दुकान वाले मोहन दा के हाथ से चाय का गिलास थामते हुए पद्मा दत्त लोहनी ने अपनी कुर्सी दूसरी ओर को सरका ली. अपनी आदत से मजबूर पास की कुर्सी में बैठा हरिया हँसते हुए बोल पड़ा –“गुरू जी इतनी भी दूरी क्या हम से? आखिर हुई तो हमारी और आपकी एक ही बिरादरी?” मुंहफट प्रकृति का हरिया न तो किसी की बात का बुरा मानता और न खुद किसी से कुछ भी कहने से चूकता. खुद पर जातिगत आक्षेप को भी वह हंसते-हंसते टाल जाता. (Story Hariya Harfanmaula)
गांव में यजमानी का काम करने वाले लोहनी कुछ पल के लिए अवाक् से रह गये, साथ बैठे लोगों की प्रतिक्रिया चेहरे पर प्रतिक्रिया पढ़ने का प्रयास किया और फिर ठहाका लगाकर बोले – “हा-हा-हा, तू कब से हो गया हरिया ! हमारा बिरादर ? कहां तू ठैरा (हुआ) हरिया लोहार और कहां हम कर्मकाण्डी पण्डित. रात दिन धौंकनी फूंक-फूंककर आफर (लोहा गलाने की भट्टी) चलाने वाला कब से बन गया रे तू लोहनी!”
हरिया को लगा जैसे खुद ही लोहनी ने अपने ही सवाल का जवाब दे दिया हो. “यही तो मैं भी कहना चाह रहा हूं गुरू जी. लोहा होम कर आप लोहुमी या लोहनी हो गये और वही काम तो हमारे बाप-दादा भी सदियों से कर रहे हैं. फिर आप लोहनी हैं तो हम लोहनी भला क्यों नहीं ? याद नहीं आपको केवट ने राम से क्या कहा था ? “नाई से न नाई लेत, धोबी से न धोबी लेत, देके मजूरिया ये जाति ना बिगाड़ियो” जब केवट जैसा मल्लाह भगवान राम से बराबरी की जुर्रत कर सकता है, फिर आप और हम तो साधारण इन्सान हुए. ’’
गुरू जी मुस्कराते बोले- “बडे ज्ञान-ध्यान की बातें करने लगा हरिया अब तो तू भी. खैर सुन! हमारे बाप-दादा तो मंत्रों से ही लोहे को होम कर सकते थे, तुम्हारे बाप दादा आर तुम तो जिन्दगी भर धौंकनी ही फूंकते रहे.’’
हरिया भला चुप रहने वाला कहां था, जवाब तो हमेशा उसकी जुबान पर रहता. बोला- “बाप-दादा करते होंगे ना, आप तो नहीं? हमारे बाप-दादा, जो पीढ़ियों पहले किया करते थे, हम आज भी वही कर रहे हैं. एक बात बताओ गुरू जी! क्या तुम आज भी मंत्रों से लोहा होम करने की कुव्वत रखते हो?”
पण्डित जी ने मन ही मन सोचा, बात तो सही कह रहा है, लेकिन हरिया से तर्क वितर्क में हारना, मतलब इतने लोगो के सामने अपनी तौहीन. बोले – “कलयुग है य कलयुग. जो बीत गई सो बात गई. लेकिन वंशज तो हम उन्हीं के हुए ना. हुए तो वेदपाठी ब्राह्मण की ही औलाद और आज भी उसी लीक पर चल रहे हैं. खुद को बिरादर बताने वाला तू कर्मकाण्ड का एक ही मंत्र सुना दे, तो मानूं.’’
हरिया स्वभाव से मजबूर था, जवाब देने में चुप रहना उसकी फितरत कहां, बोला – “ये आपका हुनर है और वो हमारा. मैं आज नहीं तो कल मंत्र सीख सकता हूं, लेकिन आप कभी आफर चलाकर दिखा दो, मैं भी मान जाऊंगा. “
गुरू जी ने चाय की अन्तिम घूंट लेते हुए गिलास मेज पर रख दिया और बहस को यहीं विराम देते हुए बोले – “तुझसे बहस करने से कोई फायदा नहीं.”सोचा, इससे उलझने से अच्छा खिसक लेना ही ज्यादा बेहतर होगा. लोग भी क्या कहेंगे, पण्डित जी का तर्क-वितर्क भी किससे, एक गांव के लोहार से ?
पण्डित जी तो चले गये लेकिन हरिया को बात दिल से लग गयी – “तू कर्मकाण्ड का एक ही मंत्र सुना दे, तो मानूं.” हर फन में दखल रखने वाले हरिया के लिए मानो ये एक खुली चुनौती थी.
गांव के लोगों ने हरीश लाल को हरिया बना दिया और उसके हुनर ने उसे हरफनमौला. हरीश लाल नाम तो न जाने कहां गुम हो गया और गांव के लोगों की जुबान पर अब हरिया हरफनमौला नाम ही पहचान बन गयी उसकी. लोग उसके सामने हरदा कहकर इज्जत भले दे दें, वो अलग बात थी,लेकिन ंसमाज में उसकी पहचान हरिया हरफनमौला ही थी. हरिया शब्द से दिमाग में जो दीन-हीन छवि उभरती है, उससे एकदम भिन्न था उसका व्यक्तित्व. जिस जमाने में हाईस्कूल पास की बडी इज्जत हुआ करती हरिया उस टैम का हाईस्कूल फेल ठैरा. लम्बा कद, पीछे की ओर करीने से सजी जुल्फें, नीचे गरम क्रीज लगी पेंट, ऊपर बन्द गले का सर्ज का कोट, गले में लपेटा मफलर, पालिश किये चमचमाते क्रेपसूल के जूते, हाथ में पीतल के मूंठ वाली छड़ी और कन्धे पर लटकता 3 बैण्ड का फिलिप्स का ट्रांजिस्टर. सत्तर के दशक में यह किसी सम्पन्न परिवार की पहचान हुआ करती. दरअसल फैशन और जमाने के साथ चलना कोई हरिया सी सीखे. इतनी शौक वह कैसे पूरा कर लेता है ? लोगों को हैरत में डालने के लिए कम न था. स्वयं तो उसका चेहरा कभी मुरझाया नहीं दिखता और सामने वाले के गमगीन चेहरे को देखकर बरबस टोक देता- क्यों फालतू में चिन्ता को पाले हो, समय एक सा नही रहता और फिर अपना वही रटा रटाया मुहावरा “चिन्ता से चिता भली “कहकर चिन्ता भुलाने की नसीहत देने से नहीं चूकता. “चिन्ता से चिता भली”तो हर फिक्रमन्द के सामने उसका तकिया कलाम बन चुका था. खुद अभावों के बावजूद जिस तरह निगरगण्ड (अलमस्त) प्रकृति का वह था, लोगों में उसकी बात असर भी करती.
बिन मांगे सलाह-मशविरा देना उसका शगल बन चुका था. चर्चा किसी मुद्दे पर भी हो हरिया टांग अड़ाने से नहीं चूकता और बेबाकी से अपनी राय रख देता. छोटी-मोटी बीमारियों के घरेलू नुस्खे तो हमेशा उसकी जुबान पर रहते. लोग उसकी सलाह को कितना तवज्जो देते हैं, इसकी उसे कोई परवाह नहीं.
इधर हरिया अपने में ही कुछ खोया सा लगने लगा. दूसरों को चिन्तामुक्त रहने की नसीहत देने वाले हरिया के चेहरे पर न जाने क्यों इतनी गम्भीरता आ गई, लोग सकते में थे. ये बात अलग है कि वह इसका अहसास किसी को भी कराने से बचता रहता, लेकिन चेहरा सब कुछ बता देता कि हरिया के साथ कुछ ठीक नहीं चल रहा. गांव के एक छोर पर उसका घर था, जब कि गांव की दूसरी छोर की दुकान उसका गपशप का केन्द्र हुआ करती. अक्सर काम न होने पर यही दुकान, उसका दूसरा घर बन चुकी थी. चाय की चुस्कियों, चिलम लगाते तथा गप्प-शप्प मारते पूरा दिन गुजर जाता और दुकान बन्द होने पर दिल ढलने के बाद ही देर रात घर लौटता. अपनी खुशमिजाजी से दूसरों का दुख भुला देने वाले हरिया का कुछ समय से गुमशुम रहना लोगों के लिए किसी अनसुलझी गुत्थी से कम न था. हालांकि हरिया से कई लोग पूछ बैठते उसकी गम्भीरता पर, लेकिन हरिया था कि उसी क्षण खिलखिलाकर माहौल को हल्का कर देता, पर उसके चेहरे पर बनावटी हंसी सब कुछ बयां कर देती. कोई इसे पारिवारिक वजह मानता, तो अगला तर्क देता- पूरा परिवार तो वह अपनी मुट्ठी में रखता है, ऐसा बुझ दिल थोड़े ही है हरिया जो चुपचाप सह ले. लोगों को यह भी शंका होती कि रोजगार के अभाव में शायद पैसे की तंगी से जूझ रहा है. खुद्दार हरिया किसी के आगे हाथ फैलाने वाला थोड़ी ठैरा. गांव की दुकान में चाय की चुस्कियां लेते लोग अक्सर उसे छेड़ते हुए पूछ बैठते – “हर दा ! कुछ तो है यार ! जो तू हमसे छुपा रहा है. तू तो हर किसी को नसीहत देते फिरता, चिन्ता से चिता भली और अब तो तू खुद ही किसी चिन्ता में डूबा नजर आ रहा है.” हरिया यों ही हल्की बनावटी मुस्कान बिखेर कर बात को टाल जाता. कभी दुकान पर चरस की चिलम में कल्लियां उठाने में नंबर वन रहने वाले हरिया ने इधर यह शौक भी लगभग छोड़ सा दिया था.
बाप-दादा कभी नेपाल से आकर गांव में बसे होंगे, लेकिन अब वह गांव की संस्कृति में घुलमिलकर यहीं के मूल निवासी से किसी तरह अलग नहीं था. गांव के अन्तिम छोर पर उसका घर हुआ करता,जहाॅ परिवार में दो छोटे छोटे बच्चे व उसकी पत्नी थी. पत्नी भैंस पालकर दूघ का धन्धा करती और दूध को 5 मील दूर नजदीक के कस्बे तक साइकिल से पहुंचाना हरिया के जिम्मे था. 5 मील की चढ़ाई में वह दूध लदी साइकिल धकेलता और लौटते समय मुख्य सड़क की ढलान में हवा में बातें करते घर पहुंचता. एक दिन तो उसने ऐसा करतब दिखाया कि देखने वालों के रोंगटे खड़े हो गये. उस दिन वह अपनी पत्नी को भी साथ लेकर बाजार गया था, लौटते वक्त साइकिल के कैरियर में पत्नी को बिठाकर उसी तेज रफ्तार से आ रहा था कि सामने से आने वाली गाड़ी ने दूसरी गाड़ी को पास दिया. सड़क पर साइकिल निकालने को इंच भर जगह नहीं बची थी, तेज रफ्तार साइकिल को इतनी जल्दी रोकना नामुमकिन था, उसने साइकिल निकालने की जगह न देखते हुए पैराफिट पर साइकिल चढ़ाकर सकुशल पार कर लिया.
हरिया ने क्या-क्या काम नहीं किये ? अब यह रोजगार में पैर जमाने की जोर आजमाइश थी या उसका शौक ? शुरूआती दिनों में उसने एक मशकबीन भी रखा, तब बैण्ड का चलन तो था नहीं, शादी ब्याहों में हरिया आस-पास के गांवों में मशकबीन बजाने चले जाता, शौक भी पूरी हो जाती और दिहाड़ी भी बन जाती. लोहारी उसका पुश्तैनी धन्धा था, लेकिन इसे फुल टाइम धन्धा उसने कभी नहीं बनाया. गांव में कोई दूसरा लोहार नहीं था, सो गांव वालों को जब उसकी जरूरत होती तो उनका काम जरूर चला देता.
कपड़ों की सिलाई के लिए भी एक मशीन खरीदी और दर्जी के धन्धे को भी आजमाया. कारपेन्टर हो अथवा ओढ़ (राज मिस्त्री) इस काम को जानने वाला भी पूरे गांव में वह अकेला ही हुआ, इसलिए गाहे बगाहे ये भी रोजगार का जरिया बन जाता.
दार चीरने का काम अक्सर पुश्तैनी लोग ही करते हैं और एक बार चिरवान (लकड़ी चीरने वाले) पूरी जिन्दगी इसी काम पर खुद को खपा देते हैं. हरिया ने चिरवानी का कार्य भी किया, लेकिन इसमें भी ज्यादा समय रमा नहीं.
सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ, नये नये कामों में हाथ डालना उसकी शौक हुआ करता या चुनौती ये तो वही जाने. कोई हुनर उसने कब और किससे सीखा, इसका किसी को कोई पता नहीं. गांव में फेरी लगाकर चूड़ी बेचने का काम अक्सर पेशेवर मुस्लिम समुदाय के लोग ही किया करते. लेकिन आशिक मिजाज हरिया का यह शौक था, रोजगार का जरिया या कुछ और इस काम में भी जमकर हाथ आजमाया. चूड़ियां, औरतों की श्रृंगार सामग्री व बच्चों के खिलौने आदि बाजार से लाता और आंखों में काला चश्मा चढ़ाकर निकल पड़ता कपड़े से बंधी गठरी बनाकर निकल पड़ता दूर-दराज के गांवों को. कभी हफ्ते दो हफ्ते बाद घर वापसी तब होती, जब पुराना सामान बिक गया होता. फिर नया सामान खरीदकर अगले फेरे के लिए निकल पड़ता. भला एक धन्धे में टिकने वाला कहां ठहरा हरिया. लेकिन हरफनमौला हरिया का चुड़्याव (मनिहार) का शौक भी कुछ ही महीनों में पूरा हो गया.
सत्तर के दशक की शुरूआत का दौर था, तब रेडियो आम लोगों में काफी लोकप्रिय था. गांव में विरले लोगों के पास ही रेडियो हुआ करते. हरिया रेडियो क्या लाया, पूरे गांव के लिए मनोरंजन का साधन बन गया. जिस घर में जाता, उस घर के लोग रेडियो सुनने को लालायित रहते. फिलिप्स का 6 सैल का रेडियो वह कन्धे में टांगता और अपने घर से लगभग एक किमी दूर दुकान तक पूरे वाल्यूम में बजाते जाता. रेडियो की आवाज ही यह बता देने को काफी थी कि रास्ते से हरिया गुजर रहा है. कभी रेडियो में फिल्मी गाने चल रहे हैं तो कभी 1971 के भारत-पाक युद्ध के समाचारों की सुर्खियां. सुबह एक बार ऑन होने के बाद रेडियो सुबह से लेकर शाम तक चलता रहता. रात के 9-10 बजे जब वह घर को लौटता तो रेडियो की आवाज ही उसके घर लौटने की इत्तला देती.
लोहनी यों तो हरिया से बहसों में उलझना नहीं चाहते, लेकिन जब भी मोहन दा की दुकान पर जाते तो अक्सर पूछा करते, आजकल हरिया कहां गायब हो गया ? दरअसल हरिया ने लोहनी से बहस के बाद दुकान आना थोड़ा कम कर दिया था और अब तो महीने गुजर गये थे, हरिया ने दुकान पर आना एकदम छोड़ ही दिया था. हरिया का घर गाव की दूसरी छोर पर होने से यह भी पता नहीं चल पाता कि वह गांव में आजकल है भी या नहीं. गांव में रहते हुए हरिया का दुकान न आना, अपने आप में एक शंका तो पैदा कर ही रहा था. लोग कयास लगाते की कुछ नया इलम सीखने में शायद मशगूल हो. दूसरी तरफ दुकान आने के अन्तिम दिनों में उसके चेहरे की गम्भीरता कई और सवाल भी खड़े करती.
इसी बीच गांव में एक शादी तय हो गयी, ग्राम प्रधान देवी राम की लड़की की. गांव में जिस तरह आपस में हर किसी से रिश्ते का आदर देकर चचा, ताऊ, ददा, दीदी संबोधन से बोला जाता था, उसी तरह सामाजिक समरसता भी गजब की थी. सवर्ण व दलित समुदाय जरूर था, लेकिन हर सुख-दुख में सब साथ रहते. सवर्ण यदि दलित वर्ग को शादी-ब्याह पर न्यौता देते तो दलित वर्ग भी सवर्णों को आमंत्रित करते. ये अलग है कि दलित वर्ग की शादी में सवर्णों को कोरा राशन मुहैय्या कराया जाता और सवर्णों का अपना रसोईया होता, जो उनके लिए अलग से खाना बनाता.
जाहिर था, कि कम से कम शादी के मौके पर तो हरिया भी जरूर वहां होगा. इस बीच पं. लोहनी भी हरिया से पूरे तर्क-वितर्क करने के मूड में थे. तर्क-वितर्क इसलिए नहीं कि कोई हार-जीत के लिए अथवा किसी को नीचा दिखाने के लिए. लेकिन मनोविनोद का एक अच्छा मौका मिल जाता इसी बहाने. पण्डित को एक उत्सुकता ये भी थी कि कम से कम इस बहाने दलित समुदाय के लोगों के शादी के कर्मकाण्ड को देखने का मौका भी मिल जायेगा.
शादी के दिन गांव के सारे लोगों के साथ लोहनी भी पहुंच गये, देवीराम के घर पर. सवर्णों ने एक राय में इच्छा जाहिर की कि रसोईये का काम लोहनी को ही दिया जाय. सवर्णों में भी ठाकुर, ब्राह्मण तथा उनमें भी कोई छोटी धोती तथा कोई बड़ी धोती वाले, इसलिए लोहनी ऐसे सर्वमान्य व्यक्ति थे, जिनके हाथ का बना खाने में किसी को एतराज भी नहीं था. लोहनी जी को बात स्वीकार करने में कोई गुरेज भी नहीं था. शादी के घर से कुछ दूरी पर एक खेत में सवर्णों के लिए अलग रसोई का इन्तजाम किया गया था. इधर लोहनी व्यस्त हो गये खाना बनाने की तैयारी में , दूसरी ओर लोगों को हिदायत देते रहे कि जब बारात आ जाय और कर्मकाण्ड शुरू होने लगे तो मुझे बता दें. लोहनी ने रसोई के काम फटाफट निबटाने शुरू किये, ताकि फुर्सत पाकर शादी की पूरी रस्म देख सकें.
पास के गांव से ही बारात आनी थी. संध्या उतरते ही पार की धार पर पहाड़ी बाजे के साथ मशकबीन की धुन बारात आने का संकेत दे रही थी. लोगों को यह समझने में देर नहीं लगी कि मशकबीन बजाने वाला कोई और नहीं हरिया ही होगा. बारात जब दुल्हन के घर पर पहुंची तो बाजे की आवाज रूक गयी और बाजे वाले चाय-पानी पीने में मशगूल हो गये. पण्डित जी धूल्यर्घ की रस्म देखने का मोह संवरण नहीं कर पाये और तुरन्त रसोई का काम आधा ही छोड़कर पहुंच गये धूल्यर्घ के मण्डप पर. वर पक्ष के आचार्य ने शाखोच्चार की शुरूवात् की. आचार्य जी ने पैट्रोमैक्स की रोशनी में ठीक-ठीक पुस्तक न पढ़ पाने पर पैट्रोमैक्स अपने करीब लाने का इशारा किया. मंत्रोच्चार सुनकर लोहनी स्तब्ध थे, बिल्कुल वैसे ही शुद्ध उच्चारण जैसे वे स्वयं किया करते. पैट्रोमैक्स की रोशनी में अब सब कुछ साफ-साफ नजर आ रहा था. पीली धोती, झक्क सफेद कुर्ता, सिर पर सफेद टोपी. चेहरे पर नजर दौड़ाई तो एक जानी-पहचानी शकल. अरे! ये तो वही अपना हरिया हरफनमौला है. लेकिन कर्मकाण्ड इसने कब सीखा? जरूर कहीं बाहर गया होगा सीखने, तभी तो महीनों से नजर नहीं आ रहा था. लोहनी जी मन ही मन बुदबुदाने लगे. उन्हें अपने इस वाक्य पर शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी – “कर्मकाण्ड का एक ही मंत्र सुना दे, तो मानूं.” मन ही मन सोचने लगे – मैं तो एक दिन ये सब सीख जाऊंगा. सच ही तो कह रहा था, मैं आज नहीं तो कल मंत्र सीख सकता हूं, लेकिन आप कभी आफर चलाकर दिखा दो, मैं भी मान जाऊंगा. इससे पहले कि हरिया के तीर झेलने पड़े, लोहनी ने वहां से चुपचाप खिसक लेना ही समझदारी समझी. (Story Hariya Harfanmaula)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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Very good. Bahut badiya.