कॉलम

मार्कण्डेय की कहानी ‘हंसा जाई अकेला’

वहाँ तक तो सब साथ थे, लेकिन अब कोई भी दो एक साथ नहीं रहा. दस-के-दसों अलग-अलग खेतों में अपनी पिण्डलियाँ खुजलाते, हाँफ रहे थे.
(Hansa Jaye Akela Story)

“समझाते-समझाते उमिर बीत गई, पर यह माटी का माधो ही रह गया. ससुर मिलें, तो कस कर मरम्मत कर दी जाए आज!” बाबा अपने फूटे हुए घुटने से खून पोंछते हुए ठठाकर हँसे.

पास के खेत में फँसे भगनू सिंह हँसी के मारे लोट-पोट होते हुए उनके पास पहुँचे.

“पकड़ तो नहीं गया ससुरा? बाप रे भैया, वे सब आ ही नहीं रहे हैं?” और वह लपककर चार क़दम भागे, पर बाबा की अडिगता ने उन्हें रोक लिया. दोनों आदमी चुपचाप इधर-उधर देखने लगे.

सावन-भादों की काली रात, रिम-झिम बूँदें पड़ रही थीं. “का किया जाए, रास्ता भी तो छूट गया. पता नहीं कहाँ हैं, हम लोग.” “किसी मेंड़ पर चढ़कर इधर-उधर देखा जाए. मेरा तो घुटना फूट गया है.” “बुढ़वा कैसे हुक्का पटक के दौड़ा था !”

“अरे भइया, कुछ न पूछो!” मगनू हो-हो करके हँसने लगे. इसी बीच ज़ोर की आवाज़ सुनाई पड़ी.

हंसा जाई अकेला,
ई देहिया ना रही.
मल ले, धो ले, नहा ले, खा ले
करना हो सो कर ले,
ई देहिया…

दस-एक बीघे के इर्द-गिर्द, अँधेरे और भय में धँसी हुई पूरी मंडली सिमट आई. चेहरे किसी के नहीं दिखाई पड़े, पर हँसी के मारे सबका पेट फूल रहा था. उसी बीच थूक घोंटने की-सी आवाज़ करता हुआ वह आया और ज़ोर से हँसने लगा.

“होई गई गलती भइया! मैं का जानूँ कि मेहरिया है. समझा, तुम में से कोई रुक गया है. “

मगनू ने कहा, “सरऊ, साँड हो रहे हो, अब मरद मेहरारू में भी तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ता?”

“नाहीं, माय, जब ठोकर खाकर गिरने को हुए न, मैंने सहारे के लिए उसे पकड़ लिया. फिर जो मालूम हुआ, तो हकबका गया. तभी बुढ़वा ने एक लाठी जमा दी. खैर कहो निकल भागा.” उसने झुककर अपनी टाँगों पर हाथ फेरा. नीचे से ऊपर तक झरबेरी के काँटे चुभे हुए थे.

“ससुरे को बीच में कर लो!” बाबा ने कहा.

मगनू कहने लगे, “चलो मेहरारू तो छू लिया, ससुरे की क़िस्मत में लिखी तो है नहीं!”
(Hansa Jaye Akela Story)

उसे लोग हंसा कहते हैं, काला-चिट्टा बहुत ही तगड़ा आदमी है. उसके भारी चेहरे में मटर-सी आँखें और आलू-सी नाक, उसके व्यक्तित्व के विस्तार को बहुत सीमित कर देती हैं. सीने पर उगे हुए बाल, किसी भीट पर उगी हुई घास का बोध कराते हैं. घुटने तक की धोती और मारकीन का दुगज्जी गमछा उसका पहनावा है. वैसे उसके पास एक दोहरा कुर्ता भी है, पर वह मोके-झोंके या ठारी के दिनों में ही निकालता है. कुर्ता पहनकर निकलने पर, गाँव के लड़के उसी तरह उसका पीछा करने लगते हैं, जैसे किसी भालू का नाच दिखानेवाले मदारी का.

“हंसा दादा दुलहा बने हैं, दुलहा!” और नन्हें-नन्हें चूहों की तरह उसके शरीर पर रेंगने लगते हैं. कोई चुटइया उखाड़ता है, तो कोई कान में पूरी की पूरी उँगली डाल देता है. कोई लकड़ी के टुकड़े से नाक खुजलाने लगता है, तो कोई उसकी बड़ी-बड़ी छातियों को मुँह में लेकर, “हंसा माई, हंसा माई,” का नारा लगाने लगता है. इसी बीच एक मोटा सोटा आ जाता है, वह हंसा के कंधे से सटाकर लगा दिया जाता है और हंसा दो-एक बार उस पर उँगुलियाँ दौड़ाकर, आलाप भरते भरते रुककर कहता है, “बस न!”

और लड़के चिल्ला पड़ते हैं, “नहीं, दादा! अब हो जाए!” कोई पैर से लटक जाता है, तो कोई हाथ से. फिर वह मगन होकर गाने लगता है, “हंसा जाई अकेला, ई, देहिया ना रही..”

उस दिन बारह बजे रात को गाँव लौटकर, हंसा सीधे बाबा के दालान में आया. लालटेन जलाई गई. हंसा अपनी पिण्डलियों में धँसे झरबेरी के काँटों को चुनने लगा. जैसे जाड़े में चिल्लर पड़ जाते हैं, उसी तरह हंसा की टाँग में काँटे गड़े थे.

बाबा ने कहा, “कहाँ जाएगा ठोंकने-पकाने इतनी रात को, यहाँ दो रोटी खा ले!” और झरबेरियों के काँटे देखे, तो उन्हें जैसे आज पहली बार हंसा की भीतरी ज़िन्दगी की झाँकी दिखाई दी. इतनी खेत-बारी, ऐसा घर-दुआर, पर एक मेहरारू के बिना बिलल्ला की तरह घूमता रहता है. बाबा उठकर हंसा की पिण्डलियों से काँटे बीनने लगे.

उसे रतौन्धी का रोग है. इसीलिए रात को वह गाँव से बाहर नहीं जाता. वह तो मजगवाँ का दंगल था, जो उसे खींच ले गया. बाबा सरताज हैं पहलवानों के, भला क्यों न जाते! बेर डूब गई वहीं, चले तो अँधेरा घिर आया था. पाँच मील का रास्ता था. हंसा दस लोगों की टोली के बीच में चल रहा था. कई बार उसके पाँव लोगों से लड़े, तो लोगों ने गालियाँ दीं और उसे पीछे कर दिया. हंसा गालियों का बुरा नहीं मानता. वह बहुत सारे काम गाली सुनने के लिए ही करता है. गाँव के बूढ़ों-बुजुर्गों की इस दुआ से उसे मोह है.

वह पीछे-पीछे आ रहा था. रास्ते में एक गाँव आया, तो गलियों के घुमाव-फिराव में वह ज़रा पीछे रह गया. एक झोंपड़ी के आगे, एक बूढ़ा बैठा हुक्की गरमाए था. उसकी जवान बहू किसी काम से बाहर आई थी, दस आदमियों की लंबी कतार देखकर बगल में खड़ी हो गई. फिर हंसा के आगे से वह निकल जाने को हुई, तो संयोग से हंसा के पाँव उससे लड़ गए और अँधेरे में गिरते-गिरते वह हंसा के बाजुओं में आ गई. बहू चीख़ उठी. बूढ़ा हुक्की फेंककर डंडा लिए दौड़ा. लेकिन हंसा निकल गया. दूसरा डंडा उसकी बहू की ही पीठ पर पड़ा. यह गए, वह गए और सारी मंडली रात के अँधेरे में खो गई. सबकी तो आँखें साथ दे रही थीं, पर हंसा खाइयों-खंदकों में गिरता-पड़ता भागता रहा.
(Hansa Jaye Akela Story)

बाबा काँटा बीनते जा रहे थे. हंसा अपनी मटर-सी आँखों को बार-बार अपने भालू के से बालों में धँसाता-हाथ को काँटे मिल जाते, पर आँखें न खोज पातीं. रह-रहकर रास्ते की वह घटना उसके सामने नाच जाती. क्या सोचती होगी बेचारी? और वह बाबा की ओर देखने लगता.

“बड़ी चूक हो गई, भइया समझो, निकल भागे किसी तरह, नहीं तो जाने का कहती दुनिया? हमें तो यही सोचकर और लाज लग रही थी कि तुम भी साथ थे.”

“अरे, यह क्या कहता है, हंसा!”

“यही कि आपके साथ ऐसे लोग रहते हैं. कितना नाव-गाँव है! कितनी हँसाई होती!”

हंसा कभी कोई बात सोचता नहीं, पर आज बार-बार उसका दिमाग़ उलझ जाता था. अगर भइया चाहें तो…

इसी बीच आजी पूड़ियाँ थाल में परसे बाहर आई. हंसा हड़बड़ाकर उठ गया. बहुत दिन पर भउजी को देखा था. रात न होती तो वह बाहर क्यों आती. उसने सलाम किया. थाल थामने ही जा रहा था कि उन्होंने मज़ाक कर दिया, “कहीं डड़वार डाके रहे का, बबुआ, जो काँटा बिनाय रहा है.”

“कुछ न कहो, भऊजी!” हंसा कह ही रहा था कि बाबा बोल उठे, “फँसी गया था हंसवा आज, वह तो खैर मनाओ, बच गया, नहीं तो वह पड़ती कि याद करता! एक औरत को इसने…”
(Hansa Jaye Akela Story)

“अब हँसी-ठिठोली छोड़कर, बियाह करो! जब तक देह कड़ी है, दुनिया जहान है, नहीं तो रोटी के भी लाले पड़ जाएँगे. कहते क्यों नहीं अपने भइया से? गूँगे-वहरे, कुत्ते-बिल्ली सबका तो बियाह रचाते रहते हैं, पर तुम्हारा धियान नहीं करते. खेत-बारी, जगह-ज़मीन सब तो है.”

बाबा कुछ नहीं बोले, लगा सेंध पर धर गए हों. आजी जाने लगीं, तो बाबा ने तेल भेजने को कहा. तेल की कटोरी लेकर हंसा बाबा के पैताने जा बैठा.

“अपने पैरों में लगाओ न हंसा? दरद कम हो जाएगा.”

“गजब कहते हो, भइया! अरे लगाया भी है कभी तेल!”

और वह बाबा की मोटी रान पर झुक गया.

“मनों तेल पी गई ये रानें? कितने तो तेल ही लगाकर पहलवान हो गए हंसा कहने लगा.

बाबा चुप पड़े रहे. ओरउती से लटकी हुई लालटेन में गुल पड़ गया था, धुएँ से उसका शीशा काला पड़ चुका था और कालिख ऊपर उड़ने लगी थी.

हंसा उठा और बत्ती बुझाकर लेट गया.

भउजी की बात हंसा के कानों में गूँज रही थी- जब तक देह कड़ी है हंसा ने करवट लेते-लेते बूढ़े के डंडे की चोट का हाथ से अंदाज़ लिया और भुनभुनाने लगा, “जान-बूझकर तो कुछ नहीं किया. हम तो भइया की तरह मेहरारू को आँख उठाकर भी नहीं देखते. यह रतौन्हीं साली जो न कराए!” उसने इधर-उधर आँख चलाई, पर कुछ नहीं सब मटमैला, धुंध.

पाला पड़े चाहे पत्थर, काम से खाली होकर हंसा बाबा के पास जरूर आएगा. कभी देश-विदेश की बात, कभी महाभारत-रामायण की बात. लेकिन ‘गन्ही महत्मा की बात में उसे बड़ा मज़ा आता है. किसी ने उसे समझा दिया है कि गाँधी जी अवतारी पुरुष हैं.
(Hansa Jaye Akela Story)

उस दिन दालान में कोई नहीं था. शाम का वक़्त था. बाबा की चारपाई के पास बोरसी में गोहरी सुलग रही थी. जानवर मन मारे अपनी नाँदों में मुँह गाड़े थे. रिम-झिम पानी बरस रहा था. कलुआ पाँवों से पोली ज़मीन खोदकर, मुकुड़ी मारे पड़ा था. बीच-बीच में जब कुटकियाँ काटतीं, तो वह कुँड कूँ करके, पाँवों से गर्दन खुजाने लगता. इसी समय एक आदमी पानी से लथ-पथ, कीचड़ में अपनी साइकिल को खींचता आया और जैसे ही साइकिल खड़ी करके दालान में घुसने लगा, हंसा ने कहा, “जै हिन्न की, गनेस बाबू!” “जै हिन्द हंसा भाई, जै हिन्द!”

उसने अपने झोले से नोटिसों का पुलिन्दा निकालकर, बाबा के आगे रख दिया. हंसा बाबा की गोड़वारी बैठ गया. बाबा नोटिस पढ़कर बोले, “कैसे होगा, वरखा-बूनी का दिन है!”

हंसा कुछ समझ नहीं सका. जब उसका पेट फूलने लगा, तो वह बोल बैठा, “का है भइया!”

“कोई सुशीला बहिन आज यहाँ गाँधीजी का संदेश सुनाना चाहती हैं. जिला कमेटी की नोटिस है.”

“का लिखा है नोटिस में?” हंसा मुँह बा कर उसे देखता बोला, “तनी बाँच दो भइया. गवनई भी न होगी ?”

“अरे वही, जागा हो बलमुआ गाँधी टोपीवाले”

हंसा ने खूँटी पर टँगी ढोलक उतारकर गले में लटका ली और एक ओर पड़े फटहे झंडे को लेकर लाठी में टाँग लिया. दो बार ढोलक पीटी. फिर-जागा हो बलमुआ गन्ही टोपीवाले आय गइलैं… टोपीवाले आय गइलैं…. गाकर, ढोलक पर घड़म्-घड़ाम्, घुम-घुम घड़म्-घड़ाम्, घुम् घुम्”.

मिनटों में ही पचासों लड़के आ जुटे चल पड़ा हंसा का जलूस.

“मुसिल्ला की गवनई, जौने में वीर जवाहिर की कहानी है…”

“दल-के-दल लरिका-बच्चा सब बोलो, बोलो, गन्ही बाबा की जय!”

और फिर, जागा हो बलमुआ और हंसा की ढोलक गमकती रही. क्षण भर में ही जैसे सारे गाँव को हंसा ने जगा दिया हो. जिधर देखो, लोग चले आ रहे हैं. लड़के गाँधी बाबा को क्या जानें उनके लिए तो हंसा ही सब कुछ था. एक उनके आगे झंडा तानकर कहता, “बोलो, बोलो, हंसा दादा की!”

कुछ कहते, ‘जै’ और कुछ ‘छै’. फिर ज़ोर की हँसी चारों ओर छा जाती.

कुछ बूढ़े नाक फुलाते हुए, सुरती की नास ले, अपने सुतलियों के ढेरे पर तेज चक्कर देकर कहते, “मिल गया ससुर को एक काम. गन्ही बाबा का पायक काहे नहीं हो जाता. कोनों कॅगरेसी जात-कुजात मेहरारू मिल जाती. गन्हीं को कोई विचार थोड़े है, चमार-सियार का छुआ-छिरका तो खाते हैं.”

हंसा को फुरसत नहीं है. बाबू साहब का तकरपोस और बाबू राम का चमकउआ चादर तो आना ही चाहिए.

बाबा चुपचाप बैठे हैं. धीरे-धीरे गाँव सिमटता आ रहा है. दालान भरता जा रहा है. अँधेरे की गाढ़ी चादर फैलती जा रही है. रिम-झिम पानी बरस रहा है. चार लालटेनें जल रही हैं.

“बुला तो लिया पानी बनी में हल्ला भी पूरा मचा दिया. पर ठहरेंगी कहाँ सुशीला? कुछ खाना-पीना…”

“आने पर देख लेंगे. अपना घर तो खाली ही है. खाने की भी चिन्ता न करो! घी है ही, पूड़ी-ऊड़ी बन जाएगी.” कहता हुआ हंसा बाहर निकला.
(Hansa Jaye Akela Story)

हंसा सँभाल-सँभालकर चल रहा था-अँधेरे की वही धुंध, वही मटमैलापन. आखिर वह क्या करे कि उसे दिखाई पड़ने लगे. वह एक बच्चे की सहायता से किसी तरह बाबूसाहब के दालान के सामने पहुँच गया. पहाड़ से तखत को सिर पर बिड़ई रख उठा लिया और किसी तरह रेंगता-रेंगता बाबा के दालान आ पहुँचा.

बाबा बहुत बिगड़े, “ससुरा मरने पर लगा है.”

हंसा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि सुशीला जी आ गई हैं. वह बाबा के पास बैठ, उनकी बातें बड़े ध्यानपूर्वक पीने लगा.

सुशीला जी हंसा के ठीक सामने बैठी थीं. लालटेन जल रही थी, पर वह देख नहीं पाता था कि वह कैसी हैं!

आवाज़ तो कड़ी है, और यह गन्ने के ताज़ा रस-सी, महक, कहाँ से आ रही. हंसा खो गया. सुशीला का साल भर पहले का गाना, “जागा हो बलमुआ गाँधी टोपीवाले आय गइलैं.” उसके होठों पर थिरक उठा. साँवला-साँवला-सा रंग था, लंबा-छरहरा बदन, रूखे-रूखे से बाल और तेज़ आँखें. कैसा अच्छा गाती थीं-हंसा सोचता रहा.

इसी बीच कीर्तन-प्रवचन हो गया. सुशीला जी ने भी भाषण दिया और सारी ग्राम-मंडली “बिना विद्या के भारत देश, दिन-दिन होती है तेरी खारी रे” गुनगुनाती वापस जाने लगी. हंसा खोया बैठा रहा. खजड़ी की डिम्-डिम् और झाँझ की झंकार उनके कानों में गूँजती रही. सुशीला का पैना स्वर उसके हृदय को बेधता रहा, और दंगल की शामवाली घटना का भी उसे बार-बार ध्यान आता रहा. देखो तो इन आँखों को, जो न करा दें!-और उसकी नसों में रक्त की झनझनाहट भर जाती. एकाएक, “गन्ही महात्मा की ” सुनकर, वह चौंक पड़ा और ज़ोर से चिल्ला पड़ा, “जय… जय…”

बहुत रात बीत चुकी है. हंसा के घर में पूड़ियाँ छानने की तैयारी हो रही है. आटा गूँधा जा रहा है. तरकारी कट रही है. आग जल रही है. पर भीतर के कमरे की भंडरिया से घी कौन निकाले? हंसा वहीं इधर-उधर डोलता है. उसकी आँखें सुशीला जी की आवाज़ का पीछा कर रही हैं. सुशीला जी कभी-कभी संकोच में पड़ती हैं, पर हंसा के चौड़े सीने पर उगे हुए बालों के जंगल में वह खो जाती हैं. कितना पौरुषी आदमी है!

 लेकिन हंसा के आगे वह एक छाया मात्र हैं, जिनका बस रूप नहीं है आगे, और सब कुछ है.-मीठी-मीठी, थकनभरी आवाज़ और डाल के ताजे फल जैसी सुगंध. वह बड़ा खुश है. एक औरत के रहने से घर कैसा हो जाता है. कितना अच्छा लगता है! वह सोच ही रहा है कि घी की माँग होती है. हंसा उठता है, पर चारपाई से ठोकर खाकर गिर पड़ता है. सुशीला जी दौड़कर उसे उठाती हैं. हंसा मारे लाज के डूब जाता है. धत् तेरी आँखों की! और वह जल्दी से उठ खड़ा होता है.
(Hansa Jaye Akela Story)

सुशीला जी उसका हाथ पकड़े थीं, “चोट तो नहीं आई!”

घुमची की तरह की आँखें मुलमुलाकर हंसा हँसता है. उसके रोएँ भभर आते हैं. उसका कलेजा धड़कने लगता है.

कहा कहता है, “हंसा दादा को रतौन्ही है, रतौन्ही.” “रतौन्धी! तो बताओ, कहाँ है घी? मैं चलती हूँ, साथ.”

मेनका के कंधे पर विश्वामित्र के उलंब बाहु. सावन की अँधियारी बादलों की रिम-झिम. बीच-बीच में हवा का सर्द झोंका.

दोनों आँगन पार करते बूँदों में भीगते हैं. पीछे से आवाज़ आती है, “लालटेन…”

“एक ही तो है. रहने दो, काम चल जाएगा.”

घर की अँधेरी भंडरिया. दोनों भटकते हैं. हंसा कुछ बताता है. सुशीलाजी कुछ सुनती हैं. आँख कुछ देखती है. हाथ कुछ टटोलते हैं. बहरहाल, पता नहीं, कहाँ क्या है?

अँधेरे में जैसे आँख, तैसे बे-आँख. दोनों को सहारा चाहिए. कभी वह लुढ़कता है, कभी वह लुढ़कती है, और दोनों दृष्टिवान हो जाते हैं-दिव्यदृष्टिवान.

सुबह कुत्तों की झाँव-झाँव के बीच, कारवाँ आगे बढ़ गया. बैलों की घंटियाँ टुनटुनाई, भुजंगे बोले और बाबा ने उठकर अपना छप्पन पतरीवाला बाँस का छाता उठाया और ताल की ओर चल पड़े, निरुआही हो रही थी.

रास्ते में मगनू सिंह मिल गए, “लग गई पार हंसवा की नाव!”

“क्या हुआ?”

“कुछ न पूछो, भइया तुम्हें ख़बर ही नहीं, सारे गाँव में रात ही खबर फैल गई. वह ससुरा दुआरे बैठाने लायक नहीं है. कहते थे कि कोई राँड़-रेवा मढ़ दो इसके गले. कल रात बाबू साहब के यहाँ पंचाइत हुई. तय हुआ कि अब सभा-सोसाइटी की चौकी, गाँव में नहीं धरी जाएगी औरत-सौरत का भासन यहाँ नहीं होने पाएगा. बहू-बेटियों पर ख़राब असर पड़ता है. बात यह है भइया कि राजा साहब ओट लड़ रहे हैं, कांगरेस के खिलाफ़. बाबू साहब उनको ओट दिलाना चाहते हैं. आपके डर से कुछ कह तो सकते न थे. अब मौका मिला है.”
(Hansa Jaye Akela Story)

“कैसा मौका?” बाबा झुंझला कर बोले.

मगनू आकर उनके छाते के नीचे खड़े हो गए. बोले, “उलट दिया हंसवा ने कल रात!”

“क्या मतलब?”

“सच मानो, खाना-पीना नहीं हुआ. जब बहुत देर होने लगी, तो बंगा ने लालटेन लेकर देखा, और बाहर निकलकर, सारे गाँव में हिंढोरा पीट दिया. अभी तो सर-सामान लेकर, घाट तक पहुँचाने गया है.”

बाबा चुपचाप आगे बढ़ गए. इस तरह की बात सुनकर बरदाश्त करना उनके लिए कठिन है, पर न जाने क्यों उन्हें हँसी आ रही थी. तभी दूर से हंसा की मारी आवाज़ सुनाई दी?

जग बेल्हमौलू जुलुम कइलू ननदी… जग…

बरम्हा के मोहलू, बिसनू के मोहलू

सिव जी के नचिया नचौलू मोरी ननदी…जग…

बाबा खड़े थे. हंसा धीरे-धीरे पास आ गया. अँधेरा छँट गया था. हंसा डर गया. – कैसे खड़ा हूँ भइया के सामने, कैसे?
(Hansa Jaye Akela Story)

कुछ देर दोनों चुप रहे. बाबा ने देखा, हंसा के हाथों में खद्दर के कुछ कपड़े थे, पर उसकी निगाह नीचे ज़मीन पर धँसी थी.

“हंसा!” बाबा बड़ी कड़ी आवाज़ में बोले, “जहाँ पहुँच गए हो, वहाँ से वापस नहीं आना होगा.”

“भइया, बोटी-बोटी कट जाऊँगा, पर यह कैसे हो सकता है!”

हंसा जाने लगा, तो बाबा ने कहा, “घर जाकर सीधा-सामान बाँधे आना. आज मछरी पकड़वाऊँगा, वहीं खावाँ पर बनेगी.”

“अच्छा, भइया!” कहकर हंसा अपनी बटन-सी आँखों को पोंछता हुआ चला

गाँव में चुनाव की धूम मची थी. बाबू साहब बभनौटी के साथ कांग्रेस का विरोध कर रहे थे. उनके पेड़ों पर इश्तिहार टाँग दिए जाते, तो उनके आदमी उखाड़ देते. किसान बुलवाए जाते, उन्हें धमकाया जाता. खेत निकाल लेने की जानवरों को हँकवा देने की बात कही जाती और हंसा सुशीला की कहानी का प्रचार किया जाता, भ्रष्ट हैं सब! इनका कोई दीन-धरम नहीं है! गन्ही तो तेली है.

और हंसा अब पूरा स्वयंसेवक बन गया है. खद्दर का कुर्ता-धोती और हाथ की लंबी लाठी में तिरंगा बगल में बिगुल लटका रहता है और वह बापू के संदेश की परची बाँटता फिरता है.

“बाबू साहब जो कहें मान लो! पूड़ी-मिठाई राजा के तम्मू में खाओ! खरचा खोराक बाबू साहब से लो, और मोटर में बैठो! लेकिन कैंगरेस का बक्सा याद रखो! वहाँ जाकर, खाना-पीना भूल जाओ! कैंगरेस तुम्हारे राज के लिए लड़ती है. बेदखली बंद होगी! छुआछूत बंद होगा. जनता का राज होगा. एक बार बोलो, बोलो गन्हीं महात्मा की जय जय.”

घर-घर में, कंठ-कंठ में सुशीला के मनोहर गानों की धुनें गूंजने लगीं. गाँव के बच्चे हंसा दादा के पीछे, हाथों में अख़बार की रँग कर बनाई झंडियाँ लिए इथर-से-उधर चक्कर लगाया करते थे.
(Hansa Jaye Akela Story)

उन्हीं दिनों गाँव में रामलीला होने को थी. बाबू साहब की पार्टी के राम-लक्ष्मण बने थे. पर रावण बननेवाला कोई नहीं मिलता था. लोग कहते, रावण बननेवाला मर जाता है. कोई तैयार न होता था.

बाबा दशमी के मालिक थे. हंसा कैसे बरदाश्त करता कि लीला ख़राब हो. ऊपर से सुशीला जी लीला ख़त्म होने पर भाषण करनेवाली थीं. हंसा सोचने लगा, क्या हो? सहसा लड़कों ने तालियाँ बजाई और हंसा दादा को घेर लिया. जल्दी-जल्दी काला चोंगा रावण के गले में डाल दिया गया. सिर पर पगड़ी बाँध कर दस मुँहवाला चेहरा हंसा दादा ने पहन लिया. हाथ में तलवार ली और गरज कर बोले, “मैं रावण हूँ, कहाँ है दुष्ट राम?”

एक बच्चे ने अपनी छड़ी में लगा हुआ तिरंगा झट दशानन के सिर पर खोस दिया और सब लोग ज़ोर से हँसने लगे. उसी भीड़ में से किसी ने चिल्लाकर कहा, “गन्हीं महात्मा की जय ! जय हो!”

रावण भाषण देने लगा, “भाइयो! राम राजा था. देखो छोटी जात का कोई कभी राम नहीं बनने पाता है. राक्षस सब बनते हैं. बिराहिम, कालू, भुलई, फेडर, सभी की पालटी है, हमारी. यह जनता की लड़ाई है. बोल दो धावा?” और हंसा हाथ-पाँव हिलाता आगे चल पड़ा. पीछे-पीछे सारी राक्षसी सेना. किसानों के बंदर बने लड़के भी अपना चेहरा लगाए, गदा लिए, जनता की पार्टी में शामिल हो गए. राम बेचारे अकेले बैठे रह गए. रामायण बंद हो गई. तिवारी चिल्लाने लगा, पर कौन सुनता है!

गन्हीं महतमा की जय! हंसा दादा की जय”!

बाबा हँसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे. उनसे कुछ कहते ही नहीं बनता था. राक्षसी सेना के काले रंग में रंगे मुँह और हाथों में तिरंगे झंडे देखकर, लोग राम के लिए खरीदी मालाएँ हंसा के ही ऊपर फेंकने लगे.

इसी बीच सुशीला जी तीर की तरह भीड़ में घसीं, “कौन बना है रावण? क्या तिरंगा इसीलिए है?” उन्होंने हाथ से चेहरे को ठेल दिया. सहसा हंसा को देखकर वह पसीने-पसीने हो गईं.

“यही स्वयंसेवक होने दो रामलीला ठीक से!” !! बदनाम करते हो झंडे को बंद करो यह सारा तमाशा,

“सब लोग अपनी जगहों पर लौट गए. बाबा चुपचाप खड़े थे. सुशीला जी अपना झोला सँभाले उनकी बगल में आ खड़ी हुई.
(Hansa Jaye Akela Story)

लड़ाई चलती रही. नगाड़े और ढोल बजते रहे: संठे के रंगे हुए तीर छूटते रहे. पर रावण मरे, तो क्यों मरे! चौपाई बार-बार टूटती. व्यास बार-बार कहता, “सो जाओ!” पर कौन सुनता है! हंसा की सेना क्यों हारे ?

इसी समय लक्ष्मण को ज़मीन से ठोकर लगी. वह लुढ़क पड़े. उनका मुकुट गिर गया. आगे-पीछे दौड़ते-दौड़ते राम को चक्कर आ गया, और उनको उल्टी होने लगी. सारे मेले में शोर मच गया, “जीत गई जनता की फ़ौज हंसा दादा की पाल्टी ऐसे ही वोट जीत लेगी!”

इधर दिन-रात सुशीला जी खँजड़ी बजाती, घूमती रहतीं और रात हंसा के घर लौट आतीं.

दूसरे दल के लोगों ने चिट्ठियाँ भिजवाई. -सुशीला जी को यहाँ से बुला लिया जाए. जनता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है. चुनाव के दो दिन पहले उन्हें नोटिस मिली कि वह बापू के आदर्शों को तोड़ रही हैं, इसलिए उन्हें काम अलग किया जाता है.

वह हँस पड़ी थीं, ईश्वर ने पति से अलग किया और अब बापू के नकली चेले उन्हें जनता से अलग करना चाहते हैं? उनकी खंजड़ी और ज़ोर बजने लगी. उनका स्वर और तेज़ हो गया.

चुनाव के दो दिन रह गए. सुशीला जी बीमार पड़ गईं. हंसा के घर में उनका डेरा पड़ा था. वह बुखार की जलन सह रही थीं, पर किसी को अपने पास बैठने नहीं देती थीं. रात जब हंसा लौटता, तो वह उससे कहतीं, “तुम सुनाओ अपना भजन”, और हंसा बिना कुछ सोचे-विचारे गाने लगता.

“हंसा जाई अकेला, ई देहिया न रही”

फिर प्रचार का समाचार लेकर, वह उसके रोएँ भरे सीने में मुँह छिपा लेतीं. चुनाव का दिन आ गया, लेकिन सुशीला जी बिस्तर से नहीं उठीं. किसानों की जय-जयकार करती हुई टोलियाँ गुज़रतीं, तो वह अपने बिस्तर में तड़पकर रह जाती. हंसा उन्हें बहुत रोकता, पर वह उठकर उनसे मिलती. बाबा बहुत समझाते, पर न मानतीं.

चुनाव के दिन डोली में उठाकर वह पोलिंग पर ले जाई गई. वहीं पेड़ के नीचे बैठे-बैठे उन्हें कई बार चक्कर आया और बेहोश हो गई.

वोट पड़ता रहा. किसान राजा साहब के कैम्प में खाना खाते, उनकी मोटर में आते, पर ओट डालते कांग्रेस के बक्स में. उन्हें सुराज मिलेगा, उन्हें आजादी मिलेगी, यह सब सोचते थे.

तीसरे पहर ज़ोर की बारिश आई. सुशीला जी छाया में जाते-जाते भीग गई. बाबा ने उन्हें डोली में बैठाकर घर भेज दिया. चुनाव चलता रहा.

हंसा भूत की तरह काम में जुटा था. बहुत देर पर कभी उसे सुशीला की याद आती, तो मन को दबाकर फिर परची बाँटने लगता बहुत कम ओट राजा के बक्से में गिरे. शाम हो गई. राजा का तंबू हारे हुए कर्मचारियों से भर गया. हंसा उन्हें देखकर जाने क्यों क्रोध से जल रहा था. उसे बार-बार सुशीला की याद आ रही थी.

“भइया, कुछ और होना चाहिए.”

“मुझे चले जाने दो, हंसा.”

और पच्चीस-तीस लोग हँसिया लेकर राजा साहब के तंबू की डोरियों के पास खड़े हो गए. कौन जाने क्यों खड़े हैं? हंसा ने विजय का बिगुल फूँका और सारा तंबू एक मिनट में ज़मीन पर था. ज़ोर का शोर मचा. किसानों ने जय-जयकार की, और लोग अपने घरों को वापस चले गए.

सुशीला जी को निमोनिया हो गया. उनकी साँस फँस गई. बाबा रात-दिन उनके पास बैठे रहे. हंसा ने ज़मीन-आसमान एक कर दिया, पर फ़ायदा न हुआ. वह बार-बार महात्मा जी का नाम लेतीं, हंसा से उसका भजन सुनतीं और आँखें बंद कर लेतीं.

चुनाव का नतीजा सुनाया गया, तो नेता लोग मोटर पर चढ़कर सुशीला जी से माफ़ी माँगने आए. पर सुशीला जी ने मुँह फेर लिया, जैसे वह कहती हों, “मैं तुम्हारे करतब जानती हूँ.”

और हंसा उठकर बाहर चला गया.

अंत में एक दिन सुशीला जी की साँस बंद हो गई. हाय मच गई. बच्चे फूट-फूटकर रोने लगे. हंसा ने बकरी के लिए पत्ता तोड़नेवाली लग्गी में तिरंगे टाँगकर, हाथों से ऊपर उठा लिया और अपना बिगुल फूंकने लगा. उसकी हँसी लोगों के मन में भय पैदा करने लगी पर वह हँसता रहा.

आज तक, गन्ही महात्मा, जवाहिरलाल और जनता की फउज, यही तीन शब्द वह जानता है. लड़के अब भी उसे उसी तरह घेरे रहते हैं. पर पहाड़ से तखत को वह उठा नहीं सकता. हाँ, उठाकर ले जानेवालों को देखकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसता है और घंटों हँसता रहता है.

उसके खेत में घास उगी है. मकान ढह गया है. पर लग्गी में फटहा तिरंगा और सुशीला का दिया हुआ बिगुल अब भी टँगा रहता है. कभी-कभी वह गंदे काग़ज़ दीवारों पर साटता फिरता है और कभी सारे गाँव की गलियाँ साफ़ कर आता है. आज़ादी मिली, तो उसे रुपये मिले. राजनीतिक पीड़ित था, वह. पर वह रुपयों की गड्डी लेकर हँसता रहा, और फिर उन्हें गाँव की दीवारों में एक-एक कर टाँग आया.

दो बार लोग उसे आगरे ले गए. पर कुछ ही दिनों बाद फिर ‘हंसा जाई अकेला’ का स्वर गाँव की फिजाँ में गूंजने लगता.
(Hansa Jaye Akela Story)

अब भी कभी-कभी वह आज़ादी लेने की क़समें खाता है. उसके तमतमाए हुए चेहरे की नसें तन आती हैं और वह अपना बिगुल फूँकता हुआ, कभी धान के खेतों, कभी ईख और मकई के खेतों की मेढ़ों पर घूमता हुआ गाया करता है :

“हंसा जाई अकेला…”

मार्कण्डे

मार्कण्डेय (2 मई 1930 – 18 मार्च 2010) हिन्दी के जाने-माने कहानीकार थे. ‘नयी कहानी’ के दौर के प्रमुख हस्ताक्षर रहे मार्कण्डेय हमेशा आधुनिक और प्रगतिशील मूल्यों के हामीदार रहे.

इसे भी पढ़ें : मार्कण्डेय की कहानी ‘गरीबों की बस्ती’

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