गुडी गुडी डेज़
-अमित श्रीवास्तव
बतकुच्चन मामा फैल गए थे. ये बात उनको नागवार गुज़री थी. वैसे तो अपने ख़िलाफ़ चूं भी उनको नागवार गुज़रती थी ये तो चों थी. उन्होंने फनफनाते हुए लौंडों को देखा और फुंफकारते हुए बोले `इतनां भींषण लांछन? जब कीं तुम सब लोग जानते हों कि ये नक्की मैंने नहीं बांधी. अरे ये तो पहले से ही चल रही है’
मामला पेचीदा हो गया था. हुआ यों था कि गुडी गुडी मुहल्ले के आउटर में गुप्तजी के घर के अंडर ग्राउंड वाले कमरे में हर गर्मी की छुट्टियों की भाँति इस बार भी लाइब्रेरी कम रिफ्रेशमेंट सेंटर बनाया जा रहा था. फाउन्डेशन पड़ चुका था जिसमें कुछ दरियां, एक टेबल फैन, सुराही-गिलास, कैरम बोर्ड, लूडो जैसी भौतिक सुख सुविधाएं जुटा ली गईं थीं और मानसिक और आध्यात्मिक व्यायाम के लिए नंदन, मधु मुस्कान, चाचा चौधरी जैसी तमाम कॉमिक्स और पत्रिकाओं की आपूर्ति वस्तु-विनिमय और कदाचित, कहीं कहीं पुनर्विनियोग के माध्यम से चल रही थी. ये सारा काम घरवालों से छुपाकर टॉप सीक्रेट तरीके से किया जाता था. फिर भी घर वालों की निरन्तर बढ़ती हुई घ्राण शक्ति कहिये, तस्करों की खिसकड़ई कहिये, तरीकों में परम्परागत लूप होल कहिये, घरवाले इन क्रिया कलापों को जानने के लिए चूं-चां करने लगे थे.
अधिप्राप्ति नियमावली, जो तत्समय लागू थी, के अनुसार अदला-बदली प्रणाली, सिंगल विंडो सिस्टम और वन-बुक वन-मैन नियम घोषित किया गया था. अदला-बदली ही सर्वमान्य थी क्योंकि उस दौर में वो वाला फॉर्मूला फैशन में था जिसमें कहा गया था कि फंलाना चीज़ को न तो बनाया जा सकता है, न ही नष्ट किया जा सकता है बस उसे `इस’ से `उस’ में बदला जा सकता है. सिंगल विंडो क्योंकि तहखाने की तीन में से एक ही खिड़की, जो आँगन के पार द्वार के पास खुलती थी, वही चलायमान थी. वन-बुक वन-मैन इसलिए क्योंकि भले ही झुण्ड के सदस्यों में से कोई भी किसी अन्य झुण्ड से किताबों के एक्सचेंज के लिए बात कर सकता था लेकिन आख़िरी मुहर लगाने का अधिकार झुण्ड के लीडर को ही था. वो दी जा रही किताब और मिल रही किताब को फ्री एंड फेयर तरीक़े से कम्पेयर करता और ट्रेड को हरी झंडी दिखाता.
मोटा-मोटी तय यह था कि राज कॉमिक्स के बदले राज कॉमिक्स ली जाएगी डायमंड के बदले डायमण्ड. अगर नए अवतरित हुए सुपर कमांडो ध्रुव या डोगा या `कर बुरा हो भला’ फेम बांकेलाल की अदला-बदली होगी तो चूंकि उनकी आमद अभी नई-नई है अतः उनकी मोटाई के बराबर ही प्रतिपूर्ती की जाने वाली कॉमिक्स की मोटाई होगी. नंदन, मधु मुस्कान या पराग का मामला और भी सीधा था. एक के बदले एक. चम्पक एडिशनल फ्री गिफ्ट की तरह आती थी. पॉकेट बुक्स का मामला फिक्स नहीं हो पाया था क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ता था. अभी उन्हें अन्य किताबों या रफ रजिस्टर के बीच ही पढ़ा जाता था.
द डील इन क्वेश्चन जिसपर घरवालों ने चूं चां और लौंडों ने चों कर दिया था उसमें दूसरे मुहल्ले से चाचा चौधरी की तीन कॉमिक्स मिलने वाली थीं जिसके बदले तेरह दूसरी कॉमिक्स दी जाएँगी. अभी डिलीवरी नहीं हुई थी लेकिन जो कौल दिया गया था वो लीक हो गया था. तीन का तेरह! हद्द है! आरोप संगीन था. बनवारी मिश्रा उर्फ बतकुच्चन मामा इस आरोप से आहत बैठे थे. ये डील उन्होंने ही फाइनल की थी क्योंकि वर्तमान झुण्ड प्रबन्धक वही थे. कुछ ही सालों पहले यहां आगमन हुआ था और आते ही उनकी बात की धाक जम गई थी. ऑफिशियली वो सुग्गा मिश्रा के मामा थे अन-ऑफिशियली (प्राइवेटली नहीं टेक्निकली) सबके. दरअसल मामा शब्द डबल एज़्ड वेपन था. लोगों को लगता था कि वो मामा हैं लेकिन दरअसल वो मामा बनाते थे. मामा सुबह-सुबह उठते ही एक शिगूफा छोड़ते. इस छोड़ने की क्रिया में उनके अंग प्रत्यंग भाव भंगिमाएँ और बोल कमाल की टीम स्पिरिट से चलते. जो भांजे प्रवित्ति के लोग थे वो तत्काल उसे लपक कर भजन में लग जाते जो जीजा प्रवित्ति वाले थे वो भंजक की भंगिमा में आ जाते. जिनकी कोई प्रवित्ति नहीं थी वो इन दोनों के बीच भजन और भंजन की आवृत्तियों में सरल लोलक की तरह डोलते रहते. कुल मिलाकर लगभग हर सुबह मामापने से भभाती रहती.
ऐसा प्रतीत होता था कि मामा स्क्वैश के भी अनूठे खिलाड़ी थे. शाम वो कोर्ट सजाते. पहली सर्विस मारते फिर दीवार के पीछे खड़े हो जाते. पूरा मुहल्ला उस एक सर्विस को रिटर्न-फिर रिटर्न-फिर रिटर्न में लग जाता. जब तक हॉट बॉल स्थिति तक पहुँचते लोग, सर्विस लाइन पर दूसरी सर्विस पड़ जाती फिर मुहल्ला रिटर्न-फिर रिटर्न-फिर रिटर्न में लग जाता. कुल मिलाकर लगभग हर शाम मामापने से रिरियाती रहती. ऐसे सुपर एक्टिव मामा के हाथ प्रबन्धन होना, जैसा कि कहने का चलन है, मामा का नहीं प्रबंधन का सम्मान था.
बतकुच्चन मामा ने आरोपों से साफ़ इंकार कर दिया. गन्दा इनकार कैसे करते सफाई पसंद होने की छवि थी. तीन तेरह करते हुए सफाई दी कि ये मुआमला तो पहले से ही फिक्स है. उनसे पूछो जिनने फिक्स किया.
बतखोर चा को बुलाया गया. वैसे उनका नाम बतखोर नहीं था. कैसे हो सकता है? ग़मखोर थे. आप ग़मखोर से बतखोर निकालना लेखकीय स्वतंत्रता की पराकाष्ठा भले मान लें लेकिन आगे चलकर इस बात से इत्तेफ़ाक रखेंगे कि लेखक ने मुहल्ले के प्रचलित प्रतिमानों का ही निर्वाह किया है. कुल जमा व्यक्तित्व से उनकी ग़मखोरी हवाखोरी की तरह स्वतः प्रस्फुटित नहीं दिखती थी. कहते हैं न कि `कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी यूं कोई बेवफ़ा नहीं होता!’ उनका असली नाम घनश्याम था. नाम के अनुरूप अक्सर घुमड़े रहते पर बरसते नहीं थे. आज भी बस कुछ छींटे उड़ाए. मामला थोड़ा गीला हुआ बस. कहा कि उन्होंने तो पुराना फ़ॉर्मूला ही लगाया था एक के बदले एक. जैसे तो तैसा. जैसी करनी वैसी भरनी. पर जो खुल रहा है वो इससे अलग है.
बतकुच्चन थोड़ा सम्भले. टाल-मटोल से तर्क पर आए. तीन का तेरह के बारे में उनका कहना था कि हम पुराना माल दे रहे हैं और मिलने वाला एडिशन नया है इसलिए. जब कहा गया कि नए पुराने से क्या? पढ़े अनपढ़े से होना चाहिए तो कहा कि पुरानी डील जाड़ों में हुई थी अभी गर्मियां हैं इसलिए. जब कहा गया कि इन किताबों में `चंदामामा’ एक भी नहीं है जो घटे – बढ़े तो कहा कि मिलने वाली लिस्ट में राजन-इक़बाल की कुछ पॉकेट बुक्स भी हैं इसलिए. घबराकर जब कहा गया कि हममें से उसका शौक़ीन तो कोई नहीं है तो कहा कि जब बात नक्की हुई थी तब मिलने वाली कॉमिक्स लाल रंग की थी ये नीली-हरी इस्टमैन कलर टाइप है इसलिए. फिर कहा कि देखना तुम लोग जो मिलेगी किताब उसमें सब बड़े बड़े अक्षरों में लिखा होगा, पढ़ने में मज़ा आ जाएगा कहते-कहते बतकुच्चन तर्क से कुतर्क और फिर वहां से कुक्कुर तर्क तक आ गए थे `मुझ पर आरोंप लगाते हों? मुझपर? अरें… लगानें सें पहले उनकी जेब देखो जो मुझसे पहले खेल रहे थे फिर चाहो तो मेरां झोलां चेक कर लों…’ जिसका ईको ‘अब ई हमरा इलाका हैं इंहा अब बस हम गीला-सूखां कर सकते हैं’ जैसा कुछ हुआ!
मामला और उलझ गया. इसी उठापटक के बीच कुछ उत्साही सदस्य दूसरे मुहल्ले से भी विकीलीक्स कर लाए जो हमारे झुण्ड के पवन पुरनिया की तरफ इशारा करते थे. अंडर ग्राउंड के प्राइम मेंबरशिप प्लान में एक नए सदस्य पवन पुरनिया शामिल हुए थे. पॉकेट बुक्स के नए लती थे. उन्हीं के लिए सम्भवतः ये मेमोरेंडम ऑफ अंडर टेबल जैसी छेड़-छाड़ की गई थी. क्यों इसका जवाब उनके पीले बक्से में था. उनके पास एक पीला बक्सा था. उसमें बहुत सी किताबों के साथ आर्ची नामक कोई विदेशी कॉमिक्स भी थी जिसके फ्रंट पेज पर छपी वेरोनिका की फोटो पर कइयों का ईमान डोल जाता. वो गाहे-बगाहे उसकी झलक दिखा देते थे. उनको नाराज़ करना इस खूबसूरत खजाने से हाथ धो लेना था. इसलिए, लोग उनसे बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहते थे.
बात बढती देख कर शब्द-अर्थ, शब्द-पर्यायवाची, शब्द-विलोम, शब्दार्थ-उदाहरण वाली परम्परागत विभाजक रेखा पद्धति का रास्ता लिया गया. एक रफ़ कॉपी के सबसे पीछे के पन्ने पर बीच में से दो फाड़ करते हुए एक रेखा खींची गई. बाईं तरफ डील पर लगे आरोप लिखे गए और दाहिनी तरफ सफाई. बतखोर और बतकुच्चन बोलते जाते और उसका अंकन खानों में होता जाता. बात पर बात निकलती जाती. फिर अगले पन्ने पर बाईं तरफ आरोप पर लगे आरोप लिखे गए और दाहिनी तरफ आरोप पर सफाई. फिर अगले पन्ने पर बाईं तरफ़ सफाई पर आरोप लिखे गए और दाहिनी तरफ सफाई पर सफाई. फिर… धीरे-धीरे उसे पढ़कर समझना मुश्किल हो गया कि आरोप किसपर है, सफाई किसे देनी है? आरोप क्या है, सफाई क्या है? डील क्या है, कौल क्या है? कॉमिक्स क्या है, पॉकेट बुक क्या है? पढ़ना क्या है? … क्या क्या है?
मामला जलेबी की तरह ऐसे घूमा कि रफ वाटर्स में नहीं डील रफ ऑयल में ही पड़ गई. लौंडे आजतक निष्कर्ष की चाशनी के तार गिन रहे हैं.
लेकिन उस मनबढ़ का क्या जो इतने रफ़ खेल के बाद भी फेयरप्ले ट्रॉफी मांग रहा था? (जानने के लिए पढ़ते रहें गुडी गुडी डेज़)
डिस्क्लेमर– ये लेखक के निजी विचार हैं.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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