खुद तो थे कंगाल गुरुजी कर गए मालामाल गुरुजी !

अभी पन्द्रह दिवस पूर्व ही लघु अमावस्या बीती है. इसे चेला अमावस भी कहते हैं. आज गुरु पूर्णिमा का पावन दिन आया है. आज के दिन उन सभी आत्माओं को मन-वचन से श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर आया है, जिन्होंने जीवन की बगिया, जिसमें जाने कौन माली था कि बस गुलाब ही गुलाब उगाए जा रहा है, से कांटे चुने थे. (मन-वचन के बीच में एक शब्द और था जिसे सायास हटाया गया है.)

आज का पूरा दिन विशेष होता है. प्रातः काल श्रद्धा भावना बलवती रहती है, दिन में वेगवती हो जाती है तो शाम ढलते-ढलते मधुमती हो जाती है. शुरुआत गुरु से ही होती है, फिर दिन में ‘माँ ही पहली गुरु’ वाला चरम प्राप्त कर शाम तक ‘शादीशुदा आदमी का गुरु कौन’ जैसे चुटकुलों के मार्फ़त पत्नी का तर्पण करते हुए समाप्त होती है.

आज के दिन नए कपड़े सिलाए गए हैं. फल,फूल, मालाएं एकत्रित की गई हैं. मिठाई पकवान के थाल सज गए हैं. बस अगरबत्ती वाला इमोजी नहीं मिल रहा है. मिले, तो सबको भेजा जाए मैसेज.

बच्चों के उत्साह का तो कहना ही क्या. अभी-अभी उन्होंने ज्योतिष शास्त्र से आच्छादित, पूर्णिमा वाला खगोलशास्त्रीय पाठ प्राप्त किया है. उनकी आंख मुंदी जा रही है. उन्हें आश्चर्य से ज़्यादा श्रद्धा उमड़ रही है. प्रश्न से ज़्यादा समाधान मिल रहा है. उन्होंने गुरु का भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अर्थ पूछा है, जो गूगल अनुवाद के जरिये मिलने वाला है. बच्चे जितने बच्चे बचे हैं, उतने मुदित हो रहे हैं.

और मुझे…
मुझे साइकिल पर जाते गुरुजी दिख रहे हैं. उनके पीछे स्टैंड पर एक झोला बंधा है. झोले में शायद वही स्टील का टिफिन है, वही एक कपड़े की पोटली, जिसमें क्या था, आज तक किसी को नहीं पता होगा, वही नोट्स भी होगी. झोला उतना ही बड़ा है, उतना ही भारी दिखता है.

गुरुजी एक हाथ से बार-बार उसे पकड़ने के बहाने जांच रहे हैं, कि गिर तो नहीं गया. एक बस धड़-धड़ करते हुए बगल से गुज़रती है. गुरुजी घूमकर देखते नहीं और बाएं… और बाएं चले जाते हैं. किनारे पर सड़क टूटी हुई है, उसपर गड्ढे हैं, गड्ढों में कल की बारिश का पानी. गुरुजी हड़बड़ा कर उतर जाते हैं. साइकिल को शरीर से दूर रखते हुए पार कराते हैं गड्ढा. खुद कूदकर उसपार आ जाते हैं. पैंट के पायन्चे देखते हैं. साइकिल के टायर देखते हैं. पैंट साफ है, साइकिल कीचड़ से बच जाती है, गुरुजी खुश हो जाते हैं, बेहद खुश. गुरुजी कभी मडगार्ड चेक नहीं करते.

बायां पैर पैडल पर रखकर कुछ दूर सरकने के बाद, दाहिना पैर घुमाकर चढ़ जाते हैं साइकिल पर. एक ही बार में. खुश हो जाते हैं गुरुजी. इतने कि साइकिल पर चढ़ते वक्त ये भूल ही जाते हैं कि पीछे एक झोला बंधा है. झोले में टिफिन है, पोटली भी, नोट्स भी हैं.

स्कूल वाली गली बस आने ही वाली है, कि उन्हें याद आता है, साइकिल से गली में चलना मुश्किल होगा. वो उतर जाते हैं. मैं रोकना चाहता हूँ पर आवाज़ नहीं निकलती. इस वक्त गली में बच्चे नहीं होंगे, ये स्कूल का वक्त नहीं है.

गली खत्म होते ही एकदम से एक मंदिर है. मंदिर के सामने स्कूल का गेट. गुरुजी मंदिर पहुंच गए हैं. पंडित जी मुंडेर पर बैठे हैं. वो मुस्काते हैं ‘आज रस्ता फिर भटक गय का हो यादव जी’

गुरुजी का चेहरा एकदम फक्क पड़ जाता है. सफेद! ऐसा लगता है, नंगी पीठ पर किसी ने सन्टी मार दी हो! सन्न रह जाते हैं गुरुजी. फिर खिसियाई हंसी हंसते हैं. ऐसी कि जिसमें आवाज़ नहीं होती. थूक गटकते हैं गुरुजी, उनके होठ सिकुड़ जाते हैं ‘हम त बस… सोचे कि भोले बाबा के दरसन करत चली…’

मैं पीपल के पास खड़ा हूँ. गुरुजी मुझे नहीं देखते. आस-पास से आने-जाने वालों को नहीं देखते. गुरुजी कहीं नहीं देख रहे. मैं उन्हें बताना चाहता हूँ गुरुजी आपको रिटायर हुए सात साल हो चुके हैं!

कह नहीं पाता. मेरे मोबाइल पर एक मैसेज आता है. गुरु पूर्णिमा की बधाई का. इसे पढ़कर मैं हंस देता हूँ. मैं रो देता हूँ. मैं चीख उठता हूँ. मैं चुप हो जाता हूँ. मैं जाते हुए गुरुजी को घेरकर दिखाना चाहता हूँ. गुरुजी पैडल पर बायां पांव टिका चुके हैं. मैं उन्हें नहीं रोक पाता. मुझे अगरबत्ती वाला इमोजी मिल जाता है. मैं वो मैसेज किसी और को भेज देता हूँ.

 खुद तो थे कंगाल गुरुजी 
कर गए मालामाल गुरुजी !

गुड़-गुड़ गोबर छड़ी घुमाई 
हम शक्कर कम्माल गुरुजी !

अंदर-अंदर खग के जैसे 
ऊपर थे बघ खाल गुरुजी !

डस्टर, चॉक के टुकड़े बोलें
पूरे थे शाकाल गुरुजी !

सन्टी धुन पर नाच रहे थे 
हम राधा, गोपाल गुरुजी!

कारों से आगे दिखते हैं 
सईकिल पर बदहाल गुरुजी!

जीने की ना गणित सिखाई 
ऐसे थे घण्टाल गुरुजी !

पथ भटकूँ, महसूल वसूलें
हरिचन्दर चंडाल गुरुजी !
 अमित श्रीवास्तव

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उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).

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Girish Lohani

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