अनछुई जगह से लौटकर उस यात्रा के अधूरेपन का अहसास दिल को सालता रहता है. मेरे साथ हमेशा ही ऐसा होता है. उस जगह में रच-बसकर जीना हो तो अगली मुलाकातें जरूरी हो जाती हैं. दूसरी यात्रा में ही आप उस जगह का थोड़ा बहुत हिस्सा बन पाते हैं.
हरीशताल, लोहाखामताल से लौटते हुए ही मैंने अगली यात्रा के मनसूबे पालने शुरू कर दिए थे. एक साल बाद मैंने दूसरा मौका बनाया और निकल पड़ा हरीशताल की यात्रा पर. बेमिसाल प्राकृतिक सौन्दर्य और निश्चल पहाड़ी जनजीवन से एकाकार होने. इस जगह की दूरी हल्द्वानी कस्बे से लगभग उतनी ही है जितनी कि नैनीताल की, इसके बावजूद साल भर में नाम मात्र के सैलानी ही यहाँ पहुँच पाते हैं जबकि नैनीताल ठसाठस रहता है. एक पर्यटन स्थल के रूप में इस जगह के उपेक्षित रह जाने की मुख्य वजह है इस तक पहुँचने वाला बीहड़ रास्ता. नैनीताल जिले के ही ज्यादातर बाशिंदे इस जगह का कभी रुख नहीं करते.
इस दोपहर यात्रा शुरू करते हुए मुझे काफी देर हो चुकी थी. हालाँकि इस देरी की वाजिब वजहें थीं मगर यह अच्छी शुरुआत नहीं थी. हैड़ाखान के पास लूगड़ से शुरू होने वाले बीहड़ रास्ते की तात्कालिक स्थिति की जानकारी न होना हमारे लिए कई तरह की मुश्किलें पैदा कर सकता था. कई आशंकाओं के साथ हम दो दोस्त बुलेट में सवार होकर निकल पड़े.
जल्द ही हमने हल्द्वानी कस्बे को पीछे छोड़ दिया. काठगोदाम गौला पुल को पार करते ही हम बियाबान जंगल की खामोशियों के बीच गूंजती आवाजों को सुनते हुए नम जंगली खुश्बू को अपने नथुनों में भरते रहे. हल्द्वानी अब धुंध में गहराता जा रहा था. हमारे बीच खिंची गौला नदी की लकीर बारीक होती जा रही थी. हल्द्वानी को हैड़ाखान से जोड़ने वाले रास्ते के बीच बियाबान जंगल को रौशनी बहुत कम वक़्त के लिए ही चीर पाती है. रास्ते के कुछ हिस्सों में तो धूप पहुँचती ही नहीं, लिहाजा हमें ज्यादा ठण्ड का सामना करना पड़ रहा था.
घंटे भर में हम हैड़ाखान मंदिर से पहले मोड़ पर जीतेन्द्र सम्मल की दुकान पर चाय पीते हुए रास्ते की जानकारी ले रहे थे. यह दुकान आसपास के ग्रामीणों की रोजमर्रा की जरूरतों का सामान भी उपलब्ध कराती है. चाय नाश्ते की उपलब्धता इसे सराय भी बना देती है. अब हमारे पास रास्ते के बारे में ज्यादा ठोस जानकारी थी. कुछ दूरी पर गौला नदी पर बने विशाल पुल को पार कर हम लूगड़ से गाजा की तरफ चल पड़े. पक्की डामर की सड़क हमें विदा कर चली. नदी के पाट पर बने कच्चे रास्ते पर बढ़ते हुए हम धीमी गति से तल्ला गाजा पहुंचे. गाँव वालों से आगे की जानकारी के बाद हमने बाइक से ही आगे बढ़ने का तय किया.
अगले 3 किलोमीटर हमें दिलकश पहाड़ी रास्ते पर पैदल चलना था. रास्ते की आखिरी ढलान हमें हरीशताल के आगोश में ले गयी. गाँव के सभी सयाने अगली फसल की बुवाई में व्यस्त थे. इन घरों के बाहर छोटे बच्चे हमें मिलने लगे और इनसे गप्पें लड़ाते हुए रस्ते की सारी थकान काफूर हो गयी.
आज रात के आशियाने की हमारी तलाश जल्दी ही ख़त्म हुई. रास्ते के खेत में भट्टजी ताजा बीन्स चुगते हुए मिले. उनकी रौबीली मूंछों के नीचे पसरी भोली मुस्कान हमारा स्वागत कर रही थी. मध्ययुगीन जुगाड़ तंत्र से उन्हें हमारे आने की खबर मिल गयी थी, जिसके बारे में हम आश्वस्त नहीं थे. अगले ही पल हम भट्टजी के घर में चूल्हे पर बनी धुँआती चाय का मजा ले रहे थे.
अगर आप सुविधाजनक पर्यटन का मजा लेने के आदी हैं तो हरीशताल आपकी मंजिल नहीं है. प्रकृति के साथ एकाकार होते हुए सादगी भरे दुर्गम पहाड़ी जीवन का हिस्सा बनना हो तो यहाँ आना अच्छा है. कुमाऊंनी वास्तुशिल्प से बनी बाखलियों में रहने वाले सरल लोग इस जगह की पहचान हैं. आप यहाँ किसी भी ग्रामीण से दिल खोलकर बातचीत करते हुए उनकी जिंदगी और घर-परिवार का हिस्सा बन सकते हैं. सड़क का न होना यहाँ के नागरिकों की एक प्रमुख समस्या है. शायद इसी अभिशाप ने यहाँ के जनजीवन की सादगी और निश्चलता भी बरकरार रखी है. ग्रामीण हर जाड़ों में श्रमदान कर हरीशताल को हैड़ाखान से जोड़ने वाली सड़क बनाते हैं जिसके कई हिस्सा हर बरसात में बह जाते हैं. यहाँ के अधिकाँश लोग पलायन कर चुके हैं भुवन भट्ट जैसे कुछ जिद्दी लोगों ने ही गाँव की सांसें चला रखी हैं.
रात के खाने में यहीं के खेतों में पली-बढ़ी ताजा सब्जियां और अनाज था. एकांत में देर रात तक भट्टजी से गप्पों का दौर चला. उन्होंने बताया कि किस तरह सरकारी नौकरी के बजाय गाँव में रहने का कठिन रास्ता चुना. आज गाँव में उनकी आटा-मसाला चक्की, तेल पिराई की मशीन, परचून कि दुकान है. गाँव के डॉक्टर और फार्मेसिस्ट भी वही हैं. पिछली यात्रा में मैंने उन्हें एक नेपाली बच्चे को टाँके लगाते हुए भी देखा था. भट्टजी इस जगह के पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होने की उम्मीद में खुद इस जगह की उम्मीद बने रहे. रात गहराने पर हम सभी जंगल से आती झींगुरों की लोरी सुनते हुए सो गए.
अलसुबह चूल्हे में सिंकी रोटियां और ताज़ी बीन्स का नाश्ता करके हम लोहाखामताल की ओर चल पड़े. लोहाखाम जाती पगडण्डी ने हमें कई ग्रामीणों से मिलवाया एक घर में पानी पिलाते हुए जोशीजी ने 2-4 दिन अपने घर में रुकने का न्यौता तक दे डाला. उनसे अगली दफा आने का वादा कर हम लोहाखाम पहुँच गए. हरीशताल का यह जुड़वां तालाब घने जंगल से घिरा है. यहाँ पर लोहाखाम देवता का छोटा सा मंदिर भी है जहाँ कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगा करता है. इस तालाब की नीरवता इसकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देती है. इस तालाब किनारे बेसबब बैठे रहना सुकून पहुंचाता है. लोहाखामताल से दूसरी तरफ जाने वाली पगडण्डी 12 किमी बाद भीमताल-ओखलकांडा वाली सड़क से जा मिलती है.
वक़्त की बेड़ियाँ लौटने का दबाव बना रही थीं. हरीशताल लौटकर हमने कुछ देर मछली मारने का असफल उपक्रम किया. दिन के भोजन के बाद हम अपने रात के ठिकाने पर पसर गए. सुस्ताने का मोह यहाँ से न जाने की ही सदिच्छा को दिखा रहा था. भट्टजी ने कोल्हू में पिराये सरसों के तेल की बोतलें हमें तोहफे में दीं. भारी मन से हमने विदा ली. देर रात हल्द्वानी कस्बे ने हमें दोबारा निगल लिया. हाल ही में भट्टजी की बीमारी के बाद हुई मौत की खबर ने मेरी हरीशताल से एक आत्मिक डोर काट दी.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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