आज संचार क्रांति ने दूरियों को बहुत कम कर दिया है. सिर्फ नंबर डायल कीजिये और हजारों किलोमीटर दूर बैठे किसी अपने से वॉइस या वीडियो कॉल पर बात कर लीजिये. आज किसी की खैरियत जानने के लिए आपको चिट्ठी, पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय लाते हुए डाकिये का महीनों इंतजार नहीं करना पड़ता. लेकिन ज्यादा समय नहीं बीता है जब चिट्ठी हकीकत हुआ करती थी. नब्बे के दशक में सूचनाओं के आदान-प्रदान और मित्रों व सगे संबंधियों की कुशल मंगल जानने का एकमात्र साधन हुआ करती थी चिट्ठी. Grandma and Letter from the Solider Kamlesh Joshi
खासकर उन फौजी परिवारों के लिए जो बॉर्डर में ड्यूटी दे रहे किसी अपने की कुशलता जानने के लिए व्याकुल रहते थे. परिवार में व्याकुल सब लोगों में अपने बेटे की चिट्ठी का बेसब्री से इंतजार जिसे रहता था वह थी आमा.
हर दूसरे दिन वह पूछ ही लेती थी-“ओ नाति देवेकि चिट्टी आ कि ना?” (पोते देव की चिट्टी आई की नहीं?).
“ना आमा अभी तो नहीं आई”.
यह जवाब सुनकर वह उदास सी हो जाती और कहती-“ये बारि तम्मान दिन है ग्यान चिट्ठी ना आई तेर बाज्यू कि!” (इस बार बहुत दिन हो गए चिट्ठी नहीं आई तेरे पापा कि!).
आमा को धीरज बँधाते हुए कहना पड़ता – चिट्ठी आ जाएगी आमा. कभी-कभी डाक आने में टाइम लग जाता है. तू फिक्र मत कर जल्दी आ जाएगी.
“होई ठीके कुन्नैहै तु ले नाति. आई जालि पै थ्वाड़ दिनों में” (हां ठीक ही कह रहा है तू भी नाती. आ ही जाएगी फिर थोड़े दिनों में). इतना कहकर आमा फिर से अपने काम धाम में लग जाती.
गॉंव में डाकिये का आना-जाना हर तीसरे-चौथे दिन हो ही जाता था. हर बार आमा डाकिये को जोर से आवाज लगाकर पूछती- “ओ नाति देवेकि चिट्ठी ले आरे कि?” (ओ नाति देव की चिट्ठी भी आई है क्या?). डाकिया कहता-नहीं आमा अभी तो नहीं आई है. जिस दिन आएगी तो आपके घर ही दे जाऊँगा ना. फिक्र क्यों करती हो! उदास मन से आमा कहती – “बाबू अब फिकर तो हो ही जाने वाली ठैरी ना. एक तो बेटा इतनी दूर हुआ ऊपर से टाइम से चिट्ठी-पतर न आए तो फिकर तो होने ही वाली हुई.”
“हाँ आमा कह तो आप भी ठीक ही रही हो. जब भी चिट्ठी आएगी मैं घर आकर आपको दे जाऊँगा” – डाकिया आमा को उम्मीद बँधाता हुआ अपनी साइकिल में आगे निकल जाता.
चिट्ठी के इंतजार में कई-कई हफ्ते गुजर जाते और जिस दिन डाकिया चिट्ठी लेकर आता उस दिन घर में एक कौतुहल सा रहता. डाकिये की खूब आव भगत होती और उसके जाने के बाद सब उत्सुकता के साथ चिट्ठी सुनने के लिए एक जगह इकट्ठा हो जाते. आमा की ऑंखों में उस दिन अलग ही चमक होती. ऐसा लगता जैसे चिट्ठी नहीं साक्षात उसका बेटा ही आ गया हो. “कि लेखरा ल चिट्ठी में देवेलि? कस है रो? छुट्टी कब ऊंनो? तबियत कस हैरे वीकि?” (क्या लिखा है चिट्टी में देव ने? कैसा है वो? छुट्टी कब आ रहा है? तबीयत कैसी है उसकी?) – चिट्ठी पढ़े जाने तक आमा ऐसे सैकड़ों सवालों की बौछार कर देती. अपने बेटे की कुशल मंगल सुनकर उसके चेहरे का सुकून देखने लायक होता था. ऐसा लगता था मानों महीनों का बोझ उसके सिर से उतर गया हो. Grandma and Letter from the Solider Kamlesh Joshi
चिट्ठी के जवाब में घर के तमाम लोग छुट्टी आने पर कैंटीन से लाए जाने वाले सामान की फरमाइश लिखवाते थे. लेकिन आमा-बूबू सिर्फ इतना लिखवाते थे कि खाना ठीक से खाना और पीना कम-कम करना. कब और कितने दिन की छुट्टी आएगा अगली चिट्ठी में जरूर लिखना. आजकल चिट्ठी लिखने में बहुत टाइम लगा देता है तू. हमें यहाँ फिक्र लगी रहती है इसलिए जल्दी-जल्दी चिट्ठी लिखना. अपने बेटे की सलामती के सिवाय उनके लबों पर और कोई फरमाइश नहीं होती थी. खासकर उन दिनों में चिंताएँ बहुत ज्यादा बढ़ जाती थी जब बॉर्डर में हालात खराब होने की खबरें रेडियो पर आती थी. सेना से संबंधित खबरों को पूरा परिवार बहुत ही ध्यान से सुनता था और हमेशा यही दुआ करता था कि बॉर्डर में हालात सामान्य बने रहें बस.
कारगिल की लड़ाई के दिनों ने बैचेनी बढ़ा दी थी. रेडियो में हर दिन कश्मीर में बढ़ रहे तनाव और सैनिकों की बढ़ती तैनाती ने फौजी परिवारों की नींद उड़ा रखी थी. आमा को रेडियो की ज्यादा समझ नहीं थी लेकिन सरल शब्दों में उसे बताना होता था कि आखिर कारगिल और कश्मीर में चल क्या रहा है. पाकिस्तान को गाली देती हुई आमा कहती – “आग लागो तै पाकिस्तान ला.” (आग लगे इस पाकिस्तान में). जंग के हालातों के इस दरमियान चिट्ठियों का महत्व बहुत बढ़ जाता था. रेडियो में चल रही खबरों के दौरान जैसे ही चिट्ठी आती थी परिवार में सबकी सॉंस पे सॉंस आती थी. तब हर पल मुँह से बस यही दुआ निकलती थी कि बॉर्डर में जंग न हो क्योंकि पिछली कुछ जंगों को देख सुनकर समझ में आ गया था कि जंग से कुछ हासिल हो या न हो लेकिन दोनों तरफ के सैनिकों की शहादत के साथ-साथ उनके परिवारों की जिंदगियों में विराम सा लग जाता है और कभी न भुलाया जाने वाला गम जीवन भर अंदर ही अंदर उन्हें कचोटता रहता है.
कारगिल का युद्ध शुरू होने वाला था और रेडियो में युद्ध की खबरों से पूरे देश में हलचल थी. हर कोई कारगिल में होने वाली लड़ाई पर ही चर्चा करता हुआ पाया जाता था. वो लोग खासकर ज़्यादा युद्धोन्मादी रहते थे जिनका अपना कोई फौज में नहीं होता था. वो अमन, शांति और बातचीत से ज़्यादा गोली और बारूद से मसले को सुलझाने के पक्ष में रहते थे. दूसरी तरफ फौजी परिवारों का दिन का चैन और रात की नींद गायब सी हो गई थी. आमा कहती थी इन लड़ाईयों से क्या हासिल हो जाएगा सिवाय उन मासूम बच्चों के मरने के जो कठिन परिस्थितियों में भी अपने देश की रक्षा के लिए बॉर्डर में तैनात रहते हैं. अपने बच्चे को खोने का दुख तो एक फौजी की मॉं और उसका परिवार ही जानता है. नेताओं का क्या है! सांत्वना के नाम पर घड़ियाली आंसू बहा देंगे और अपनी नेतागिरी चमकाते रहेंगे. वह गुस्से में दोनों देशों की सरकारों और नेताओं को कोसती हुई कहती – “लड़ाई के बातो समाधान थोड़ी भै. आग लागो तन सरकारों ला और बजर पड़ो तन नेताओं कि अक्ल में जनूल तौ लड़ाई लगा रा.” (लड़ाई किसी बात का समाधान थोड़े ही है. आग लगे इन सरकारों को और पत्थर पड़ें इन नेताओं की अक्ल में जिन्होंने ये लड़ाई लगाई है). Grandma and Letter from the Solider Kamlesh Joshi
–कमलेश जोशी
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नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
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वाह दादा👏👏