संस्कृति

ओ रुपसा रमोती

हमारे लोक की अनिन्द्य नायिकाएं

– डॉ. प्रयाग जोशी

लोक गाथाओं के साहित्यिक सौन्दर्य का संपूर्ण निदर्शन उनमें आई नायिकाओं के रूप में वर्णन हैं. उनका सौन्दर्य-सम्मोहन ही मंत्रियों व परियों की धारणाओं में पर्यवसित होकर रुपातिश्योक्ति हो जाता है. धरती कीई स्त्री और आकाश की परियों के मिलित सौन्दर्य का संकर ह्यूंकाली के प्रसंग में देखना चाहिये.

सात समुद्रों के पार रहने वाली युवती धरती और आकाश को एक किए हुए है. सम्पूर्ण संसार उसकी कांति से जगमगा रहा है. वह अपने बंद कमरे में होती है तो संसार में रत का अंधियारा घिर आता है. वह अपना मुंह दिखाने छज्जे पर आती है दिशायें खुल पड़ती हैं और सूर्योदय हो उठता है.

उसका रूप पारदर्शी जल और आरसी के शीशे जैसा है. बादल उसके पंख है. कोहरा उसका चोगा है. हवाएं उसकी सांस है. पर्वत पयोधर है. वह धरती में चलती है परन्तु उसके डगों की आहट से इन्द्रासन हिलता है. वह सोये हुओं का स्वप्न बनकर सब जगह घुमती है. इन्द्रधनुष की आकृति बनकर वह खेंटूखाल जाती है. पूर्णमासी की चांदनी में वह ‘ देवी की डोल’ बनकर पर्वत-पर्वत घूम आती है.  अमावस्या की श्याह रातों में वह ‘ अनट्वालों’ की चमक के रूप में मरघट-मशानों का चक्कर काटती हुई दिखाई देती है.

मखमल से कोमल नोंनिहाल और सद्यः प्रसूताओं का मातृत्व उसे प्रिय है. वह गरुड़ो की चोंच में बैठकर स्वर्ग पथ की यात्राओं में निकलती है ओरिएण्टल वहां से अमृत-मरकर वापस धरती में लौट आती है. उसके पास बैलों के रथ हैं. उड़ते हुये झंपान ( खटोले ) हैं जिनमें आरूढ़ हो कर वह धरती-आसमान को एक किये रहती है. बिजली में जो चमक है वह उसी की झिल-मिलाहट है.

ह्यूंकाली की स्मृति, पानस के दीपक की ज्योति बनकर मानो सूरज कुंवर की आत्मा को ज्योतित करती है. परन्तु सर्वशक्तिमान होते हुये भी वह धरती पर रहने वाले पुरुषों के प्रेम के लिये मारे-मारे फिरती है. वह सूरज कुंवर के प्रेम से पराभूत होती है और उसकी आराधिका बनाकर स्वर्ग के जैसे वैभवों का भी परित्याग कर डालती है.

खमजम हुणियां के तैंपुरे  महल की अटारी में शिथिल पड़ी ह्यूंकाली, चौलाई (मार्सा) की बाली जैसी निढ़ाल हो उठती है. सूरजू की मृत्यु की खबर सुनकर हिम (ह्मयू ) से उत्पन्न उसके अस्तित्व की पहचान हो जाता है. यों उस अप्सरा ह्यूं काला को हम रवेकाला हो जाते हुये देखने लगते हैं.

ह्यूंकाली और उस जैसी दूसरी चीनी स्त्रियों के रूप रंग और सौन्दर्य के प्रतिमान शौका स्त्रियां रही हैं. सात-समुद्रों की वह भूमि हिमालय के उस पार मंचूरिया-मंगोलिया की तरफ इशारा करती है. तिब्बत की संस्कृति से मिलती-जुलती उनकी संस्कृति में हिमालय का प्रभाव स्पष्ट दिखाता है. वहां की स्त्रियों के कद इतने छोटे हैं कि उन्हें ‘डोकों’ में भरा जा सकता है. उसंकी सूरतें (अन्वारें) भीटरी के फूल जैसी हैं. उनका रंग फागुन के धूप जैसा पिंगला है. वे मंगसीर के घाम जैसी मुलायम और पूर की नारंगियों जैसी आकर्षक हैं. आछरियों जैसी मायावी होने से उन्हें ‘जादू की पिटारी” ठीक ही कहा गया है.

स्वाभिमान, रुआब, धैर्य और सहिष्णुता में वे इचाले चलती हैं तो कनाले टूटते हैं. कनाले चलती तो इचाले टूटते हैं. उनका सौन्दर्य मिश्री का बतासा है.

स्व सम्मोहित सूरजू यह तय नहीं कर पाता कि वह धरती की सुन्दरी है या आकाश की अप्सरा. तब उसका ध्यान उसके परिपार्श्व पर जाता है. वहां हींग-गंद्रायाणी की खुशबू बिखरी हुई है. आस-पास की आकृतियाँ कम्बल के गाँवों में लिपटी हुई हैं. पैरों में खाल के जूते, गलों में गण्डताबीज और मूंग मालाओं सजे उनके हाथों में चलती चरखियों को देखकर अंदाज होता है कि वह तिब्बत से मिलती-जुलती किसी संस्कृति के परिवेश में पहुंचा हुआ है. यह नहीं कि स्त्री-सौन्दर्य, केवल चीनी सुन्दरियों की ही विरासत रहा हो. ‘बालि- रानि हियाँ’ कुसुम्यारु के डोके जैसी ‘ठस” वादन की है. उसके आनन की ओप से चंपावत के डांडों में उगता सूरज धुंधला पड़ जाता है. उसका वर्ण छोये हल्दी जैसा रक्ताभ है. नाजुक-मिजाज ऐसी कि चुल्लू भर पानी पीती है तो जुकाम दबोच लेता है. सिता भर भात खा लेती है तो उल्टी होने लगती है. वे हिमालय के अंचलों की युवतियां ही हैं जिनकी खूबसूरती आगे जाकर परियों-आंछरियों के लोक तक फैलती गई है. वह वहां की स्त्रियों की कमनीयता का आकर्षण ही है जिससे मोहाच्छत्र दो पुरुष स्वयं को, धरती के क्रूर यथार्थ को छोड़ वायवीय स्वपनाकांक्षाओं में लीन कर डालता है. राजुली, गोरिधना, बहाना और जस्सी आदि स्त्रियाँ वहां की सनातन स्त्री के विविध रूप धरकर ही अतिमानवीय और इन्द्रीयातीत हुई हैं.

(लेखक की पुस्तक ‘कुमाऊं-गढ़वाल की लोकगाथाएं’ के आधार पर)

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago