हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 6
(पिछली कड़ियां :
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 1 बागेश्वर से लीती और लीती से घुघुतीघोल
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 2 गोगिना से आगे रामगंगा नदी को रस्सी से पार करना और थाला बुग्याल
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 3 चफुवा की परियां और नूडल्स का हलवा
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 4 परियों के ठहरने की जगह हुई नंदा कुंड
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 5 बिना अनुभव के इस रास्ते में जाना तो साक्षात मौत ही हुई)
घंटे भर बाद बुग्याल का उतार खत्म हुआ तो तिरछा हल्की चढ़ाई वाला रास्ता बाहें फैलाए दिख रहा था. सामने सुदमखान दिख रहा था. आज यहीं पड़ाव डालना था. (Himalayan Trekking Keshav Bhatt)
सुदमखान पहुंचने तक अंधेरा घिर आया था. खाना बनने के बीच में तंबू से बाहर आकर देखा तो अनगिनत तारों से घिरे आसमान और चांद की रोशनी में दमकते हिमालय ने सारी थकान मिटा दी. काफी देर तक चुपचाप सा उन्हें निहारता ही रहा. तंबू में आज बुग्याल में भटक जाने के किस्सों की भरमार थी. हर किसी के पास अपने अनुभव थे जो कि वो बांचने में लगे थे. (Himalayan Trekking Keshav Bhatt)
सुबह बाहर निकल देखा तो दूर तक एक दूसरे से ऊपर होने की जैसी होड़ करते हुए बुग्यालों का सिलसिलेवार कारवां दिखा. याद आ रहा था कि कल इन बुग्याली दर्रों को पार करने का अलग ही रोमांचक, डरावना अनुभव हर किसी का रहा था.
आज कफनी ग्लेशियर से पहले सलग्वार में पड़ाव था. सामान बांधने की तैयारी के साथ ही बाहर खाना भी बन रहा था. अचानक ही ऊपर की ओर कुछ बड़े पक्षी जैसे दिखे. शायद ये मृगमरीचिका ही होगी, अब शतुरमुर्ग तो हिमालय में ठंड खाने के लिए आने से रहा. हल्के कोहरे में उनकी हलचल सभी ने देख ली थी, लेकिन सब अपने काम में लगे रहे. साथी उमा शंकर और मुझमें जोश जैसा कुछ आया तो हमने लीडर से इजाजत मांगी. इस पर भगतदा ने हंसते हुए कहा, ‘ये देवभूमि है यहां दंबूक हो या बंदूक कुछ भी काम नहीं करती है…’
स्टोव में पानी उबल रहा था उसे किनारे कर हमने उसमें खाली डेग रखा और उसके गर्म होने पर दोएक कारतूस उसमें डाल गर्म करना शुरू कर दिया. डर भी लग रहा था कि कहीं ये अचानक फट न जाएं. हमारी करतूतों से बेख्याल हो सभी अपने कामों में जुटे रहे. कुछ देर गर्म होने का अनुमान लगा हम दोनों अंग्रेजों के जमाने की दंबूक ले उंचाई की ओर किसी अनाड़ी शिकारी की तरह दौड़ पड़े. छुपते—छुपाते हम अपने आपको महान शिकारी जिम कार्बेट से कम नहीं आंक रहे थे. कोहरा बढ़ने लगा था. हम आधा किलोमीटर ऊपर तक चले गए थे. सामने कुछ दिखा तो आड़ लेकर निशाना साध ट्रिगर दबाया. धांय के बजाय खट की ही आवाज हुवी. गोली बदल फिर ट्रिगर दबाया. आवाज वही… खट…!
अब हम आड़ से बाहर आ उन्हें ललकारने लगे. और कोहरे में वो मजे से डांस करते हुए से ओझल हो गए.
नीचे वापस आने पर हमें देख सब मुस्कुरा रहे थे. भोजन कर सामान पीठ में लाद लिया. भगतदा और उनकी टीम दाल—भात खा चुकी थी. आगे नंदा नियार की रेंज तक तीखी चढ़ाई थी. कुछ दूर जाने पर पता चला कि हमारे साथ की दीप्ति अपना कुछ सामान नीचे भूल गई थी जिसे लीडर अपने साथ ले आए थे. लेकिन सजा के तौर पर उसे खाली हाथ नीचे जाकर वापस आने को कहा गया. वो नीचे को जाने वक्त सुबकने लगी तो हीरा ने उसे ढांढस बंधाना शुरू किया. वो और जोर से रोने लगी. लेकिन आर्डर का उसने पालन किया. वापस आने पर उसे राजदा ने मजेदार किस्सा सुनाया गया तो उसका गुस्सा काफूर हो चुका था.
घंटे भर की चढ़ाई के बाद अब हम नंदा नियार के रेंज में थे. रास्ता अब तिरछा और हल्का उतार—चढ़ाव लिये था. तीनेक घंटे चलने के बाद एक जगह से अब तीखे ढलान में नीचे को उतरना था. रास्ता बना नहीं था. खुद ही अपने हिसाब से चलना था. हमारी टेढ़ी—मेढ़ी चाल को देख हीरा ने गुनगुना शुरू कर दिया, ‘तौबा ये मतवाली चाल… झुक जाए फूलों की डाल…’
किस्से—कहानियों में उतार खत्म हो ही गया तो कफनी नदी के किनारे सलग्वार में एक मैदान में तंबू तान दिए. भगतदा ने बताया कि, कफनी नदी में अनवालों का पैदल पुल बह गया है.
कफनी के इस पार आज तंबू में माहौल खुशनुमा था. लगभग सोलह हजार फीट तक की उंचाई लिए दर्रों को हमारे दल ने पार जो कर लिया था. रोटी—दाल के साथ थोड़ा सा भात भी बना, जो मजेदार और स्वादिष्ट लगा.
सुबह पिट्ठू कांधों में लाद नीचे कफनी नदी की ओर चले. घंटेभर बाद हम कफनी नदी के किनारे पर खड़े थे. नदी का फैलाव ज्यादा तो नहीं दिख रहा था, लेकिन भयानक गर्जना कर बहती उस नदी का रौद्र रूप देख अंदर कहीं एक अजीब सी सिहरन उठ रही थी. नदी को पार करना असंभव जैसा लग रहा था. पचासेक मीटर ऊपर—नीचे खोज करने के बाद एक जगह पर भगतदा ने उंची आवाज में कहा कि, ‘यहीं से सही रहेगा.’
लेकिन वहां पर भी कफनी की गर्जना कम नहीं थी. मैं चुपचाप नदी को देख ही रहा था कि अचानक ही भगतदा की टीम के दो बांके जवान लंबे से लट्ठ के साथ कफनी नदी में उतर गए. जब तक कुछ समझ आता, वो कूदते—फांदते नदी के पार हो गए. मैं मुंह फाड़े उन्हें बस देखता ही रह गया. राजदा ने रस्सी का एक सिरा पार फेंका, जो कि तीनेक बार की कोशिश में नदी के पार चली ही गई. उन्होंने अपने हिसाब से रस्सी को पार एक बड़े बोल्डर में लपेट के बांध दिया गया. नदी की इस ओर से राजदा ने रस्सी को टेक्निकल ढंग से बड़े से पत्थर में बांध दिया. रस्सी का पुल बन के तैयार हो चुका था. एक—एक करके हम पार हुए, फिर सामान आया और अंत में राजदा ने कफनी को पार किया तो रस्सी खींच ली गई.
नदी को पार करने में तीनेक घंटे का वक्त लग गया था. जहां से हमने कफनी नदी पार की थी वहां से कफनी ग्लेशियर तकरीबन पांचेक किलोमीटर ऊपर था. नीचे की ओर खटिया के पास आज पड़ाव डाल लिया गया.
यहां बुग्याल में भेड़-बकरी वाले चरवाहे अन्वालों ने भी अपनी हजारों भेड़ों के साथ डेरा डाला हुआ था. उन्हीं की बगल में हमने भी अपने तंबू तान दिए. हिमालयी क्षेत्र में ठंड बढ़ने के साथ ही अन्वाल भी धीरे-धीरे निचले इलाकों को उतरते चले जाते हैं. आज अन्वालों का मन शिकार का हुआ तो उन्होंने एक भेड़ शहीद कर दी. उन्होंने हमसे भी पूछा तो हमारे लीडर दोएक किलो मीट ले आए.
हमारे इस गुप में चार लड़कियां भी थीं. खाना बनना शुरू हुआ तो लड़कियों में खुसर-पुसर होने लगी. पता चला कि वे शुक्रवार को ‘संतोषी माता’ का व्रत रखती हैं और क्योंकि आज शुक्रवार है, तो उन्होंने एलान कर दिया कि, वो आज मांसाहारी भोजन से दूर रहेंगी और उनके हिस्से का बचा दिया जाए. वे अगले दिन इसकी पार्टी करेंगी. इस पर उनके लिए आलू-न्यूट्रीला बना दिया गया. हम सबने मजे से चटखारे लेकर खाने का लुत्फ लिया. सोने से पहले सुबह हमने कफनी ग्लेशियर को पास से देखने का प्लान बनाया तो लीडर ने दो घंटे हमें दिए. भेड़ों के रखवाले भोटिया श्वान रात भर गुर्राते हुए अपने होने का एहसास करा रहे थे.
(जारी)
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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