इस शताब्दी के पांचवें दसक के अन्त में आ चीनी विस्तारवादी ड्रेगन के खूनी पंजों में फंस कर जब तिब्बत का कमजोर कबूतर लहूलुहान हो गया, तो मानसरोवर गंवा कर तत्कालीन भारत का पंचशीली राजहंस अपनी गर्दन उठाकर सुरक्षा के लिए चिन्तित हो उठा. इसी विलम्बित-चिंतन के फलस्वरूप उत्तर-प्रदेश को तिब्बती सीमा से लगे तीन सीमान्त जनपद चमोली, पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी का 18 फरवरी, 1960 को नवसृजन किया गया.
(Gopeshwar in 1982)
पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी के प्रशासनिक मुख्यालय पूर्व से ही सुविधाजनक और सुव्यवस्थित थे. किन्तु चमोली अलकनन्दा नदी के बाएं तट पर एक अत्यन्त छोटे से ‘बगड़’ पर बसा था जिसमें नए स्थान को ढूंढा जाने लगा. इस कार्य को लिए बहुत पहिले- ही दूरदर्शी अंगरेज उपायुक्त बरनेड ने किया था. उसने गढ़वाल-गजेटियर में इसी जनपद के अन्तर्गत गौचर- टाउनशिप की योजना, सहित मानचित्र व नक्शों के रूपवाई की और बतलाया कि गौचर सभी दृष्टिकोण से जनपद चमोली के मुख्यालय हेतु सर्वोत्तम स्थान था.
किन्तु यह एक बिडम्बना ही है कि हमारे प्रशासनतंत्र का रवैया कछुए के साथ दौड़- प्रतियोगिता तय करने वाले उस अति आत्मविश्वासी खरगोश की तरह रहा है, जो सफलता की गारंटी से आश्वस्त होकर अपनी समस्याओं की फाइल सिरहाने रख कर, निद्रामग्न हो जाता है. किन्तु जब समस्याओं का कछुआ धीरे-धीरे जटिलता की लाइन पार करने को होता है तब जा के हमारे प्रशासनिक खरगोश की नींद टूटती है और हड़बड़ाहट में उसे छोड़कर भी लक्ष्य तो प्राप्त सही ही होता, उल्टे वह अपनी आपा-धापी की मुद्राओं को दिखाकर एक हास्यास्पद-स्मृति अवश्य छोड़ जाता है.
इस जनपद के मुख्यावास के चयन और निर्माण में भी ऐसा ही कुछ हुआ. टिप्पणियों, रिपोर्टों आदि की स्वीकृति-अस्वीकृति के कागजी-घोड़े हर स्तर पर दौड़ते-दौड़ते थक कर लालफीतेशाही के अस्तबलों में सुस्ता ही रहे थे कि भारत की सीमाओं पर युद्ध के बादल मंडराने लगे और चमोली जनपद की सीमा पर बाड़ा-होती तक चीनी सैनिक पहुंच गए और 1962 में तो चीन ने भारत पर खुला आक्रमण कर दिया. राम-राम करके खतरनाक दौर गुजरा तो सन् 1963 में जल्दबाजी में चमोली से लगभग 10 किमी ऊपर एक प्राचीन धार्मिक स्थल गोपेश्वर में, बिना किसी उपयुक्त प्रयास के तत्कालीन नौकरशाहों ने एक खड़ी पहाड़ी पर लाखों रुपए खर्च कर के एक अनियोजित एवं असम्बद्ध बस्ती का निर्माण कर दिया. अवस्था और यही अब सीमान्त जनपद चमोली गढ़वात का नया सदर मुकाम है.
(Gopeshwar in 1982)
इस बस्ती को देखकर अब कोई भी नहीं सोच सकता कि यह वही प्राचीन गोपेश्वर है जिसका एक महान धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व रहा है. जिसके प्रमाण इसके निकटस ग्राम सिरोली के 6वीं शताब्दी के नागशिला लेख और महान् प्रतापी सम्राट अशोक चल में गोपेश्वर के आकाश भैरव मन्दिर में यह पीतल के त्रिशूल फलक पर लिखी विजय-गाथा के वर्णन से खेलते है. गोपेश्वर समस्त उत्तराखण्ड के चक्रवर्ती सम्राट अशोक चल की राजधानी रह चुका है. इस सम्राट के बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) तथा गोपेश्वर में गढ़े हुए 22 फुट ऊंचे पीतल के त्रिशूल-ए-फलक, लेख में इसे “सवा लाख शिखरों वाले खस-प्रदेश (उत्तराखण्ड) का सम्राट” कहा गया है, जिसका राज्य जालंधर- खण्ड (हिमाचल) से लेकर पूर्व में नेपालखण्ड के बोडती क्षेत्र तक विस्तृत बताया गया है. गोपेश्वर का त्रिशूल लेख अभी पूरा नहीं पढ़ा जा सका है जिसे पढने का प्रयास किया जा रहा है.
स्कन्दपुराण के केदारखण्ड ग्रन्थ में पंचकेदार तीर्थो में से गोपेश्वर भी एक है. यह क्षेत्र में कभी जैन मुनियों की भी साधना स्थली रही है. मान्यता है कि ऋषभदेव जी को जो शिवगति हिमवान् के अष्टापद पर्वत पर प्राप्त हुई थी, वह अष्टापद-पर्वत इसी जनपद में स्थित गन्धमादन पर्वत अथवा चौखम्भा ही है. बाद में यहां के जैन धर्मावलम्बी ब्राह्मण-धर्म में समाहित हो गए, जिनमें डिमरी गैरोला आदि ब्राह्मणों की जातियों प्रमुख हैं जो मात्र ऐसी जातियां थीं जो उत्तराखण्ड में अनेकों पीढ़ियों तक पूर्ण शाकाहारी रही है. किन्तु अब न तो गोपेश्वर का वह प्राचीन रूप रहा और न वह आधुनिक ही बन पाया है और लगे हाथ आधा तीतर आधा बटेर बन कर रह गया है.
(Gopeshwar in 1982)
जिस जनपद में भारत का सर्वोच्च नन्दादेवी शिखर हो. सिजन-संचित हेमकूट और दिव्य गन्धमादन पर्वत हो, बद्री-केदार जैसे धाम हों, जहाँ कुबेर की नगरी अलकापुरी और भ्यूडार का विश्वविख्यात पुष्प-कानन हो, जहाँ की घाटी-घाटी और पर्वत-पर्वत पर यक्ष, किंनर, गन्धर्व व विद्याधर अपनी मरकुल-वेणु पर त्रिपुर विजय के गीत गाते फिरते हो, जहां शाश्वत हिमरेखा के नीचे ‘प्यार’ और बुग्यालो’ बुग्गीदार रेशमी घास के सपाट मैदान हो, जहाँ की सदानीरा नदियों व सरोवरों में ब्रह्मकमल प्रस्फुटित होते हो और सुनहरी ट्रॉट मछलियां तैरती हो, जहाँ की सुरम्य मन्दाकिनी उपत्यमा में कभी महाकवि कालिदास ने जन्म लिया हो. जहां गंगा की प्रमुख धारा अलकनन्दा का प्रभव-अचल हो. जहां मानसरोवर तक आने-जाने का राजहंसो का “हंस-द्वार” हो, जहां इन्द्रधनुषी छटावाला, मुन्याल और कस्तूरी मृग, भोज-बनों में किलोल करते हों, ऐसे जनपद का मुख्यालय वर्तमान गोपेश्वर, किसी भी दृष्टिकोण से उसके अनुरूप नहीं है.
गोपेश्वर के प्रमुख कार्यालयों पर तो वही कहावत लागू होती है कि बाबा सोयें या घर में और पाँव पसारे वा घर में. मुख्य दफ्तर कहीं और उन से सम्बद्ध दफ्तर और कहीं. बस और टैक्सियों मन्दराचल की व्यथमी के समान सीधे खड़े उस. गोपेश्वर नामक नगर की तलहटी में ही सवारियों को उनके भाग्य के सहारे छोड़कर अपना मुंह मोड़ लेती हैं. मुख्य सड़क फिर उस पर्वत को चौतरफा सर्पाकार लपेटते हुए ऊपर, ऊपर और फिर इतने ऊपर पहुंचती है कि कि अवधि जिसे सिर ऊंचा कर देखने मात्र से चक्कर आने लगते हैं. किसी कार्यालय से सम्पर्क करना है या काम करवाना है तो पांच हजार फिट से लेकर सात-आठ हजार फिट ऊपर तल का या तो पैदल ही पर्वतारोहण करना ही पड़ेगा. यदि टैक्सी करना चाहेंगे तो पहिले तो कोई भी तय्यार नहीं होगा और अगर होगा भी तो मुह मांगा किराया देने दिन के लिए आपका बटुवा मोटा होना चाहिए.
लगता है कि इस कथित नगरी-निर्माता राजा भोज ने केवल अपने राजरथ का ही ध्यान रखकर ही यह राजपथ बनाया होगा, कि गंगू तेली की दो टांगोंवाली ग्यारह नम्बर की गाड़ी का नहीं. राजरथ चले मान चले, जनपद के अनेको गंगुओं को रोज ही वे चढ़ाइयां चढ़-चढ़कर दफ्तरों के चक्कर काटने ही पड़ेंगे. किन्तु विडम्बना तो यह है कि जो दफ्तर के जितने अधिक महत्व का है वह खड़ी पहाड़ी पर उतनी ही अधिक कमाई करता है जो महक और को खड़ी पहाड़ी पर बसा कार्यालय तो खैर सरकार की बननीति के ही अनुरूप सर्वोच्च शिखर पर अम्बर बादलों के बीच ओझल ही रहता है. ताकि सनद रहे और किसी की नजर न लगे.
(Gopeshwar in 1982)
ब्रिटिश काल में विदेशी अंग्रेज प्रशासकों ने, अपने निवास-पहलों में भवन बस्तियों से काफी दूर बनवाएं थे जहां आदमी नामक मक्खी तक न भिनक सके के बहुत साल बाद उनकी नीति कुछ समझ में आती थी. किन्तु आजादी के बाद इन बस्तियों के साहबी-निवास भी अंग्रेजों के मानस पुत्रों द्वारा अलग-अलग पहाड़ियों पर बनवाए गए हैं ताकि मानव गन्ध तक वहां न पहुंच पाए और उन्हें एकान्त में कुछ भी स्याह-सुफेद करने की आजादी रहे.
जवान से जवान आदमी की यहां एक ही दफ़र में आने-जाने में सांस फूल जाती है और उसे यदि काम कई दफ्तरों में हो तो कई दिन कमर पर पटुवा बाँध कर आने चढ़ना-उतरना पड़ेगा. यदि कोई आसामी कमजोर, रोगी, बूढ़ा या अपंग हो तो उसको तो कहीं पर भी खाट खड़ी हो जाने का अंदेशा बना ही रहता है. और एक सरकारी वाहन सम्पन्न अफसर या कर्मचारी हैं कि पैदल चढ़ाई चढ़ रहे इन गरीब सुदामाओं में मुंह पर मुफ्त सरकारी पैट्रोल का पवित्र धुंआं छोड़ते हुए चोटी देर-चोटी भढ़े ही चले जाते हैं.
गोपेश्वर बस स्टैंड के पास से एक ऊबड़-खाबड़ सड़क पश्चिम की ओर गुजरती है जिसकी दोनों ओर कच्चे-पक्के खोखों की लाइनें सी बनी हुई हैं और शायद इन्हीं को कुछ दूर तक यहां के लोग मजाक में गोपेश्वर का सदर बाजार कहते हैं. नगर न होने पर भी यहां एक में नगरपालिका है. जिसको इस ऊंच स्थल पर बढ़ती हुई गन्दगी को देखते हुए नगरपालिका कहते जी नहीं चाहता है. लेकिन अपनी सरकार की तो तारीफ ही करनी पड़ेगी कि इस प्रदेश में नगर बाद में बसते हैं पहिले-ही घोषित हो जाती हैं, ताकि तहबाजारी और हाउस टैक्स परन्तु नगरपालिक रूप में नागरिकों की जेबकतराई शुरू से ही प्रारम्भ की जा सके चाहे चुनावी ना बजता ही रहेगा. “व्यक्ति इस कथित नगर में दिन बिताकर नीचे श्री बदरीनाथ मार्ग पर बसे नगरों और कस्बों की ओर फूट चाहता है ताकि दिन भर की टूटी हड्डी-पसलियों को रात में तो राहत मिले. लेकिन तौबा कीजिए. चार बजे के बाद आपको ढोने लिए कोई भी वाहन नहीं मिलेगा. दिन भर गरीब का वैसे ही बटुवा सिकुड़ चुका होता है.
(Gopeshwar in 1982)
अब रात में गोपेश्वर के कथित होटलनुमा अस्तबलों में बटुवा विचुड़ने के साथ-साथ खटमल और पिस्सुओं द्वारा रहा-सहा खून भी निचोड़ लिया जाएगा. लगता है परिवहन विभाग, सुविधाशुल्क भोगी तंत्र, होटल वालों और उनके रक्तपिपासु खटमल पिस्सुओं की मिली भगत से ही शाम को चक्का जाम कर दिया जाता होगा. अब कोई जहांगीर का जमाना तो है, नहीं कि घंटा बजा कर चर से फरियाद की और पर से सुन लिया जाया. यहाँ डिग्री कॉलेज स्तर तक की शिक्षा संस्थान में खेलकूद के मैदान नहीं है. पुस्तकालय है, किन्तु पुस्तकें नहीं हैं. पर्यटन के नक्शे में है किन्तु पर्यटक-गृह नहीं है अस्पताल है किन्तु औषधियां नहीं है. मन्दिर है, पर भगवान नहीं. शरीर है पर आत्मा नहीं.
तात्पर्य यह कि गोपेश्वर बुलवल के उस गांव की तरह है जिसमे कुएं तो तीन हैं, पर दो अन्धे हैं और एक में पानी ही नहीं है. यदि होटलों में बर्तन भांजने का उद्योग, उद्योगों की सूची में नहीं आता तो फिर यहां के गरीब युवकों के लिए कोई भी उद्योग नहीं है. केवल सरकार की मद्यनिषेध योजना की कृपा से आस-पास के ग्रामों में गृह उद्योग के रूप में अनियंत्रित दारू की आसवियों का उत्पादन और विषणन खूब फल-फूल रहा है. जाहिर है कि इसी उत्तम उत्पाद के कारण विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में भी लोगों को गम-गलत करने का सहारा मिल रहा है.
अब जैसा कुछ भी है, सामने है. गढ़वाल के इस सुन्दरतम जनपद के मुख्यावास को उसी के अनुरूप बनाया जाना तो उचित है ही, साथ ही यह एक सामरिक महत्व के सीमान्त जनपद का भी मुख्यावास है . तिब्बती-सीमा बन्द होने से पूर्व इस प्रदेश के घर- घर में ऊनी वस्त्र, गलीचे, कम्बल और शुलओं की बताई बुनाई के गृह उद्योग चलते थे. मूल्यवान जड़ी-बूटियों के उत्पादन में भी यह जनपद अति सम्पन्न है. आवश्यकता है इन गृह उद्योगों को पुनर्जीवित करने की. गोपेश्वर के खोना बाजार के व्यापारियों को उत्तर शर्तों पर ऋण देकर सचमुच का ही सदर-बाजार बनाया जाय. बस स्टेशन चढाई की तलहटी के बजाय पहाड़ी पर बसी बस्ती के मध्य में बनाया जावे और उपमार्ग बनाकर नियंत्रित किराए पर छोटे कहनों की नगर-सेवा का प्रवन्ध किया जाय और मुख्य मार्ग के नगरों-कस्बों के लिए पांच बजे शाम के बाद तक परिवहन सुविधा सुव्यवस्थित की जाए. क्रीडास्थलों, पर्यटक गृहों, अच्छे होटलों, पुस्तकालयों की स्थापना के साथ-साथ इस सीमान्त-नगर में, दूरदर्शन एवं आकाशवाणी के उपकेन्द्र भी शीघ्र चालू किए जाते अपरिहार्य हैं.
(Gopeshwar in 1982)
अन्ततः गोपेश्वर के वर्तमान अस्थि-पंजर में विकास की प्लास्टिक सर्जरी द्वारा मांस और त्वचा का रोपण किया जाना तो जरूरी है ही किन्तु इससे भी पूर्व जरूरत है इसमें प्राण प्रतिष्ठा कर सकने वाले किसी कल्पनाशील धन्वन्तरी की और फिर आवश्यकता होगी किसी कुशल वास्तुविद विश्वकर्मा की, जो इस अनगढ़ गढ़ी जा चुकी नगरी को कुछ तो सुगढ़ बना सके.
भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’
नोट – भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी का यह लेख 1982 का है.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…