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कब बन जाते हैं आदमी के दो चेहरे

इतने विशाल हिंदी समाज में सिर्फ डेढ़ यार – पंद्रहवीं क़िस्त

क्या आपने इलाचंद्र जोशी के ‘प्लेंचेट’ और परामनोविज्ञान का नाम सुना है?

1965-66 के दौरान ‘धर्मयुग’ में संपादक धर्मवीर भारती ने परा-मनोविज्ञान पर अनेक लेखमालाएं प्रकाशित कीं, जिनमें संसार भर के विद्वानों के द्वारा पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए गए. तब हम लोग युवा थे, ऐसी बातों का खूब मजाक उड़ाया करते और कभी-कभी अपनी ओर से कुछ नयी बातें जोड़कर और अधिक रोचक और रहस्यमय बनाने की कोशिश करते. उन्हीं दिनों ‘धर्मयुग’ में ही प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार इलाचंद्र जोशी ने दुनिया भर में हुए शोध का हवाला देते हुए निष्कर्ष भी निकालने की कोशिश की मगर धर्म. कर्मकांड और अंधविश्वासों से भरे इस देश में क्या मन की पराशक्तियों को लेकर किसी एक निष्कर्ष तक पहुंचना इतना आसान है?

मुझे मालूम है कि कुकुरमुत्तों की तरह उगते टीवी चेनलों के लिए यह घटनाक्रम कमाऊ मसाला हो सकता है, मगर मैं इसे उस जंजाल में नहीं फ़साना चाहता. जो कौतूहल और जिज्ञासाएँ आधी सदी पहले अनुत्तरित रह गई थीं, दरअसल, इस घटना ने उन्हें और अधिक उलझा दिया था. मैं इसे विज्ञान बनाम अन्धविश्वास का मसला भी नहीं मानता, इस सब से अलग और गहरा मसला समझता हूँ. इसमें आस्था और विश्वास से जुड़ी कुछ ऐसी बातें और ऐसे किरदार बीच में आ गए हैं, जिनके कारण इन्हें, कम-से-कम मैं, हलके से नहीं ले सकता.

एकदम हाल की, इसी महीने की घटना है. छोटे-से हमारे ग्रामीण मोहल्ले में एक बुजुर्ग महिला ने, जिनकी बातों पर मैं बचपन से ही भरोसा करता रहा हूँ, बताया कि उनकी बहू को सबेरे उठते ही घर के प्रवेश द्वार पर औरतों के बाल का गुच्छा, सिंदूर और तेल बिखरा हुआ दिखाई दिया, जाहिर है, यह सब देखकर बहू चिल्लायीं और उस अनाम जादू-टोना कर्ता को गरियाने लगी. शुरू-शुरू में तो उत्तेजना में इतनी तेज बोल रही थी कि कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थी. वो हवा में किसी अनाम दिशा की ओर देखते हुए किसी को गरिया रही थी. बाद में कुछ शांत होने के बाद पूछताछ करने पर उन्होंने बताया कि कोई उनके पीछे पड़ा है जो उन्हें और उनके परिवार को खत्म करना चाहता है. ‘कौन हो सकता है वो’, पूछने पर उनका उत्तर था, ‘उन्हें क्या मालूम!’. ‘तब फिर आप परेशान क्यों हैं, पूछने पर वो नाराज हो जाती हैं, ‘कैसी बात करते हैं आप. कोई हमारे घर को ख़त्म करने पर तुला है, ऐसे में हम कैसे निश्चिन्त सो सकते हैं.’ ‘तेल कहाँ बिखरा हुआ है’, की जिज्ञासा व्यक्त करने पर उन्होंने बताया कि वो तो फ़ौरन कपडे से पौंछ दिया गया, छोटे-छोटे बच्चों का घर है, कोई दुर्घटना हो सकती थी. वो बताती हैं कि कोई भी उस तेल भीगे कपडे को देख सकता है जो आम के पेड़ की जड़ में रक्खा है.

‘आपका किसी पर शक है क्या, कौन ऐसा कर सकता है?’ के जवाब में वो चिल्लाती हैं, ‘उन्हें क्या मालूम, और फिर से उस अनाम दुश्मन को गरियाने लगती हैं,

‘जब आपको मालूम ही नहीं है तो हवा में किसे गाली दे रही हैं आप?’ वो फिर से उसी गुस्से में चिल्लाती हैं, ‘आपके घर के देहरी पर रखा होता तब आपको मालूम पड़ता… आपका किसी ने अभी कुछ नहीं बिगाड़ा है. हमारी तरह घरबार बिखर गया होता तो आप समझते.’

‘हमारा क्यों बिगाड़ता कोई. किसी कारण से ही तो आदमी किसी को नुकसान पहुंचाता है.’ ऐसा पूछने पर भी उनका गुस्सा फिर भड़क उठता है,
वास्तविकता यह है कि अपनी सारी जिंदगी पोषित (अंध) विश्वासों को आज वो किसी भी रूप में बदलने के लिए तैयार नहीं हैं. खास बात यह कि कल तक जिसे वह अपना दुश्मन समझती थीं और हर बात में उसकी आलोचना करती थीं, आज उसका पक्ष ले रही हैं. ऐसा क्यों होता है कि विश्वासों पर तो आदमी तर्क-वितर्क करने के लिए तैयार हो जाता है, अंधविश्वासों को लेकर कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं होता. इलाचन्द्र जोशी जीवन भर परामनोविज्ञान पर काम करते रहे, कितने ही उपन्यासों और कहानियों में इस पर सवाल उठाये, स्वतंत्र रूप से दर्जनों लेख लिखे, मगर समाज… भारत के निम्न-मध्यवर्गीय समाज ने तो, जो इन अंधविश्वासों में सिर से पांव तक जकड़ा हुआ है, इस शब्द का नाम भी नहीं सुना होगा.

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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