हिमालय के बारे में मैंने बड़े नाटकीय अंदाज़ में जाना. हिमालय के बीच ही पैदा हुआ था, इसलिए उसके बारे में अलग से जानने की, खासकर किताबी ढंग से जानने की इच्छा का दबाव कभी नहीं बना. शुरुआत गाँव के स्कूल से की थी, संभव है मेरे गुरूजी ने खुद ही ‘कुमार संभव’ नहीं पढ़ा होगा, वो भला कैसे हमें हिमालय के उस व्यापक फलक के बारे बता सकते थे जो उत्तर दिशा में पृथ्वी के मानदंड के रूप में अनंत काल से खड़ा है. अलबत्ता छठी-सातवीं कक्षा में दिनकर की कविता ‘मेरे नगपति, मेरे विशाल’ कोर्स में थी, जिसे गुरूजी ने भाव-विभोर होकर हमें पढ़ाया था. बाहरी हिमालय को लेकर पैदा हुआ वह मेरा पहला प्यार था, हालाँकि मैं उन दिनों भी उसे अपने घर के हिमालय से बड़ा दर्जा देने के लिए तैयार नहीं था. शायद उन दिनों भी सोचता रहा होऊंगा कि मैं तो सिर से पाँव तक हिमालय से ढका हुआ हूँ, हिमालय का कोई टुकड़ा उसका स्थानापन्न कैसे हो सकता है?
(Himalaya Article by Batrohi)
साहित्य की दुनिया का हिस्सा बना तो हिमालय के एक नए रूप से मेरा परिचय हुआ जिसे ठेले पर बैठाकर बोनसाई-शक्ल में उसका तिजारती इस्तेमाल किया जा रहा था. भारतीजी का यह यात्रा-वृतांत बेहद लोकप्रिय हुआ था क्योंकि इसे आसानी से अपनी बैठक और स्टडी में स्थापित कर हर पल उसके साथ जुड़े रहने का अहसास पाला जा सकता था. खास बात यह कि इस परिचय के बाद हिमालय मूल के असंख्य लोग साहित्य की दुनिया में आए, मगर याद नहीं पड़ता कि किसी ने अपने हिमालय को कालिदास के ‘कुमार संभव’ की तरह अपने लेखन में उतारा हो. पहली बार नागनाथ पोखरी का चंद्रकुंवर बर्त्वाल एक आंधी की तरह प्रकट हुआ, लेकिन वह टिका ही कितने दिन तक रह सका था? हालाँकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कितने दिन तक हमारे साथ रहा, मगर यह देखकर जरूर हैरानी होती है कि उसकी छोटी-सी उपस्थिति को बाद में किसी ने उसे उस रूप में याद नहीं किया, जिसका वह हक़दार था.
हिमालय के लोगों को पहली बार अपने साथ लेकर आया कथाकार शैलेश मटियानी, जो देखते-देखते मिथक की तरह साहित्य की दुनिया में छा गया. उस प्रवेश के बाद शायद ही उनका कोई समकालीन और परवर्ती लेखक उनका नोटिस लिए बगैर आगे बढ़ पाया हो. अपने उत्तरार्द्ध में वो खुद भी अपनी जमीन से विस्थापित-से दिखाई देते हैं, हालाँकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि तब तक वह अपना अनुकरणीय दे चुके थे. फर्क शायद इसलिए भी नहीं पड़ा क्योंकि आजादी के दो-तीन दशकों के बाद समाज के बीच से साहित्य की जमीन धीरे-धीरे सिकुड़ती चली गई थी. ऐसा पूरे हिंदी समाज में हो रहा था हिमालय के लोग कैसे बचे रह सकते थे?
“आज हिमाल तुमन कें धत्यूछ, जागो-जागो हो मेरा लाल” यह गीत गिर्दा ने 28 नवम्बर 1977 को पहली बार नैनीताल में गाया था, जब वहां शैले हॉल में चल रही जंगलों की नीलामी का आन्दोलनकारियों द्वारा विरोध किया जा रहा था. मूलतः यह कुमाऊनी कवि गौरीदत्त पांडे ‘गौर्दा’ की 1926 में लिखी ‘वृक्षन को विलाप’ कविता है, जिसमें एक वृक्ष मनुष्य से निवेदन करता है कि वह मनुष्य को इतना कुछ देकर उस पर उपकार कर रहा है, अतः मनुष्य भी उस पर अत्याचार न करे.
(Himalaya Article by Batrohi)
“वन आन्दोलन और नशा नहीं रोजगार दो आदि तमाम आंदोलनों में गिर्दा द्वारा लगातार संशोधित किये जाने और इसमें नए-नए छंद जोड़कर सड़कों पर गाए जाने से यह सम्पूर्ण हिमालयी समाज का आत्मनिवेदन बन गया.
“इसके मुखड़े का आशय है कि आज हिमालय तुम्हें जगा रहा है कि मेरे लाड़लो जागो, मेरी नीलामी मत होने दो, मेरा हलाल मत होने दो. यह मूलतः संघर्ष का गीत है जिसमें सर्वशक्तिमान हिमालय प्रमाद में पड़ी अपनी संतानों को झकझोर रहा है. यहाँ कहीं पर हिमालय गिड़गिड़ाता नहीं दीखता है, वह कमजोर नहीं पड़ता.”
–हिमालय दिवस पर शमशेर सिंह बिष्ट
कंप्यूटर ख़राब हो गया था और मैं अपने गाँव फतेहपुर के घर में लाचार हालत में बैठा था. मुझे कंप्यूटर की अधिक जानकारी नहीं है, फतेहपुर, कठघरिया और ऊँचापुल की कुछ दुकानों से किसी तरह संपर्क किया लेकिन उसके आगे जाने में खतरा था. पुलिस वाले किसी भी हालत में मदद करने के लिए तैयार नहीं थे. चोरी-छिपे किसी तरह ऊँचापुल के एक मैकेनिक से संपर्क हो पाया मगर बात उससे भी नहीं बनी. बेचारा लम्बे समय तक कोशिश करता रहा, कठघरिया, कुसुमखेड़ा और हल्द्वानी के कुछ दोस्तों से उसने अपने मोबाइल पर बातें भी कीं, मगर कोई समाधान निकल नहीं पा रहा था. देर तक अलग-अलग ढंग से उसने कोशिश की पर बात फिर भी नहीं बन पाई.
जब हाथ-पाँव छोड़ दिए, मैकेनिक ने कहा, ‘एक ही तरीका है. हल्द्वानी की सबसे अच्छी दुकान दुर्गा सिटी सेंटर में है, डिग्री कॉलेज के ठीक पीछे. किसी तरीके से आप वहां संपर्क कर सकते हो तो आपका काम बन जायेगा.’ उसने सेंटर का नंबर मुझे दिया, ‘वहां एक होशियार लड़का है, उससे कहना कि मैंने भेजा है. मिल गया तो आपका काम पक्का बन जायेगा.’
जहाँ चाह, वहां राह. पहले ही दिन कर्फ्यू में ढील दी गई थी. भाग्य से अगले दिन टेम्पो ले जाने की इजाज़त मिल गई. लैपटॉप थामे दूसरे दिन दुर्गा सिटी सेंटर पहुंचा, खुला था. वेलकम काउंटर पर प्रौढ़ किस्म का एक युवा बैठा था जो तेजी से तमाम लोगों को निर्देश दे रहा था. उसके चेहरे में ही सहयोग का भाव दिखाई दे रहा था. मेरी समस्या सुनी तो उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई और एक तीसेक साल के युवक की ओर इशारा करके बोला, ‘उसके पास चले जाइये.’
(Himalaya Article by Batrohi)
युवक ने मेरे हाथ से लैपटॉप लिया और उसी कुर्सी पर बैठे-बैठे उसे टटोला और मुझसे कुछ भी कहे बगैर अन्दर की केबिन में चला गया. वहां उसने क्या किया, मुझे नहीं मालूम; करीब पंद्रह मिनट बाद लैपटॉप के साथ वह वापस लौटा और मुझे थमाते हुए बोला, ‘ठीक हो गया है, अब यह आपको तंग नहीं करेगा.’ काउंटर की ओर इशारा करके कहा, ‘बिल वहां पे कर दीजिए.’ वह मुझे अपने साथ काउंटर तक ले गया. उसने जिन पुर्जों को जोड़ा था, उनकी जानकारी दी जिसे काउन्टर पर बैठे युवक ने नोट कर लिया. कंप्यूटर के जिस हिस्से को जोड़ा गया था, उसकी कीमत की चिट मेरी ओर बढ़ा दी.
मैकेनिक की ओर मुखातिब होकर मैंने अपना पर्स खोला इस आशय से कि उसका मेहनताना भी उसमें जोड़ सकूं.
कुछ भी बोले बगैर वह विनीत और शालीन ढंग से बगल में खड़ा रहा. ‘फिर भी,’ मैं उससे कहना चाहता था, वह पहले की तरह विनम्र भाव से खड़ा रहा. मैं कृतज्ञ तो था ही, इसलिए भावनाएं व्यक्त करने के लिए शब्द खोजने लगा. मगर मुझे शब्द नहीं मिले; शायद उसके पास भी शब्द नहीं थे.
जाते-जाते मैंने पूछा, ‘नाम क्या है तुम्हारा?’ ‘हिमालय बिष्ट’, उसने एक स्लिप मुझे थमाते हुए कहा, ‘जब भी कोई परेशानी हो, इस नंबर पर मुझे बता दें.’
(Himalaya Article by Batrohi)
हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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