Featured

संतोषी माता का दिन और लालची मीटखोर

हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 7

(पिछली कड़ियां :
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 1 बागेश्वर से लीती और लीती से घुघुतीघोल
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 2 गोगिना से आगे रामगंगा नदी को रस्सी से पार करना और थाला बुग्याल
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 3 चफुवा की परियां और नूडल्स का हलवा
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 4 परियों के ठहरने की जगह हुई नंदा कुंड
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 5 बिना अनुभव के इस रास्ते में जाना तो साक्षात मौत ही हुई
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 6 कफनी ग्लेशियर की तरफ)

हिमालयी क्षेत्र की यह सुबह भी वास्तव में बहुत खुशनुमा थी. हमने चाय पी और कफनी की ओर चल पड़े. समय का भी ध्यान रखना था. कफनी ग्लेशियर की ओर जाते हुए महसूस हो रहा था कि ये तो रेगिस्तान की मृग मरीचिका की तरह था. हम जितना उसके पास जाते, वह हमसे उतना ही दूर होता चला जाता. चलते-चलते एक घंटा हो गया था और ग्लेशियर पास नहीं आ रहा था. लीडर के भय से वापस लौटने को मजबूर हो गये. लौटे तो लीडर खाना बनाने की जुगत में लगे थे. इस बीच लड़कियों ने अन्वालों से पूछा कि, ‘आज कौन सा दिन है ?’ अनवालों ने जब उन्हें बताया कि आज शुक्रवार है तो उनके चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगी. (Himalayan Trekking Keshav Bhatt)

उनके चेहरों के उतरते-चढ़ते भावों को देख हमें हंसी आ ही गई. रात के उनके हिस्से का बचा मीट हम सबमें बंट गया. लड़कियों को खिचड़ी में ही ‘संतोष’ करना पड़ा. न जाने क्यों उस वक्त वह खाना बहुत ही स्वादिष्ट लगा था. मैं जल्द ही अपने खाने से निपट गया, लेकिन भूख अभी भी थी. मेरा मित्र उमा शंकर अपनी प्लेट में बचे आखिरी टुकड़े को नोच रहा था. मेरी नीयत उस टुकड़े में थी तो मैंने उसे इशारा कर कहा कि, ‘अहा! देखो क्या नजारा है सामने !’ उसका ध्यान उस ओर गया तो मैंने उसके हाथ से झूठे टुकड़े को छीन पल भर में ही साफ कर लिया. वह भुनभुनाया भी, लेकिन फिर हंसने लगा.

मौसम खुशनुमा था. कफनी की ये घाटी काफी फैलाव लिए हुए है. आज के पड़ाव का कुछ भी निश्चित नहीं था. आगे द्वाली भी रुक सकते हैं या फिर सीधे खाती गांव में पहुंचना. तंबू—सामान लपेटना शुरू हुआ. आधे घंटे में हम सब चलने के लिए तैयार थे. द्वाली यहां से पांचेक किलोमीटर दूर था. मीठा उतार था तो सभी की चाल में भी तेजी आ गई थी. दोपहर तक हम द्वाली पहुंचे तो नीचे देखा कि पिंडर में बना पुल गायब था. कफनी और पिंडर नदी के संगम में दोनों नदियां गुर्रा रही थी. पता चला कि दो दिन पहले बारिश में पिंडर इस पुल को अपने साथ ले गई. पुल बह जाने से द्ववाली में कुछ टूरिस्ट भी फंसे थे. (Himalayan Trekking Keshav Bhatt)

हमारे टीम लीडर राजदा ने भगतदा के साथ नीचे जाकर जायजा लिया और रस्सियां लेकर चल पड़े पिंडर नदी में रस्सी का पुल बनाने. हम भी नीचे गए तो देखा कि भगतदा के जाबांज पोर्टर नदी के किनारों पर गिरे—पड़े—अटके कुछ लंबे पेड़ों को नीचे की ओर खींचकर ले जा रहे हैं. हम भी उनकी मदद करने में जुट गए. पेड़ के एक लंबे तने को रस्सी से बांधकर पहले खड़ा किया गया और फिर पिंडर नदी के पार उसे धीरे—धीरे डालकर बिठाया गया. फिर दूसरे पेड़ को भी उसका हमसफर बना दिया गया.

दो पेड़ों का जोड़ा बना तो भगतदा ने अपने कमर में एक रस्सी लपेटी और सावधानी से किसी सर्कस के कलाकार की तरह उनमें सवार हो पार पहुंच गए. वहां उन्होंने रस्सी के सिरे को बड़े से बोल्डर में बांध दिया. यहां से राजदा ने भी रस्सी को उंचे बोल्डर में बांध दिया. अब हमारा रस्सी का पुल बनके तैयार हो गया था. एक—एक करके सभी ने पिंडर को पार किया. बाहर से आए टूरिस्टों को भी नदी पार कराई तो वो खुशी से हम सबके गले मिल लिए. पिंडर को पार करने में छिटपुट अंधेरा घिर आया था. पिट्ठू कांधों में डाल पिंडर के किनारे चट्टानी संकरे से रास्ते में सावधानी से चलना शुरू किया.

आज खाती तो पहुंचना संभव नहीं लग रहा था. आगे रास्ता चौड़ा और समतल था तो सभी की चाल में तेजी आ गई. एक जगह से रास्ता उतार लिए फिर पिंडर नदी के किनारे पर ले आया. यहां पुल उंचाई पर बने होने की वजह से साबुत दिखा तो झटपट उसे पार कर लिया. ये जगह मलियाधौड़ थी. सात बज गए थे तो लीडर ने यहीं पड़ाव डालने के लिए कह दिया. यहां पीडब्लूडी का एक कमरे वाला बसेरा दिखा तो उसी के अंदर जाकर देखा. किसी जमाने में एक कमरे वाला यह बंगला काफी अच्छा रहा होगा लेकिन अब इसकी हालत थोड़ी नाजुक सी दिख रही थी. कमरे के अंदर के तख्त और छत ठीक ही दिखे तो उसी में अपने—अपने मैट्रस बिछा दिए.

भगददा और उनकी टीम ने बगल के दो छानों में अपना बसेरा जमा लिया था. इन छानों में एक परिवार यहां कुछ महीनों के लिए रिंगाल के महौटे बनाने के लिए रूक जाता था. एक झोपड़ी में रिंगाल और महौटे का सामान और दूसरी में अपना बसेरा हुआ.

(जारी)

वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

 

बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

भू कानून : उत्तराखण्ड की अस्मिता से खिलवाड़

उत्तराखण्ड में जमीनों के अंधाधुंध खरीद फरोख्त पर लगाम लगाने और यहॉ के मूल निवासियों…

15 hours ago

यायावर की यादें : लेखक की अपनी यादों के भावनापूर्ण सिलसिले

देवेन्द्र मेवाड़ी साहित्य की दुनिया में मेरा पहला प्यार था. दुर्भाग्य से हममें से कोई…

16 hours ago

कलबिष्ट : खसिया कुलदेवता

किताब की पैकिंग खुली तो आकर्षक सा मुखपन्ना था, नीले से पहाड़ पर सफेदी के…

3 days ago

खाम स्टेट और ब्रिटिश काल का कोटद्वार

गढ़वाल का प्रवेश द्वार और वर्तमान कोटद्वार-भाबर क्षेत्र 1900 के आसपास खाम स्टेट में आता…

3 days ago

अनास्था : एक कहानी ऐसी भी

भावनाएं हैं पर सामर्थ्य नहीं. भादों का मौसम आसमान आधा बादलों से घिरा है बादलों…

4 days ago

जंगली बेर वाली लड़की ‘शायद’ पुष्पा

मुझे याद है जब मैं सातवीं कक्षा में थी. तब मेरी क्लास में एक लड़की…

4 days ago