हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक जलस्त्रोत सूख रहे हैं, मौसम चक्र में निरंतर बदलाव हो रहा है, तमाम वनस्पतियां विलुप्त होने के कगार पर हैं. परिस्थितिकी में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, भूस्खलन और बाढ़ की घटनाओं में भी इजाफा हो रहा है. यह सब इसके संकेत है कि हिमालय संकट में है. आज हालत यह है कि उत्तराखंड से लेकर अरुणाचल तक तकरीबन एक हजार से अधिक बांध हिमालय क्षेत्रों में बन रहे हैं. पर्यटन और उद्योग के नाम पर अनियोजित विकास हो रहा है. बडे बांध तो चुनौती बने ही हैं, हिमालय की जैव विविधता पर भी खतरे का संकट मंडरा रहा है. इन बदलावों से सिर्फ प्रकृति ही नहीं, समाज भी प्रभावित हो रहा है. निसंदेह हिमालय खतरे में है, हिमालय को बचाया जाना भी जरूरी है. लेकिन अहम सवाल यह है कि यह बचेगा कैसे, कौन बचायेगा इसे ?
आज सबसे बडा खतरा तो हिमालय को उसकी चिंता करने वाले उन ठेकेदारों से है. जिन्होंने हिमालय की चिंता को आज महज हिमालय दिवस के आयोजनों तक समेट कर रख दिया है. हिमालय के प्रति ये ठेकेदार ही अगर ईमानदार होते तो कम से कम उत्तराखंड में आज हिमालय दिवस के मौके पर पंचेश्वर बांध पर बात हो रही होती, आल वेदर रोड से होने जा रहे नुक्सान का आंकलन किया जाता. सरकार को इससे हिमालय को होने वाले नुकसान के प्रति आगाह किया जा रहा होता. बांध के विरोध में उठने वाले सुरों को इस मौके पर मजबूती दी जाती. आखिर यह कैसे हो सकता है कि एक ओर हिमालय को लेकर चिंता जताई जाए और दूसरी ओर बड़े बांधों और बड़ी परियोजनाओं से होने वाले नुकसान पर मौन साध लिया जाए. हिमालय दिवस के मौके पर पंचेश्वर का जिक्र न होना अपने आप में आश्चर्यजनक है. यह साबित करता है कि हिमालय को इतना खतरा अनियोजित विकास और बांधों से नहीं बलि्क ठेकेदारों से हैं, जो समाजसेवी और पर्यावरणिवद बन हिमालय के नाम पर अपनी दुकाने चमकाने में लगे हैं.
हिमालय सिर्फ उत्तराखंड के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिये बेहद अहम है. इसकी अहमियत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश के कुल् क्षेत्रफल का 16 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र हिमालय में फैला है. यहां से निकलने वाली गंगा, सिंधु और ब्रहमपुत्र देश को 60 प्रतिशत पानी की आपूर्ति करती है. एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हिमालय को एशिया ‘वाटर टॉवर’ कहा जाता है, यहां से निकलने वाली 12 नदियों से साल भर में लगभग 1275 अरब घन मीटर पानी बहता है. यही नहीं, हिमालय शुद्ध ऑक्सीजन ओर जड़ी बूटियों का भी भंडार है. सामरिक लिहाज से देखें तो अफगानिस्तान, पकिस्तान, भूटान, नेपाल, प्यांमार देश की सीमाओं से लगा होने के कारण हिमालय भारत के लिए रक्षक की भूमिका में भी है. भारत में उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर, नागालैँड, मणिपुर, सक्किम, अरुणांचल, मिरोजम, त्रिपुरा, आसोम ओर मेघालय राज्य प्रमुख हिमालयी राज्यों में है. एक आकलन के मुताबिक हिमालयी राज्यों से देश को 943 बिलियन की इको सिस्टम सर्विसेज मिलती है.
दरअसल हिमालय को समझने में कही न कहीं चूक हो रही है. आधिकारिक शोध संस्थाएं भी हिमालय पर बढ़ते खतरे को लेकर आगाह कर ही रहे हैं, लेकिन सार्थक नतीजों का अभी इंतजार है. हिमालय राज्य चिंता में है। दिक्कत यह है कि राज्यों के पास संवैधानिक अधिकार ही नहीं हैं कि वह इसके लिए कोई नीति विशेष तैयार कर सकें. केंद्र में इन राज्यों की चिंता की कोई खास सुनवाई ही नहीं है. ससंद में हिमालयी राज्यों के कुल सांसदों की संख्या चालीस से ऊपर है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज तक इन सांसदों ने एकजुट होकर संसद में हिमालय का मुददा नहीं उठाया. रहा सवाल एनजीओ का, उनकी पूरी चिंता सिर्फ प्रोजेक्ट और एवार्डों के इर्द गिर्द ही सिमटी होती है.अब तो कुछ सालों से हिमालय दिवस भी मनाया जाने लगा है, हिमालय की चिंता के नाम पर मोटा सरकारी बजट ठिकाने लगाया जा रहा है. इस दिन हिमालय के ठेकेदारों द्वारा सितारा होटलों में हिमालय की चिंता की जाती है. इन आयोजनों में फोटो सेशन चलते हैं, व्याख्यान मालाएं होती हैं जिनमे तमाम नामचीन खुद को हिमालय का सबसे बडा शुभिचंतक साबित करते हैं. इस दौरान वही पुराना राग अलापा जाता है कि हिमालय के लिए सरकार अलग नीति बनाए, अलग से प्राधिकरण गठित किया जाए आदि आदि. यह मांगें उठाकर कुछ खुद को बड़ा चिंतक ओर विचारक होने का भ्रम पाल रहे हैं, तो कोई पर्यावरणविद् होने का तमगा हासिल कर रहा है. इसमें भी कोई शंका नहीं कि इसी नाम पर कोई संस्था बड़ा प्रोजेक्ट हथिया ले.
अब कौन यह समझाए कि हिमालय दिवस की सार्थकता तो तब होती है, जब इस मौके पर कोई ठोस पहल होती. सिर्फ सरकारों को कोस लेने या सरकारी योजनाओं का बखान भर कर लेने से बात नहीं बनती. क्या सरकारी नीति के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं, जो खुद किया जा सकता हो ? हकीकत यह है कि हिमालय न किसी एक प्रदेश का है ओर न ही किसी वर्ग विशेष का यह तो सबका है, इस लिहाजा से इसको बचाने की जिम्मेदारी भी सभी की है. हिमालय के ठेकेदारों को हिमालय की चिंता होती तो इस पर्यावरण दिवस पर पंचेश्वर बांध मुद्दा बना होता. सिर्फ चिंता करने और कोरे संकल्प लेने के बजाय समाधान पर भी बात होती. कम से कम इतना संदेश तो प्रसारित किया ही जा सकता था कि हिमालयी क्षेत्रों में निर्माण कार्य के लिए भारी विस्फोट न करें, बडे बांध न बनाएं जाएं, पारिस्थितकी के अनुकूल उद्योग ओर उद्यम स्थापित किये जाएं. नदियों के तटबंध ओर रिहायशी इलाकों में खनन न किया जाए. भूकंपरोधी भवनों का निर्माण हो और अधिक से अधिक जैविक खेती की जाए. अपने आस पड़ोस और इलाके के जलस्त्रोतों की देखभाल करें. हिमालयी क्षेत्रों में आएं तो प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनकर आएं. इतना ही नहीं आने वाले पीढ़ी को हिमालय के महत्व को समझाएं, ताकि वह शुरुआत से ही उसके प्रति संवेदनशील रहे.
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