की, बड़े-बड़े थन जो जमीन से लगते चलते हैं. बेहद कमखोर लेकिन बेहद दुधार. एक वक्त में दो-ढाई सेर दूध ले लीजिए. अभी पहली बार ही बियाई है. पच्चीस रुपये में आ जायगी. मुझे दाम कुछ ज्यादा मालूम हुए लेकिन पंडितजी पर मुझे एतबार था. फरमाइश कर दी गई और तीसरे दिन बकरी आ पहुंची. मैं देखकर उछल पड़ा. जो-जो गुण बताये गये थे उनसे कुछ ज्यादा ही निकले. एक छोटी-सी मिट्टी की नांद मंगवाई गई, चोकर का भी इन्तजाम हो गया. शाम को मेरे नौकर ने दूध निकाला तो सचमुच ढाई सेर. मेरी छोटी पतीली लबालब भर गई थी. अब मूसलों ढोल बजायेंगे. यह मसला इतने दिनों के बाद जाकर कहीं हल हुआ. पहले ही यह बात सूझती तो क्यों इतनी परेशानी होती. पण्डितजी का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया. मुझे सवेरे तड़के और शाम को उसकी सींग पकड़ने पड़ते थे तब आदमी दुह पाता था. लेकिन यह तकलीफ इस दूध के मुकाबले में कुछ न थी. बकरी क्या है कामधेनु है. बीवी ने सोचा इसे कहीं नजर न लग जाय इसलिए उसके थन के लिए एक गिलाफ तैयार हुआ, इसकी गर्दन में नीले चीनी के दानों का एक माला पहनाया गया. घर में जो कुछ जूठा बचता, देवी जी खुद जाकर उसे खिला आती थीं.

लेकिन एक ही हफ्ते में दूध की मात्रा कम होने लगी. जरूर नजर लग गई. बात क्या है. पण्डितजी से हाल कहा तो उन्होंने कहा-साहब, देहात की बकरी है, जमींदार की. बेदरेग अनाज खाती थी और सारे दिन बाग में घूमा-चरा करती थी. यहां बंधे-बंधे दूध कम हो जाये तो ताज्जुब नहीं. इसे जरा टहला दिया कीजिए. लेकिन शहर में बकरी को टहलाये कौन और कहां? इसलिए यह तय हुआ कि बाहर कहीं मकान लिया जाय. वहां बस्ती से जरा निकलकर खेत और बाग है. कहार घण्टे-दो घण्टे टहला लाया करेगा. झटपट मकान बदला और गौ कि मुझे दफ्तर आने-जाने में तीन मील का फासला तय करना पड़ता था लेकिन अच्छा दूध मिले तो मैं इसका दुगना फासला तय करने को तैयार था. यहां मकान खूब खुला हुआ था, मकान के सामने सहन था, जरा और बढ़कर आम और महुए का बाग. बाग से निकलिए तो काछियों के खेत थे, किसी में आलू, किसी में गोभी. एक काछी से तय कर लिया कि रोजना बकरी के लिए कुछ हरियाली जाया करे. मगर इतनी कोशिश करने पर भी दूध की मात्रा में कुछ खास बढ़त नहीं हुई. ढाई सेर की जगह मुश्किल से सेर-भर दूध निकलता था लेकिन यह तस्कीन थी कि दूध खालिस है, यही क्या कम है! मै. यह कभी नहीं मान सकता कि खिदमतगारी के मुकाबले में बकरी चराना ज्यादा जलील काम है. हमारे देवताओं और नबियों का बहुत सम्मानित वर्ग गल्ले चराया करते था. कृष्ण जी गायें चराते थे. कौन कह सकता है कि उस गल्ले में बकरियां न रही होंगी. हजरत ईसा और हजरत मुहम्मद दोनों ही भेड़े चराते थे. लेकिन आदमी रूढ़ियों का दास है. जो कुछ बुजुर्गों ने नहीं किया उसे वह कैसे करे. नये रास्ते पर चलने के लिए जिस संकल्प और दृढ़ आस्था की जरूरत है वह हर एक में तो होती नहीं. धोबी आपके गन्दे कपड़े धो लेगा लेकिन आपके दरवाजे पर झाड़ू लगाने में अपनी हतक समझता है. जरायमपेशा कौमों के लोग बाजार से कोई चीज कीमत देकर खरीदना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. मेरे खितमतगार को बकरी लेकर बाग में जाना बुरा मालूम होता था. घरसे तो ले जाय लेकिन बाग में उसे छोड़कर खुद किसी पेड़ के नीचे सो जाता. बकरी पत्तियां चर लेती थी. मगर एक दिन उसके जी में आया कि जरा बाग से निकलकर खेतों की सैर करें. यों वह बहुत ही सभ्य और सुसंस्कृत बकरी थी, उसके चेहरे से गम्भीरता झलकती थी. लेकिन बाग और खेत में घुस गई आजादी नहीं है, इसे वह शायद न समझ सकी. एक रोज किसी खेत में घुस गई और गोभी की कई क्यारियां साफ कर गई. काछी ने देखा तो उसके कान पकड़ लिये और मेरे पास लाकर बोला-बाबूजी, इस तरह आपकी बकरी हमारे खेत चरेगी तो हम तो तबाह हो जायेंगे. आपको बकरी रखने का शौक है तो इस बांधकर रखिये. आज तो हमने आपका लिहाज किया लेकिन फिर हमारे खेत में गई तो हम या तो उसकी टांग तोड़ देंगे या कानीहौज भेज देंगे.

अभी वह अपना भाषण खत्म न कर पाया था कि उसकी बीवी आ पहुंची और उसने इसी विचार को और भी जोरदार शब्दों में अदा किया-हां, हां, करती ही रही मगर रांड खेत में घुस गई और सारा खेत चौपट कर दिया, इसके पेट में भवनी बैठे! यहां कोई तुम्हारा दबैल नहीं है. हाकिम होंगे अपने घर के होंगे. बकरी रखना है तो बांधकर रखो नहीं गला ऐंठ दूंगी!

मैं भीगी बिल्ली बना हुआ खड़ा था. जितनी फटकार आज सहनी पड़ी उतनी जिन्दगी में कभी न सही. और जिस धीरज से आज काम लिया अगर उसे दूसरे मौकों पर काम लिया होतातो आज आदमी होता. कोई जवाब नहीं सूझता था. बस यही जी चाहता था कि बकरी का गला घोंट दूं ओर खिदमतगार को डेढ़ सौ हण्टर जमाऊं. मेरी खामोशी से वह औरत भी शेर होती जाती थी. आज मुझे मालूम हुआ कि किन्हीं-किन्हीं मौकों पर खामोशी नुकसानदेह साबित होती है. खैर, मेरी बीवी ने घर में यह गुल-गपाड़ा सुना तो दरवाजे पर आ गई तो हेकड़ी से बोली-तू कानीहौज पहुंचा दे और क्या करेगी, नाहक टर्र-टर्र कर रही है, घण्टे-भर से. जानवर ही है, एक दिन खुल गई तो क्या उसकी जान लेगी? खबरदार जो एक बात भी मुंह से निकाली. क्यों नहीं खेत के चारों तरफ झाड़ लगा देती, कांटों से रूंध दे. अपनी गती तो मानती नहीं, ऊपर से लड़ने आई है. अभी पुलिस में इत्तला कर दें तो बंधे-बंधे फिरो.

बात कहने की इस शासनपूर्ण शैली ने उन दोनों को ठण्डा कर दिया. लेकिन उनके चले जाने के बाद मैंने देवी जी की खूब खबर ली-गरीबों का नुकसन भी करती हो और ऊपर से रोब जमाती हो. इसी का नाम इंसाफ है?

देवी जी ने गर्वपूर्वक उत्तर दिया— मेरा एहसान तो न मानोगे कि शैतनों को कितनी आसानी से भगा दिया, लगे उल्टे डांटने. गंवारों को राह बतलाने का सख्ती के सिवा दूसरा कोई तरीका नहीं. सज्जनता या उदारता उनकी समझ में नहीं आती. उसे यह लोग कमजोरी समझते हैं और कमजोर को कोन नहीं दबाना चाहता.

खिदमतगार से जवाब तलब किया तो उसने साफ कह दिया-साहब, बकरी चराना मेरा काम नहीं है.

मैंने कहा-तुमसे बकरी चराने को कौन कहता है, जरा उसे देखते रहो करो कि किसी खेत में न जाय, इतना भी तुमसे नहीं हो सकता? मैं बकरी नहीं चरा सकता साहब, कोई दूसरा आदमी रख लीजिए.

आखिरी मैंने खुद शाम को उसे बाग में चरा लाने का फैसला किया. इतने जरा-से काम के लिए एक नया आदमी रखना मेरी हैसियत से बाहर था. और अपने इस नौकर को जवाब भी नहीं देना चाहता था जिसने कई साल तक वफादारी से मेरी सेवा की थी और ईमानदार था. दूसरे दिन में दफ्तर से जरा जल्द चला आया और चटपट बकरी को लेकर बाग में जा पहुंचा. जोड़ों के दिन थे. ठण्डी हवा चल रही थी. पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियां गिरी हुई थीं. बकरी एक पल में वह जा पहुंची. मेरी दलेल हो रही थी, उसके पीछे-पीछे दौड़ता फिरता था. दफ्तर से लौटकर जरा आराम किया करता था, आज यह कवायद करना पड़ी, थक गया, मगर मेहनत सफल हो गई, आज बकरी ने कुछ ज्यादा दूध पिया.

यह खयाल आया, अगर सूखी पत्तियां खाने से दूध की मात्रा बढ़ गई तो यकीनन हरी पत्तियां खिलाई जाएं तो इससे कहीं बेहतर नतीजा निकले. लेकिन हरी पत्तियां आयें कहां से? पेड़ों से तोडूं तो बाग का मालिक जरूर एतराज करेगा, कीमत देकर हरी पत्तियां मिल न सकती थीं. सोचा, क्यों एक बार बांस के लग्गे से पत्तियां तोड़ें. मालिक ने शोर मचाया तो उससे आरजू-मिन्नत कर लेंगे. राजी हो गया तो खैर, नहीं देखी जायगी. थोड़ी-सी पत्तियां तोड़ लेने से पेड़ का क्या बिगड़ जाता है. चुनाचे एक पड़ोसी से एकपतला-लम्बा बांस मांग लाया, उसमें एक ऑंकुस बांधा और शाम को बकरी को साथ लेकर पत्तियां तोड़ने लगा. चोर आंखों से इधर-उधर देखता जाता था, कहीं मालिक तो नहीं आरहा है. अचानक वही काछी एक तरफ से आ निकला और मुझे पत्तियां तोड़ते देखकर बोला-यह क्या करते हो बाबूजी, आपके हाथ में यह लग्गा अच्छा नहीं लगता. बकरी पालना हम गरीबों का काम है कि आप जैसे शरीफों का. मैं कट गया, कुछ जवाब नसूझा. इसमें क्या बुराई है, अपने हाथ से अपना काम करने में क्या शर्म वगैरह जवाब कुछ हलके, बेहकीकत, बनावटी मालूम हुए. सफेदपोशी के आत्मगौरव के जबान बन्द कर दी. काछी ने पास आकर मेरे हाथ से लग्गा ले लिया और देखते-देखते हरी पत्तियों का ढेर लगा दिया और पूछा-पत्तियां कहां रख जाऊं?
मैंने झेंपते हुए कहा-तुम रहने दो? मैं उठा ले जाऊंगा.

उसने थोड़ी-सी पत्तियां बगल में उठा लीं और बोला-आप क्या पत्तियां रखने जायेंगे, चलिए मैं रख आऊं.

मैंने बरामदे में पत्तियां रखवा लीं. उसी पेड़ के नीचे उसकी चौगुनी पत्तियां पड़ी हुई थी. काछी ने उनका एक गट्ठा बनाया और सर पर लादकर चला गया. अब मुझे मालूम हुआ, यह देहाती कितने चालाक होते हैं. कोई बात मतलब से खाली नहीं.
मगर दूसरे दिन बकरी को बाग में ले जाना मेरे लिए कठिन हो गया. काछी फिर देखेगा और न जाने क्या-क्या फिकरे चुस्त करे. उसकी नजरों में गिर जाना मुंह से कालिख लगाने से कम शर्मनाक न था. हमारे सम्मान और प्रतिष्ठा की जो कसौटी लोगों ने बना रक्खी है, हमको उसका आदर करना पड़ेगा, नक्कू बनकर रहे तो क्या रहे.

लेकिन बकरी इतनी आसानी से अपनी निर्द्वन्द्व आजाद चहलकदमी से हाथ न खींचना चाहती थी जिसे उसने अपने साधारण दिनचर्या समझना शुरू कर दिया था. शाम होते ही उसने इतने जोर-शोर से प्रतिवाद का स्वर उठायया कि घर में बैठना मुश्किल हो गय. गिटकिरीदार ‘मे-मे’ का निरन्तर स्वर आ-आकर कान के पर्दों को क्षत-विक्षत करने लगा. कहां भाग जाऊं? बीवी ने उसे गालियां देना शुरू कीं. मैंने गुससे में आकर कई डण्डे रसीदे किये, मगर उसे सत्याग्रह स्थागित न करना था न किया. बड़े संकट में जान थी.

आखिर मजबूर हो गया. अपने किये का, क्या इलाज! आठ बजे रात, जाड़ों के दिन. घर से बाहर मुंह निकालना मुश्किल और मैं बकरी को बाग में टहला रहा था और अपनी किस्मत को कोस रहा था. अंधेरे में पांव रखते मेरी रूह कांपती है. एक बार मेरे सामने से एक सांप निकल गया था. अगर उसके ऊपर पैर पड़ जाता तो जरूर काट लेता. तब से मैं अंधेरे में कभी न निकलता था. मगर आज इस बकरी के कारण मुझे इस खतरे का भी सामना करना पड़ा. जरा भी हवा चलती और पत्ते खड़कते तो मेरी आंखें ठिठुर जातीं और पिंडलियां कॉँपने लगतीं. शायद उस जन्म में मैं बकरी रहा हूंगा और यह बकरी मेरी मालकिन रही होगी. उसी का प्रायश्चित इस जिन्दगी में भोग रहा था. बुरा हो उस पण्डित का, जिसने यह बला मेरे सिर मढी. गिरस्ती भी जंजाल है. बच्चा न होता तो क्यों इस मूजी जानवर की इतनी खुशामद करनी पड़ती. और यह बच्चा बड़ा हो जायगा तो बात न सुनेगा, कहेगा, आपने मेरे लिए क्या किया है. कौन-सी जायदाद छोड़ी है! यह सजा भुगतकर नौ बजे रात को लौटा. अगररात को बकरी मर जाती तो मुझे जरा भी दु:ख न होता.

दूसरे दिन सुबह से ही मुझे यह फिक्र सवार हुई कि किसी तरह रात की बेगार से छुट्टी मिले. आज दफ्तर में छुट्टी थी. मैंने एक लम्बी रस्सी मंगवाई और शाम को बकरी के गले में रस्सी डाल एक पेड़ की जड़ से बांधकर सो गया-अब चरे जितना चाहे. अब चिराग जलते-जलते खोल लाऊंगा. छुट्टी थी ही, शाम को सिनेमा देखने की ठहरी. एक अच्छा-सा खेल आया हुआ था. नौकर को भी साथ लिया वर्ना बच्चे को कौन सभालाता. जब नौ बजे रात को घर लोटे और में लालटेन लेकर बकरी लेनो गया तो क्या देखता हूं कि उसने रस्सी को दो-तीन पेड़ों से लपेटकर ऐसा उलझा डाला है कि सुलझना मुश्किल है. इतनी रस्सी भी न बची थी कि वह एक कदम भी चल सकती. लाहौलविकलाकूवत, जी में आया कि कम्बख्त को यहीं छोड़ दूं, मरती है तो मर जाय, अब इतनी रात को लालटेन की रोशनी में रस्सी सुलझाने बैठे. लेकिन दिल न माना. पहले उसकी गर्दन से रस्सी खोली, फिर उसकी पेंच-दर-पेंच ऐंठन छुड़ाई, एक घंटा लग गया. मारे सर्दी के हाथ ठिठुरे जाते थे और जी जल रहा था वह अलग. यह तरकीब. और भी तकलीफदेह साबित हुई.

अब क्या करूं, अक्ल काम न करती थी. दूध का खयाल न होता तो किसी को मुफ्त दे देता. शाम होते ही चुड़ैल अपनी चीख-पुकार शुरू कर देगी और घर में रहना मुश्किल हो जायगा, और आवाज भी कितनी कर्कश और मनहूस होती है. शास्त्रों में लिखा भी है, जितनी दूर उसकी आवाज जाती है उतनी दूर देवता नहीं आते. स्वर्ग की बसनेवाली हस्तियां जो अप्सराओं के गाने सुनने की आदी है, उसकी कर्कश आवाज से नफरत करें तो क्या ताज्जुब! मुझ पर उसकी कर्ण कटु पुकारों को ऐसा आंतक सवार था कि दूसरे दिन दफ्तर से आते ही मैं घर से निकल भागा. लेकिन एक मील निकल जाने पर भी ऐसा लग रहा था कि उसकी आवाज मेरा पीछा किये चली आती है. अपने इस चिड़चिड़ेपन पर शर्म भी आ रही थी. जिसे एक बकरीरखने की भी सामर्थ्य न हो वह इतना नाजुक दिमाग क्यों बने और फिर तुम सारी रात तो घर से बाहर रहोगे नहीं, आठ बजे पहुंचोगे तो क्या वह गीत तुम्हारा स्वागत न करेगा?

सहसा एक नीची शाखोंवाला पेड़ देखकर मुझे बरबस उस पर चढ़ने की इच्छा हुई. सपाट तनों पर चढ़ना मुश्किल होता है, यहां तो छ: सात फुट की ऊंचाई पर शाखें फूट गयी थीं. हरी-हरी पत्तियों से पेड़ लदा खड़ा था और पेड़ भी था गूलर का जिसकी पत्तियों से बकरियों को खास प्रेम है. मैं इधर तीस साल से किसी रुख पर नहीं चढ़ा. वहआदत जाती रही. इसलिए आसान चढ़ाई के बावजूद मेरे पांव कांप रहे थे पर मैंने हिम्मत न हारी और पत्तियों तोड़-तोड़ नीचे गिराने लगा. यहां अकेले में कौन मुझे देखता है कि पत्तियां तोड़ रहा हूं. अभी अंधेरा हुआ जाता है. पत्तियों का एक गट्ठा बगल में दबाऊंगा और घर जा पहुंचूंगा. अगर इतने पर भी बकरी ने कुछ चीं-चपड़ की तो उसकी शामत ही आ जायगी.

मैं अभी ऊपर ही था कि बकरियों और भेड़ों काएक गोल न जाने किधर से आ निकला और पत्तियों पर पिल पड़ा. मैं ऊपर से चीख रहा हूं मगर कौन सुनता है. चरवाहे का कहीं पता नहीं. कहीं दुबक रहा होगा कि देख लिया जाऊंगा तो गालियां पड़ेंगी. झल्लाकर नीचे उतरने लगा. एक-एक पल में पत्तियां गायब होती जाती थी. उतरकर एक-एक की टांग तोडूंगा. यकायक पांव फिसला और मैं दस फिट की ऊंचाई से नीचे आ रहा. कमर में ऐसी चोट आयी कि पांच मिनट तक आंखों तले अंधेरा छा गया. खैरियत हुई कि और ऊपर से नहीं गिरा, नहीं तो यहीं शहीद हो जाता. बारे, मेरे गिरने के धमाके से बकरियां भागीं और थोड़ी-सी पत्तियां बच रहीं. जब जरा होश ठिकाने हुए तो मैंने उन पत्तियों को जमा करके एक गट्ठा बनाया और मजदूरों की तरह उसे कंधे पर रखकर शर्म की तरह छिपाये घर चला. रास्ते में कोई दुर्घटना न हुई. जब मकान कोई चार फलांग रह गया और मैंने कदम तेज किये कि कहीं कोई देख न ले तो वह काछी समाने से आता दिखायी दिया. कुछ न पूछो उस वक्त मेरी क्या हालत हुई. रास्ते के दोनो तरफ खेतों की ऊंची मेड़ें थीं जिनके ऊपर नागफनी निकलेगा और भगवान् जाने क्या सितम ढाये. कहीं मुड़ने का रास्ता नहीं और बदल ली और सिर झुकाकर इस तरह निकल जाना चाहता था कि कोई मजदूर है. तले की सांस तले थी, ऊपर की ऊपर, जैसे वह काछी कोई खूंखार शोर हो. बार-बार ईश्वर को याद कर रहा था कि हे भगवान्, तू ही आफत के मारे हुओं का मददगार है, इस मरदूद की जबान बन्द कर दे. एक क्षण के लिए, इसकी आंखों की रोशनी गायब कर दे…आह, वह यंत्रणा का क्षण जब मैं उसके बराबर एक गज के फासले से निकला! एक-एक कदम तलवार की धार पर पड़ रहा था शैतानी आवाज कानों में आयी-कौन है रे, कहां से पत्तियां तोड़े लाता है!

मुझे मालूम हुआ, नीचे से जमीन निकल गयी है और मैं उसके गहरे पेट में जा पहुंचा हूं. रोएं बर्छियां बने हुए थे, दिमाग में उबाल-सा आ रहा था, शरीर को लकवा-सा मार गया, जवाब देने का होश न रहा. तेजी से दो-तीन कदम आगे बढ़ गया, मगर वह ऐच्छिक क्रिया न थी, प्राण-रक्षा की सहज क्रिया थी कि एक जालिम हाथ गट्ठे पर पड़ा और गट्ठा नीचे गिर पड़ा. फिर मुझे याद नहीं, क्या हुआ. मुझे जब होश आया तो मैं अपने दरवाजे पर पसीने से तर खड़ा था गोया मिरगी के दौरे के बाद उठा हूं. इस बीच मेरी आत्मा पर उपचेतना का आधिपत्य था और बकरी की वह घृणित आवाज, वह कर्कश आवाज, वह हिम्मत तोड़नेवाली आवाज, वह दुनिया की सारी मुसीबतों का खुलसा, वह दुनिया की सारी लानतों की रूह कानों में चुभी जा रही थी.
बीवी ने पूछा-आज कहां चले गये थे? इस चुड़ैल को जरा बाग भी न ले गये, जीना मुहाल किये देती है. घर से निकलकर कहां चली जाऊ!

मैंने इत्मीनान दिलाया-आज चिल्ला लेने दो, कल सबसे पहला यह काम करूंगा कि इसे घर से निकाल बाहर करूंगा, चाहे कसाई को देना पड़े.

‘और लोग न जाने कैसे बकरियां पालते हैं.’
‘बकरी पालने के लिए कुत्ते का दिमाग चाहिए.’

सुबह को बिस्तर से उठकर इसी फिक्र में बैठा था कि इस काली बला से क्योंकर मुक्ति मिले कि सहसा एक गड़रिया बकरियों का एक गल्ला चराता हुआ आ निकला. मैंने उसे पुकारा और उससे अपनी बकरी को चराने की बात कही. गड़रिया राजी हो गया. यही उसका काम था. मैंने पूछा-क्या लोगे?

‘आठ आने बकरी मिलते हैं हजूर.’
‘मैं एक रुपया दूंगा लेकिन बकरी कभी मेरे सामने न आवे.’

गड़रिया हैरत में रह गया-मरकही है क्या बाबूजी?
‘नही, नहीं, बहुत सीधी है, बकरी क्या मारेगी, लेकिन मैं उसकी सूरत नहीं देखना चाहता.’
‘अभी तो दूध देती है?’
‘हां, सेर-सवा सेर दूध देती है.’
‘दूध आपके घर पहुंच जाया करेगा.’
‘तुम्हारी मेहरबानी.’

जिस वक्त बकरी घर से निकली है मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मेरे घर का पाप निकला जा रहा है. बकरी भी खुश थी गोया कैद से छूटी है, गड़रिये ने उसी वक्त दूध निकाला और घर में रखकर बकरी को लिये चला गया. ऐसा बेगराज गाहक उसे जिन्दगी में शायद पहली बार ही मिला होगा.

एक हफ्ते तक दूध थोड़ा-बहुत आता रहा फिर उसकी मात्रा कम होने लगी, यहां तक कि एक महीना खतम होते-होते दूध बिलकुल बन्द हो गया. मालूम हुआ बकरी गाभिन हो गयी है. मैंने जरा भी एतराज न किया काछी के पास गाय थी, उससे दूध लेने लगा. मेरा नौकर खुद जाकर दुह लाता था.

कई महीने गुजर गये. गड़रिया महीने में एक बार आकर अपना रुपया ले जाता. मैंने कभी उससे बकरी का जिक्र न किया. उसके खयाल ही से मेरी आत्मा कांप जाती थी. गड़रिये को अगर चेहरे का भाव पढ़ने की कला आती होती तो वह बड़ी आसानी से अपनी सेवा का पुरस्कार दुगना कर सकता था.

एक दिन मैं दरवाजे पर बैठा हुआ था कि गड़रिया अपनी बकरियों का गल्ला लिये आ निकला. मैं उसका रुपया लाने अन्दर गया, कि क्या देखता हूं मेरी बकरी दो बच्चों के साथ मकान में आ पहुंची. वह पहले सीधी उस जगह गयी जहां बंधा करती थी फिर वहां से आंगन में आयी और शायद परिचय दिलाने के लिए मेरी बीवी की तरफ ताकने लगी. उन्होंने दौड़कर एक बच्चे को गोद में ले लिया और कोठरी में जाकर महीनों का जमा चोकर निकाल लायीं और ऐसी मुहब्बत से बकरी को खिलाने लगीं कि जैसे बहुत दिनों की बिछुड़ी हुई सहेली आ गयी हो. न व पुरानी कटुता थी न वह मनमुटाव. कभी बच्चे को चुमकारती थीं. कभी बकरी को सहलाती थीं और बकरी डाकगड़ी की रफ्तार से चोकर उड़ा रही थी.

तब मुझसे बोलीं-कितने खूबसूरत बच्चे है!
‘हां, बहुत खूबसूरत.’
‘जी चाहता है, एक पाल लूं.’
‘अभी तबियत नहीं भरी?’
‘तुम बड़े निर्मोही हो.’

चोकर खत्म हो गया, बकरी इत्मीनान से विदा हो गयी. दोनों बच्चे भी उसके पीछे फुदकते चले गये. देवी जी आंख में आंसू भरे यह तमाशा देखती रहीं.

गड़रिये ने चिलम भरी और घर से आग मांगने आया. चलते वक्त बोला-कल से दूध पहुंचा दिया करूंगा. मालिक.
देवीजी ने कहा-और दोनों बच्चे क्या पियेंगे?

‘बच्चे कहां तक पियेंगे बहूजी. दो सेर दूध अच्छा न होता था, इस मारे नहीं लाया.’
मुझे रात को वह मर्मान्तक घटना याद आ गयी.

मैंने कहा-दूध लाओ या न लाओ, तुम्हारी खुशी, लेकिन बकरी को इधर न लाना.
उस दिन से न वह गड़रिया नजर आया न वह बकरी, और न मैंने पता लगाने की कोशिश की. लेकिन देवीजी उसके बच्चों को याद करके कभी-कभी आंसू बहा रोती हैं.

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नशा : मुंशी प्रेमचंद की कहानी

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Sudhir Kumar

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सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

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शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

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दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

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इस बार दो दिन मनाएं दीपावली

शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…

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गुम : रजनीश की कविता

तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…

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मैं जहां-जहां चलूंगा तेरा साया साथ होगा

चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…

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