मुझे बचपन की याद है कि मुंशी मत्लुबुर्रहमान खां नगरपालिका, अल्मोड़ा के खोड़ के मुंशी थे. वे नगर-पालिका परिषद् की बिल्डिंग के बांयी ओर गाड़ी सड़क से लगी हुई बोर्ड की बिल्डिंग में अपना दफ्तर का काम करते थे. उनके बगल में अपना दफ्तर का काम करते थे. उनके बगल के कमरे में बाजार में आवारा घूमते हुए जानवरों को खोड़ में बंद कर दिया जाता था ताकि उनसे सम्बंधित व्यक्ति अपने जानवरों को जुर्माना अदा करके छुड़ा ले जाय. यह प्रक्रिया शहर की सफाई को बरक़रार रखें के लिए अपनाई जाती थी. मुंशी जी संजीदा किस्म के बुजुर्ग आदमी थे. वह थाना बाजार में लक्ष्मीलाल आनंद ब्रदर्स की दूकान के नजदीक ही रहते थे.
यह अंग्रेजों की हुकुमत के जमाने की बात है कि हजरत सैंया बाबा पंजाब से पर्वतीय क्षेत्र में अनायास चले आये. वे ज्ञानी पुरुष थे. तहमद कुर्ता पहनते थे. सिर पर सूफियों की ऊँचे बाड़े की टोपी, कुर्ते के ऊपर पंजाबी वास्कट और पैरों में चप्पल पहनते थे. वे ईदगाह में हजरत हसन अली बाबा के मज़ार और सिटोली में हजरत हुसैन अली शाह के मज़ार की तलाश में अल्मोड़ा आये. उन्हें ईदगाह का शांत वातावरण पसंद आया और उन्होंने वहीँ इबाबाद करना शुरू कर दिया. शहरवासी जो कालू सैयद बाबा की मजार के दर्शन को वहां हाजिर हुआ करते थे सैंया बाबा से वे उनकी विद्वता से प्रभावित हुए. सैंया बाबा सुंदर प्रकृति के व्यक्ति थे.
मुंशी मत्लुबुर्रहमान खां शाहजहाँपुर के रहने वाले व्यक्ति थे और उच्च परिवार से संबंधित थे. उन्हें सैंया बाबा का स्वभाव बहुत पसंद आया और उन्होंने सैयद वंश के इस महापुरुष से अपनी कन्या का निकाह कर दिया. इनकी शहर में बहुत इज्जत आबरू होने लगी. इनके व्याख्यान लोगों के मन को छू लेते थे. उनसे उनकी विद्वता टपकती थी. यदि ईश्वर की स्तुति पर व्याख्यान देते तो लोग ईश्वर के भय से रोने चिल्लाने लगते थे. उनकी वाणी में इतनी तासीर थी. शहर के तालीम याफ्ता घरानों में बाबा की बड़ी आवाभगत थो. इसका यह तात्पर्य नहीं कि वे सर्वसाधारण से विमुक्त रहते थे. वे सबके हरदिल अजीज थे.
तिलकपुर के स्वर्गीय बिन्देश्वरी जोशी हकीम की बैठक में उनका पदार्पण होता था. हकीम जी उनके स्वागत के लिए अपने चबूतरे में निकल आते और उन्हें अपने तख़्त में गाव तकिया लगाकर सादर बिठाते. फिर उनसे शहर के चुनिन्दा लोग मुखातिब होते और उनके इल्म का फायदा उठाते. बिंदु हकीम बड़े खुद्दार शख्स थे लेकिन सैंया बाबा के खादिम थे. सन 1960 ई. में अल्मोड़ा में श्री जी.एन.मेहरा डिप्टी कमिश्नर थे. उनके पुत्र का पेट अल्मोड़ा के भारी पेयजल से गड़बड़ाया. उनका अर्दली हकीम जी को बुलाने आया.
उन्होंने बरजस्ता कहा कि मरीज हकीम के पास इलाज को जाता है न कि हकीम मरीज की मिजाज पुर्सी को. साहब से मेरा पैगाम कहा देना. कुछ समय बाद साहब खुद ही पुत्र को लिए बिंदु साहब की मजलिस में पहुँच गये. वहां लोगों की बैठक देखकर वह अचंभे में पड़ गये. बच्चे को पानी उबालकर ठंडा होने पर पीने की सलाह दी गयी. कुछ दवा की पुड़िया पानी के साथ फांकने को कहा. बच्चा ईश्वर की कृपा से स्वस्थ हो गया. फिर साहब भी हकीम जी की मजलिस में गाहे बगाहे आने लगे. वहां विदेशियों की कतारें देखकर उन्हें ताज्जुब होता, जो हकीम जी से हिकमत के सवाल करते और बिंदु साहब उन्हें अपने उत्तरों से संतुष्ट कर देते.
इतिफाक से सैंया बाबा की पथरी की शिकायत हो गयी. बिंदु साहब ने जिला अस्पताल के डाक्टर से कहकर बाबा को अस्पताल में भर्ती करा दिया. यद्यपि बाबा इस प्रक्रिया के लिए तैयार नहीं थे. बाबा संत थे उन्हें यह फ़िक्र सता रही थी कि वे डाक्टर के समक्ष आपरेशन के लिए नग्न कैसे होंगे. इन्होंने रात्रि में सख्त इबादत की और पथरी स्वयं गायब हो गई. सुबह खुलकर पेशाब हुआ और वे स्वस्थ हो गये. डाक्टर को उनके बिना आपरेशन के स्वस्थ हो जाने पर अचंभा हुआ. यह एक चमत्कार था. पूरा बिंदु परिवार इस घटना से बाबा की संतई का कायल हो गया.
कारखाना बाजार में अनोखे लाल बर्तन वाले की दुकान के सामने बड़े यामीन भाई कपड़े वाले और शब्बीर नेताजी बाबा के भक्त थे, वे उनका आदर सत्कार करते और उनका आशीर्वाद लेते. अल्लाह दिया, चिकसाज, जौहरी बाजार वाले उनके शिष्य थे. उनके घर पर आयोजित मीलाद की महफ़िल में सैंया बाबा ने लोगों को उपदेश दिया कि पल्टन बाजार एवं थाना बाजार के लोग कालू सैयद बाबा व हसन अली शाह के मजारों की देखरेख करें तथा जौहरी बाजार, खजान्ची बाजार, कचहरी बाजार व कारखाना बाजार के वासी शहर के बीच की हजरत पीर बेरिया साहब की दरगाह की खिदमत का जिम्मा लें. चौक व लाला बाजार व नक्कारची टोला के बाशिंदे हुसैन अली शाह बाबा के मज़ार को आबाद रखें. खुदा शहर को खुश आबाद रखेगा.
बाबा के घर थाना बाजार में सूफियों की भीड़ रहती थी. वे मुरादाबाद के सूफी अब्दुस्सलाम को सूफी रम्या, सूफी रहीम बख्श टेलर मास्टर को सूफी झुमझुम व इस खादिम को मौलवी के लकब से पुकारते थे. मुझ पर व हाजी अब्दुल रहमान बाबा की नजरे करम रहती थी. एक बार मैं उनके आवास पर शीतकाल की सुबह हाजिर हुआ. वे अपने आँगन में कुर्सी पर बैठे धूप का आनंद ले रहे थे. आँखे बंद थी. शायद जप कर रहे थे. मैं उनके सम्मुख जमीं पर बोरी के टुकड़े पर ख़ामोशी से बैठ गया. उनका चेहरा सुर्ख हो रहा था. कभी कभी उस पर मुस्कान छा जाती थी. चेहरे के उतार चढ़ाव से लग रहा था कि वह ईश्वर के ध्यान में तल्लीन हैं. बहुत देर बाद जब वह खबरदार हुए तो बोले मौलवी कैसा है? मैंने धीमी आवाज में कहा. बाबा की नवाजिश, करम. खुश रह बच्चा कहकर वह पुनः अपने विचारों में खो गये. मैंने वहां से खामोशी से वापस हो जाना उचित समझा.
[पुरवासी के 38 वें अंक में मो. शब्बीर का लेख]
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