दूर कहीं जंगल में घसियारियों के गीत समवेत स्वर में गुंजायमान हो रहे हैं. उधर डाल पर दरांतियों से जैसे ही खट-खट होती है वैसे ही पेड़ों से पत्तियां झरझराकर ज़मीन पर गिरती हैं. पत्तियों के झरझराने और घसियारियों के मधुर स्वरों के मध्य सटीक तालमेल है. पतरोल को भी पता नहीं चल पाया कि कब घसियारिनें पेड़ पर चढ़ीं और उतरकर घास उठाकर भी चली गयीं. (Hindi Kahani Moksha)
उत्तराखंड के एक गांव के पेड़ पर चढी हुई किशोरियां दरांती से जमीन पर अपना-अपना घास गिराने के लिए पेड़ की डालों पर छितरी हुई हैं. कोई पेड़ पर आड़ी झुकी हुई, कोई पेड़ के समांतर, कोई धनुषाकार खड़ी हुई वे सभी गढ़वाली गीत लगाते हुए घास गिराती जा रही हैं. उनकी गढ़वाली भौंड़ जैसे ही जंगलों को भेदती हुई हिम श्रंगों को छूती हैं, हवायें मृदंग बजाने लगती हैं ढांग-गदेरों में.
सहसा एकांत पेड़ की सघन पत्तियों की छड़बड़ाहट से आच्छ्न्न एक आवाज हवा में उभरी.
जल्दी-जल्दी करो रे छोरियों! परमेश्वरी के ब्याह में जाना है की नहीं?
मैंणा ने कहा, हां दीदी जाना है.
सुना है! “नीर गांव के जमींदार के घर से बारात आ रही है.” बड़ी भाग्यशाली है परमेश्वरी,
फिर से निर्देश हुआ घसयारियों को-
अरे! छोरियों जितने घास के पूले (गट्ठर) बना लिए बस पर्याप्त हैं. सरासर घर चलो अब.
बरात पहुंचने से पहले वापस इधर ही नदी में आकर नहाना भी तो है, कपड़े भी धोने हैं.
ऐ… ऐ चंपा तूने भीमल की छाल निकाली की नहीं रे?
नहीं निकाली तो निकाल ले भुल्ली सभी के लिए, हमारे बाल मुलायम कैसे होंगे बल?
आज परमेश्वरी का ब्याह है इसलिए उसकी सभी सखियां तड़के ही गाय-भैंसों के लिए घास लेने वन चली गयी हैं. डार की डार गौरैय्या सी फुदक-चहक रही हैं आज. चहकना ही हुआ. परमेश्वरी उनकी खास दगड़िया जो है जिसका ब्याह है आज. परमेश्वरी की विधवा मां को भी घर पर फुर्सत कहां है? महीने भर पहले से ब्याह के लिए राशन-अनाज खरीदकर इकट्ठा करने और साफ करने का काम शुरू हो गया है. रौनकों की झालर लग गयी है ब्याह वाले घर में. गांव की चाची-बड्डी व नौली बहुएं बारी-बारी से अनाज साफ करने आ रही हैं. कल को सभी के घर में कारज होना है आज तेरी बारी तो कल दूसरे की बारी और फिर हंसी, बतकही, चुगलीचकारी का भी तो खूब समय मिलता है. परमेश्वरी की मां बाहर अरसे बनाने के लिए गुड़ और चावल दे आयी है. क्या जो करे बिचारी? जीजा-साली, देवर-भाभी, भौज-ननद सभी ब्यो की रंगत में रले-मिले हुए. परमेश्वरी की दगड़िया बरात के आने से ठीक पहले पहुंच गयी हैं उसके घर. सभी ने नयी सूती धोती और सिर पर ठांट पहने हुए हैं. घर के पास ही परमेश्वरी की मां के पुंगड़े में कई बड़े-बड़े मिट्टी के चूल्हे लगाये गये हैं जिसमें भम-भम आग जल रही है.
हर चूल्हे को गांव भर की स्त्रियों का कुनबा घेरकर बैठा हुआ है. पुरुष और स्त्रीयों के साझे काम में हंसी-ठठा चल रहा है इन चूल्हों की सरहदों के भीतर. पुरुष झरने से पकौड़ी-पूरी निकाल रहे हैं.स्त्रियां बेल रही हैं. पहली एक घांड़ उड़द की पकौड़ियों की निकाल ली गयी है. फिर दूसरी घांड़ पूरियों की.
एक ओर पकौड़ियां और दूसरी ओर पूरीयां झमा-झम गिरती हुई परातों को भरती जा रही हैं, दूसरी ओर चूल्हे में प्रसाद, सब्जी, दाल, भात बन रहा है. गांव के समवेत श्रम ने ना जाने अपनी कितनी ही बेटियों के शहर से आने वाले बारातियों की आवभगत की है? यही पहाड़ियों की रीत भी तो है. कन्यादान में पिठाई, बर्तन-भांडे, साड़ी, वस्त्र, आदि यथोचित मिल ही जाता है पहाड़ की बेटियों को. यही महादान है पहाड़ों का, जिसका कोई प्रतिकार नहीं होता है. इन्हीं उपहारों को सुखद स्मृतियों के साथ बेटियां खुशी-खुशी अपनी देहरी से विदा हो जाती हैं ससुराल. बाकि ठहरा! उनका भाग्य.
रात का आंचल ढलक गया है. बारात घर की चौखट पर आने को है. औजी भी घर के चौक पर मुस्तैदी से बैठ गये हैं.बीड़ी दांतों के बीच में फंसाकर ढोल, रौंटी और मशकबाज को बजा-बजाकर परख रहे हैं कि कहीं ऐनवक्त पर बेसुरे ना बज जायें. मुंडेर पर गैस भी रखवा दिये गये हैं.
परमेश्वरी को भी तेल-कंघी करके नयी-धोती पहनाकर ऊपर वाले कमरे में बिठा दिया गया है.
मामाजी भी पैदल रास्ते से होकर अभी-अभी गांव पहुंचे हैं.
घर के छज्जे से उजाले के चंदोसे में नीचे सड़क पर गुब्बारों और झंडियों से सजी पालकी साफ दिखाई दे रही है. जिस पर ब्यौला विराजमान है. लड़के वालों की बारात ढोल-रौंटी और मशकबाज की आवाज के साथ आगे बढ़ती हुई सुनाई देने लगी है.
तभी मामाजी ने कहा, “ऐ परमेश्वरी बेटा कहां है रेतू?” उन्होंने हंसते हुए कहा, “तेरे ससुराल वाले तो बहुत पूजा-पाठ और आस्था वाले मालूम पड़ रहे हैं. मैं भी उनके साथ-साथ ही तो पहुंच रहा हूं. रास्ते भर रुक-रुक कर श्रीफल फोड़ रहे थे ये लोग.”
“तेरा दूल्हा बहुत सुंदर होगा बेटा, बुरी नजर, छाया से बचाने हेतु संभवतः उसके पिताजी व समस्त परिवारगण अपने ईष्ट व देवी-देवताओं का स्मरण करते हुए आ रहे हैं.”
मेहमानों में से किसी ने परमेश्वरी की मां से पूछा,
“काकी कैसा है वर-नारायण?” आपने तो देखा होगा ना?
परमेश्वरी की मां ने कहा, “कहां बेटा? हम औरतें ठहरीं जड़-मूढ, क्यों जायेंगी बेटी के लिए वर खोजने? परिवार के जेठ जी गये थे नीर गांव.”
वे लोग ही ठीक से देख-भाल करके आये हैं लड़के और उसके घर-बार को. बड़े संभ्रांत परिवार से है लड़का, नीर गांव में पानी वाले खेत हैं इसलिए ही तो नीर है गांव का नाम. बहुत धान होता है वहां. किसी भी चीज की कोई कमी नहीं उस नीर गांव में.
जेठ जी ने हुक्का गुड़गुड़ाते प्रत्युत्तर में सिर हिलाया और परमेश्वरी की मां के संवाद को बल देते हुए कहा, लड़का क्या देखते? हमने तो परमेश्वरी के जेठ को देखा बस. लड़का भी तो उतना ही सुंदर होगा ना, जितना कि उसका बड़ा भाई? गोरा-चिट्टा, दोहरे कद-काठी का,
लड़का बाहर गया हुआ था उस दिन अपने खेत-पुंगड़ों में.
घर-बार, खेती-बाड़ी सब कुछ तो है उनकी. यही तो देखा जाता है सो देखा बाकि क्या देखना था? बारात प्रमुख सड़क से ऊपर की ओर कच्ची डगर पर ब्योली के घर जैसे ही पहुंची दोनों पक्षों के सम्मिलित वाद्य घर के चौक में भड़ाम-तौड़ भड़ाम-तौड़ करने लगे. जो बराती सुरापान के बाद अलमस्त थे ढोल के आगे नोट दिखा-दिखाकर थिरक रहे थे.
चौकपूजा के पश्चात परमेश्वरी के दोनों भाई वरनारयण को चौक से उठाकर घर के भीतर लिवा लाने के लिए मौज़ूद हैं.
कम से कम साठ लोगों की बारात आयी होगी बाकि सभी घराती मिलाकर घर के चौक में लोगों का थुपड़ा लगा हुआ है. सभी में व्याकुलता है वरनारायण को मुंडी उचकाकर देखने की, रेल-पेल मची हुई है, शायद किसी कोण से वरनारायण दिख जाये.
पालकी जमीन पर बिसा दी गयी, सिर पर सेहरा और सूट-बूट पहने असामान्य कद का आदिम पालकी से बाहर निकल कर खड़ा हो गया है. किसी को समझ नहीं आ रहा था दूल्हा कहां है? क्योंकि उसका खड़ा होना दृश्य से ओझल है? ना मालूम वह पालकी के भीतर है या बाहर? भीड़ द्वारा वरनायण को देखने की विकलता का आतंक इतना गहरा है कि सभी सम्मिलित स्वर में जोर-जोर से कह रहे थे कहां है वर नारायण? अरे भई कहां है?
दरअसल औसत कद-काठी से भी बहुत छोटा परमेश्वरी का वर अग्रिम कतार के लोगों के अतिरिक्त किसी के लिए भी दृश्यमान नहीं था.
सबसे आगे खड़े हुए परमेश्वरी के दोनों किशोर भाइयों के शरीर में तो मानो काटो तो खून नहीं, कुछ अनर्थजन्य भयवश बड़े भाई ने अपने दोनों हाथों से चेहरा ढांप लिया और भीड़ को चीर के दौड़कर, एक विरान पुंगड़े में बैठकर रोने लगा. हे राम! कौन इस अनाथ, बेबस को पूछने और ढूंढने वाला है इस अजब ब्याह के गजब परिदृश्य में.
इधर-उधर से भी लोग जुटने लगे. तरह-तरह की खुसफुसाहटों से परमेश्वरी की मां का चौक भीड़-भाड़ और कोलाहल भरा मोहल्ला हो गया. भीड़ से अनेक आवाजें आ रही थीं.
“बेचारी परमेश्वरी का कपाल डाम दिया,” “ये कहां दे दिया परमेश्वरी को? कितने निर्दयी हैं ये लोग. अरे! लड़का नहीं, उसके संभ्रांत घर से ब्याह दिया बेचारी को” राम… राम कैसा अनिष्ट हो गया गाय जैसी लड़की के साथ,
परमेश्वरी की मां, अभागी विधवा औरत, अपने स्वारे-भारों पर कितना विश्वास कर बैठी थी? सोचा था कि स्वारे-भारे कोई कमी थोड़ी चाहेंगे अपने घर की बेटी के लिए, उसका अन्तर्मन अपने आप पर ही चीख रहा था, अरे गरीब हैं हम तो क्या? किसी से भी मेरी बेटी का पल्लू बांध दोगे क्या? कम से कम देह-काया से तो सामान्य होता लड़का?
गांव-कुटुंब की ही किसी बूढ़ी विधवा ने झट से परमेश्वरी की मां के मुंह पर हाथ रखा, अरे धीरे-धीरे बोल परमेश्वरी की मां! क्या कर रही हो?
बाराती सुन लेंगे. अब घर आयी हुई बरात तो लौट जाने से रही. ऐसा ना गांव में पहले कभी हुआ ना ही आगे होगा. तभी भीड़ में रास्ता बनाते हुए परमेश्वरी के ताऊजी आगे आये और तमतमाकर गंभीर स्वर में बोले, “बहू ये क्या कह रही हो तुम? बारात देख रही हो किस शान से हमारे घर पर पधारी है? धनी और संपन्नों के घर में बिहायी जा रही है हमारी बेटी. कान खोलकर सुन लो! “लड़कियों के लिए वर नहीं घर छांटे जाते हैं.”
परमेश्वरी के ताऊ जी के आगे गरीब और मजबूर मां की एक ना चली. क्या करती बेचारी? सभी वैवाहिक संस्कार विधिवत करवाकर, बेटी के क्षुण्ण भविष्य पर अश्रु सैलाब बहाती विदाई की तैयारी करने लगी. गहनों के लगन और फेरे पर समृद्ध ससुराल वालों ने परमेश्वरी को आभूषणों से लाद दिया था.
परमेश्वरी की अल्हड़ वयस कहां जानती थी अस्तित्वों का ककहरा, कहां जानती थी वह कि पेट से भूखी और विवस्त्र लड़की की आभूषणों से लदी हुई देह सोने की कलई जैसी होती है उसके वजूद पर, इसी समृद्ध जीवन की लोलुपता में कहीं विलुप्त हो जाता है वंचित स्त्रियों के अस्तित्व का सच,ऐसा सच जो बाद में उससे ना तो ढकाये बनता है ना ही उघाड़े कौन जाने? भौतिकता की परत में एक और मासूम जीवन दफन होने की तैयारी तो नहीं कर रहा था. कहां सुन पा रही थी वह अपने अदृष्ट भाग्य के अट्टाहास को? परमेश्वरी कभी अपने गले के हार और कभी अपने कर्णों के झुमकों को इतरा-इतराकर अलट-पलट रही थी. किंतु परमेश्वरी की मां को तो जैसे वर्तमान भविष्य का कुरूप आईना दिखा रहा था. वह भयाक्रांत थी बेटी के जीवन को लेकर. उसे जैसे यकीन हो चला था अपने आंसुओं के अनवरत बहने के अकाट्य सत्य पर. असंख्य प्रश्न वज्र से प्रहार कर रहे थे उसके मष्तिष्क पर. क्या युग्मजीवन का पेड़ हरहरायेगा अशक्त, जीर्ण-शीर्ण बुनियाद पर? कैसे अविचल रहेगा झूठ पर टिका हुआ दांपत्य? प्रसन्न जिस आवेग से उपजे उसी तीव्रता से अस्तित्वहीन होकर हवा में घुल गये. ख़ैर परमेश्वरी का लग्न संपन्न हो गया और वह अपने ससुराल की हो गयी. परमेश्वरी के विदा होने के बाद घर में मृत्युछाया ऐसी पसरी मानो किसी अपने का दाहसंस्कार करके, परिवार शमशान से लौटकर गमज़दा अपने-अपने आंसुओं के सैलाब भरे बिस्तर पर सो रहा हो.
एक दिन जिसकी आशंका थी. विरूपता का गहना पहने परमेश्वरी मायके की देहरी पर आ खड़ी हुई. ना श्रृंगार, ना ही कोई अलंकार. परमेश्वरी ने अपनी सास से मायके जाने के लिए जैसे ही अनुमति मांगी, सास की आशंका पर मानो परमेश्वरी के कभी वापस नहीं लौटने की मोहर लग गयी. उसके सारे जेवर उतरवाकर रख लिये थे उन्होंने. मानो ना मानो बाहर चाहे कितना भ्रामक जीवन हम जी रहे होते हैं कि सब अच्छा है, किंतु हमारा अन्त:करण हमें किसी मंगल और अनिष्ट के लिए आगाह करते ही रहते हैं. मायके क्या लौटी परमेश्वरी, वह तो मायकेवालों की ही हो गयी थी. खेत, पुंगड़े, सन्नी, गोर-भैंस सभी कार्य पहले की तरह संभाल लिये थे उसने. ना खाने की होश ना कोई श्रृंगार पिटार.
परमेश्वरी भी रूप और विन्यास में सामान्य ही थी. किंतु बाह्य चमक-दमक पर परमेश्वरी का मृदुल स्वभाव और मेहनत करने की आदत कई गुना भारी थी. झक-सफेद दन्त निपोरती वह हर किसी की मदद करने को आतुर रहती. किसी घसियारी के सिर से घास का पूला जमीन पर उतार देती. किसी की सन्नी से गाय का गोबर निकालकर उनके खेत में चट्टा लगा देती. इस बात से अनभिज्ञ कि वह उदारमना गांव के लोगों की आवश्यकता बनती जा रही थी. समय वृद्ध होता रहा गांव के लोगों ने अब उससे अपना स्वार्थ साधना शुरू कर दिया था. भाग्य का ढीठपन तो देखो! गूंगा-बहरा ही बना रहा परमेश्वरी के जीवन को संवारने के उपक्रम में. परमेश्वरी के जीवन की किताब में उसके अपने लोगों के अवसान के पन्ने तीव्रगति से खर्च होते जा रहे थे. पहले ताऊजी फिर उसकी विधवा मां और एक दिन उसका बड़ा भाई.
बड़े भाई जब जीवित थे परमेश्वरी को गांव से अपने साथ शहर लिवा लाये थे. बड़ी भौज के भी मधुमेह और उच्च रक्तचाप में दिन कट रहे थे एक दिन वह अपनी बड़ी बेटी से कह रही थी, “तेरी फुफू बहुत बीमार है आजकल बिस्तरे में ही हग-मूत रही है.” अन्न-पानी भी कम हो गया है.
बेटी ने थोड़ा झुंझलाकर कहा, “मां ससुराल त्याग दिया तो मलमूत्र भी तो मायके में ही त्यागेगी ना फूफू? और कहां जायेगी?” ध्यान रखो उनका. किंतु समय ने फिर करवट ली बड़ी भौज की बीमारी और बड़े भाई के जाने से बन आई रिक्तता ने परमेश्वरी को इस बार अपने छोटे भाई की चौखट पर पहुंचा दिया.
श्रम और मायके के भार तले दबी हुई परमेश्वरी की अर्थहीन देह कब तक चुस्त-दुरुस्त रहती. अंतोगत्वा मायके की चौखट पर वह लकवाग्रस्त होकर हाड़-मांस की गठरी बनी एक दिन परलोक सिधार गई.
परमेश्वरी की मृत्यु की खबर उसके ससुराल वालों को दे दी गयी थी. किंतु उसके ससुराल से कोई भी गंगा के घाट पर नहीं आया था उसका दाह-संस्कार करने. पंडित ने भी कह दिया कि ससुराल वालों के बिना तेरहवीं या कोई संस्कार नहीं हो सकता है. अब जो भी होगा साल भर बाद होगा वह भी उसके ससुराल वालों के हाथों से ही होगा.
पितृपक्ष लग गये हैं. परमेश्वरी के बड़े भाई का श्राद्ध है. पूरा परिवार साथ बैठकर भोजन कर रहा है.
घर की बड़ी बेटी मेधा ने पूछा, “चाचा परमेश्वरी फूफू का भी तो श्राद्ध दे रहे होंगे ना आप लोग?”
“श्राद्ध?
नहीं नहीं बेटा.
हम फूफू का श्राद्ध नहीं दे सकते?
लेकिन चाचा ऐसा क्यों?
“दरअसल पंडित जी ने कहा है कि परमेश्वरी दूसरे घर की थी और हम फूफू का जो भी कर्म-संस्कार करेंगे वह उसको नहीं लगेगा.”
इसी कारण उसकी तेरहवीं भी नहीं हो पायी थी. अब यदि उसके ससुराल वाले सहमत हुए तो बरसी ही होगी.
मेधा ने व्याकुल होकर पूछा, चाचाजी फूफू का तो अपने ससुराल से कोई संबंध ही नहीं था. वह तो जवान और बूढ़ी दोनों ही मायके में ही हुई फिर ससुराल होने या नहीं होने से अब फुफू का क्या सरोकार?
चाचाजी ने क्षोभ में भरकर कहा, “यही तो ससुराल में खाती-कमाती स्त्रियों का सुयोग और मायके में मरती-खपती स्त्रीयों का दुर्योग है.”
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परमेश्वरी की मृत्यु को एक साल होने को आया है उसके छोटे भाई को उसके मृत्यु-कर्म को निभाने की चिंता सताने लगी है. इस बार उसने स्वयं परमेश्वरी के ससुराल जाने की ठानी है परमेश्वरी के क्रियाकर्म को यथोचित करवाने हेतु. किंतु प्रसन्नी के जेठ ने उससे रूखा सा व्यवहार किया यह कहकर कि कौन परमेश्वरी? किसकी परमेश्वरी? हम नहीं जानते हैं किसी परमेश्वरी को. अरे भाई! जब ताउम्र कोई रिश्ता नहीं रहा परमेश्वरी से तो उसकी मृत्यु पर आकर निभाने जैसी कैसी लालसा पाल रहे हैं आप लोग?”
परमेश्वरी के छोटे भाई ने बड़ी विनम्रता से कहा, “संबंध-विच्छेद भी तो नहीं हुआ है उसका अपने पति से, अभी तक रिश्ता तो है ना उसका आप सब लोगों से?” तो इस नाते से वह आपके घर की ही हुई ? धर्म तो यही कहता है कि उसकी मुक्ति के लिए मार्ग आप लोगों को ही प्रशस्त करना चाहिए. यह सुनकर परमेश्वरी के जेठ मौन रहे. कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया. संभवतः नैतिकता, धर्म और विवेक उनके अधरों पर दृढ़तापूर्वक बैठ गया था. आवाज़ नहीं हुई किंतु समय ने अपनी चाल-ढाल बदली, सत्कर्म से शुभ प्रारब्ध निर्मित हुआ और परमेश्वरी के ससुराल वालों ने गंगा के घाट पर परमेश्वरी का क्रियाकर्म संपन्न करवा दिया. मृत्युपरांत परमेश्वरी की यह सुखद परिणति विधाता द्वारा सुनिश्चित ही थी, हो भी क्यों नहीं? परमेश्वरी ने अपना समुचित जीवन अपने भाई-भतीजियों की हास-मलास और गांव के निरीह लोगों की सेवा-सुश्रुषा में लगा दिया था तभी तो हठीला मोक्ष तमाम ना-नुकुर के बावजूद भी मृत्युपरांत उसकी झोली में आ ही गिरा.
अभी कुछ दिन पहले परमेश्वरी के छोटे भाई को उसके जेठ ने प्रसन्न होकर फोन पर बताया कि जबसे हमने परमेश्वरी का मृत्यु-संस्कार किया है.” सौभाग्य के स्वर्ण फूल झड़ने लगे हैं हमारी बेरंग देहरी पर. परमेश्वरी का बीमार पति जो चलने-फिरने में असमर्थ था अब चलने लगा है. मेरी बेटी का लगन कहीं जुड़ नहीं पा रहा था, तुरंत ही जुड़ गया है. हर तरफ सुख और हर्ष की सुगंधित बयार बह रही है हमारे घर में, हम परमेश्वरी का बड़ा श्राद्ध कर रहे हैं.
परमेश्वरी के मायके और ससुराल में कर्तव्य, संस्कार और रिश्तों के प्रति प्रतिबद्धता के सफल निर्वहन की प्रसन्नचित नदी बहने लगी है.
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दोनों पक्ष आश्वस्त हैं कि परमेश्वरी को आख़िरकार मुक्ति मिल ही गयी. किंतु मोक्ष के बारे में यदि आकाश और पाताल सोचा जाये तो यह विडंबना ही है कि मायके वापस आकर बैठ गयी अभागी स्त्रियों के लिए उनके जन्मदाताओं ने रोटी-कपड़ा, ठांव की व्यवस्था तो कर दी किंतु मृत्यपरांत जो सम्मान एवं संस्कार का अधिकार सुहागन स्त्रियों के हिस्से आता है, वह सब कुछ स्वेच्छा या परेक्षा से अपना घर छोड़ कर आयी स्त्रियों को दिलाने में मायके वाले अक्षम ही रहते हैं. हमारे रूधिर में शास्त्र सम्मत संस्कारों की जड़ें इतनी दृढ व सघन हैं कि मोक्ष अलभ्य ही है उन स्त्रियों के लिए जब तक पति या ससुराल वालों के हाथों उनका यथोचित क्रियाकर्म नहीं होता है. यदि इंसान के अच्छे और बुरे कर्मों के आधार पर ही उसके लिए मोक्ष का द्वार निश्चित है तो परमेश्वरी जैसी उदारमना जिन्होंने ना जाने किस भंवरजाल को तोड़कर या उससे निकलकर या तो परित्यकता हो गयीं या स्वेच्छा से परित्याग कर दिया, उनके अच्छे कर्मों की परिणति मोक्ष क्यों नहीं है?
समाज बदल गया है, इंसान बदल गया है विकास और विन्यास के पथ पर चलकर किंतु ऐसा क्यों है कि कठोर सामाजिक वृत के भीतर गोल-गोल घूमती हुई धुंआ-धुंआ सी ही है स्त्रियों की ज़िंदगी. यदि उनकी ज़िदगी धुंआ-धुंआ सी नहीं होती तो विषाक्त विचार, मिथ्याओं और अंधविश्वास के दमघोंटू धुएं में वे धू-धू नहीं जल रही होती. स्त्रियों के धुंए वाले जीवन की एक परत को हम आंखों से हटाते नहीं कि दूसरी धुंए वाली तस्वीर आंखों के सामने तैर जाती है. धुंआ है कि, हटता ही नहीं है. पाप-पुण्य, अच्छे कर्म, बुरे कर्म, यश और अपयश पर निर्भर होता है अभागी स्त्रियों के लिए मोक्ष का रास्ता.
परमेश्वरी जैसी कर्मठ स्त्री ने कर्म का हल चलाकर ही मायके में गुजर-बसर किया तो कर्म उसको मोक्ष की सीढ़ी क्यों ना चढ़ा सका? संभवतः पूर्व जन्म के बुरे कर्मों का फल?
मोक्ष के लिए सीढ़ी यदि विवाहिताओं के लिए उनके ससुराल की देहरी पर लगी है तो उन विप्रलम्भ अभागनों के लिए मोक्ष की सीढ़ी मायके के चौक पर क्यों नहीं जो अविवाहित जीवन जीकर मायके की चौखट पर ही मर-खप गयीं.
विडंबना ही तो है! जीवन एक ही मिलता है स्त्रियों को भी किंतु वह भी बंटा हुआ. पूर्वजन्म के कर्मों के फल पर आधारित भावी जन्म की नींव रखता हुआ, बहुत उलझा हुआ भी.
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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