समाज

तस्मै श्री गुरुवे नमः – गुरु पूर्णिमा पर विशेष

द्रोणाचार्य पहले राजकीय शिक्षक थे. भीष्म पितामह द्वारा नियुक्त. उनसे पहले भी कुछ रहे होंगे पर उनका स्टेटस कैबिनेट दर्जे वाला रहा. द्रोणाचार्य जी मिलिटरी साइंस में नियुक्त थे. थ्योरी का पेपर होता नहीं था. प्रैक्टिकल आउटपुट पे सैलरी निर्भर करती थी. अपने सब्जेक्ट के एक्सपर्ट थे पर चेलों का आईक्यू तो तब भी मैटर करता ही था. अर्जुन को छोड़कर कोई डिस्टिंकशन नहीं ला पाया. सो अर्जुन का नाम हर समय द्रोणाचार्य के मुंह पर रहता – “बेटा अर्जुन पानी पिलाओ. मेरा धनुष उठा के लाओ. मुझे मगर से बचाओ.” Guru Purnima Special by Devesh Joshi

राजाजी महाराज इंस्पेक्शन पर आते तो – “बेटा अर्जुन वो वाला आम गिरा के दिखाओ.”

प्रोजेक्ट-प्लान वाला सिस्टम तो तब था नहीं पर फिर भी सैलरी टाइम पे मिलती नहीं थी. लाड़ले अश्वत्थामा को बेचारे आटा घोल के पिलाते रहे, दूध के नाम पर. भैंसें भी सब राजकीय थी. दूध रानियों के स्नान के लिए ही पूरा नहीं होता था. प्राइवेट ट्यूशन अलाउड नहीं थी सो ऊपर की कमाई का द्वार भी बंद था. चेलों में यूनियनबाजी तब भी थी. कौरवाज़ एण्ड पांडवाज़ मेन ग्रुप थे. इलेक्शन की जगह नोमिनेशन होता था. गुरुदेव जिसके सर पे हाथ रख दें वो मॉनीटर. समर्पण ऐसा कि नाइट शिफ्ट में भी क्लास लेते थे.

प्रतिभासम्पन्न कर्ण और एकलब्य को एडमीशन न देने के मामले में थोड़े बदनाम भी हुए. पर इसमें उनका दोष न था. स्कूल फाइनेंसर ने ही स्कूल बाईलॉज़ में सिर्फ इलीट क्लास के बच्चों के एडमीशन का प्रावधान कर रखा था. बेचारे आचार्य जी तो वेतनभोगी. वो भी मिली तो मिली नहीं तो कंदमूल. कर्ण की रगों में इलीट क्लास ब्लड था सो वह देर सबेर खुद भी इलीट बन ही गया. पर बेचारा आदिवासी एकलव्य जिसे शर्तिया गोल्ड मैडलिस्ट होना था. पर हाय रे किस्मत! अर्जुन को गोल्ड मैडलिस्ट बनाने के चक्कर में द्रोणाचार्य जी ने एकलब्य का अंगूठा ही ले लिया. कुछ नमक का सवाल था कुछ उच्चाधिकारियों का प्रेशर. बस तब से चेले हर राजकीय शिक्षक को शक की नज़र से देखते हैं. दक्षिणा नाम सुनते ही छेड़ने लगते हैं गुरूजी कैश में दें या काइंड में. गुरूजी शरमा के कहते हैं – “रहने दे अगर नौकरी पे लग गया तो दे देना.” Guru Purnima Special by Devesh Joshi

आदिगुरु (राजकीय) की नौकरी आज के हिसाब से काफी कठिन थी. उन्हें डेपुटेशन पर आउट आफ डिपार्टमेंट भी भेजा जाता था. डिपार्टमेंट भी ऐसा-वैसा नहीं खतरों से भरा डिफेंस. एक दिन के लिए तो कमांड-इन-चीफ भी रहे. अब गुरु से कौन जीत सका है भला सो धोखे से मारे गये.

तब से जैसे परम्परा-सी बन गयी है कि राजकीय शिक्षकों को धोखे से मारने की. सामने पे गुरुर्ब्रह्मा … करते हुए पीठ पीछे सब बड़बड़ाते रहते हैं कि इनसे शास्त्रार्थ में तो पार पाया ही नहीं जाता है और शस्त्र तो जैसे इनके संख्याबल के आगे बेकार ही हो जाते हैं. बस इन्हें अश्वत्थामा की आड़ में मारना है. देखना है कब तक आटा घोल-घोल के दुधमुंहे बच्चों को पालेंगे.

द्रोण अर्थात दोना बोले तो कटोरा. संयोग देखिए कि पहले राजकीय शिक्षक का ही नाम कटोरा प्रसाद (सिंह, चंद्र, लाल अपनी श्रद्धा से लगा लीजिए). इस कटोरे ने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक पीछा नहीं छोड़ा है. सुखद बात ये कि हमारे पहले राजकीय शिक्षक द्रोणाचार्य जी की तपस्थली देहरादून एक प्रदेश की राजधानी बन गया है पर द्रोण के वंशज तो यहां भी कटोरा हाथ लिए ही घूम रहे हैं.  

एक दिन द्रोणाचार्य भरे दरबार में अपने धनुष पर तीर चढ़ाये धमक गए. महाराज की जै हो, बोले बगैर ही सीधे प्वाइंट पे आ गए – “राजन कब तक हमारा शोषण करते रहोगे. कब तक इस नाममात्र की पगार में शिक्षण और युद्ध का जुआ हमारे कांधे लादे रहोगे. सीधे-सीधे बता दो कि मैं एजुकेशन कोर में हूँ या फील्ड यूनिट में. आखिर कब तक आश्रम के नाम पर मुझे निर्जन जंगल में रहना होगा. याद रखना राजन चक्रव्यूह रचने की नौबत न आए. चक्रव्यूह में अच्छे-खासे ढूंढते रह जाते हैं कि किधर इंट्रेंस है और किधर एग्ज़िट.”

द्रोणाचार्य जी पेट और परिवार की खातिर कौरवों की तरफ थे पर मन से हमेशा पांडवों की विजय और समृद्धि की कामना करते रहे. पर जहाँ दुर्योधन, दुःशासन और शकुनि जैसे दुर्बुद्धि हों तो वहाँ पांडवों को वनवास होना ही था. Guru Purnima Special by Devesh Joshi

राजकीय शिक्षक आज भी प्रथम राजकीय शिक्षक द्रोणाचार्य जी को याद करते हुए श्रद्धावनत हो जाते हैं और भूखे पेट सुनते रहते हैं.

तस्मै श्री गुरुवे नमः.

-देवेश जोशी

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

देवेश जोशी का यह लेख भी पढ़ें: धन की देवी का वाहन और मृत्यु का सूचक एक ही जीव कैसे हो सकता है

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

44 mins ago

नीचे के कपड़े : अमृता प्रीतम

जिसके मन की पीड़ा को लेकर मैंने कहानी लिखी थी ‘नीचे के कपड़े’ उसका नाम…

2 hours ago

रबिंद्रनाथ टैगोर की कहानी: तोता

एक था तोता. वह बड़ा मूर्ख था. गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था.…

16 hours ago

यम और नचिकेता की कथा

https://www.youtube.com/embed/sGts_iy4Pqk Mindfit GROWTH ये कहानी है कठोपनिषद की ! इसके अनुसार ऋषि वाज्श्र्वा, जो कि…

2 days ago

अप्रैल 2024 की चोपता-तुंगनाथ यात्रा के संस्मरण

-कमल कुमार जोशी समुद्र-सतह से 12,073 फुट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ को संसार में…

2 days ago

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

6 days ago