समाज

लकड़ी की पाटी, निंगाल की कलम और कमेट की स्याही : पहाड़ियों के बचपन की सुनहरी याद

करीब एक फीट चौड़ी तो डेढ़ फीट लम्बी और आधा इंच मोटाई की तख्ती. इसकी लकड़ी होती रीठा, पांगर, तुन, अखरोट, खड़िक, बितोड़, चीड़ या द्यार-देवदार की, जिनके सूखे गिंडों को आरे से काट बसूले से छील रंधे से रगड़ बिलकुल चिकना समतल ऐसा बना लेते कि हाथ फिसल जाए. सारे रेशे एकसार. इस तख्ती को कहते पाटी. इस पर तारपीन का तेल चुपड़ा जाता. वैसे भी बिना लिसा निकाली चीड़ दयार कि लकड़ी बड़ी मजबूत होती. इस पर लिसे-तारपीन -दयार के तेल को रगड़ चुवा इसे और मजबूत और चिकना बनाया जाता.
(Golden School Memories in Uttarakhand)

लकड़ी की इस पाटी के चौड़ाई वाले भाग में करीब ढाई-तीन इंच का आधार लिए चार-पांच इंच लम्बा मुट्ठा भी सादी कारीगरी में रखा जाता. जिससे इसे पकड़ा जा सके. साथ ही लम्बाई वाले हिस्से के कोनों में छेद भी कर दिया जाता. इस छेद में मोटी डोरी डाली जाती जो भेकुआ या भांग के तनों से निकले रेशों से बनती और खूब मजबूत होती.

जब तख्ती तैयार हो जाती तब इसकी फिनिशिंग होती. रसोई में जमे कालिख को खरोड़-खरोड़ कर इकट्ठा किया जाता. अब खेत पे उगी हरी पत्तियों जैसे पालंग, लाई-राई या और ऐसी कोई भी घास जिसमें रस हो, के साथ काले झोल को तख्ती पे लेपा जाता. यह लेपन तख्ती के दोनों तरफ होता. फिर इसे सुखाने एक कोने में टेक दे के रख देते. हरी पत्ती के साथ घुलता काजल हरा काया रंगत देता. सूख जाने के बाद इस तख्ती को जमीन पे साफ कपड़े, दरी के ऊपर रख देते. हाथ में चिकने -चपटे आधार वाली दवात पकड़ते और घुटनों के बल बैठ मोसा लगी पाटी पे धीरे धीरे रगड़ते.एक किनारे से दूसरे किनारे तक, एक बार, कई बार, बार बार. जब तक तख्ती का काया पन काली चमक ना दे दे. शीशे की दवात के साथ ही बेल के दाने से जो खूब सख्त सूखा हो से भी रगड़ घिसाई की जाती. ऐसे कई दाने संभाल कर एकबट्या दिये जाते ताकि वक्त बेवख्त काम आ सकें.

अब पाटी तो तैयार है चमाचम. काली मोसा लगी चमकदार. इस पर ऊँगली रगडो तो काला ना लगे. यह इसकी टेस्टिंग है जो काफ़ी मेहनत, मशक्कत,  धैर्य और शौक लगा कर ही अप्रूव होती है. आखिर इसी पे सुरसती मैया अपना आशीर्वाद देंगी. अ, आ से शुरुवात होगी. सबसे बड़ी बात तो ये कि राइटिंग यानि लेखन होगा मोती सा दमकता, अक्षर साफ सुथरे सधे. एक नज़र में वाहवाही बटोरने की दम ख़म वाले. इसी की बदौलत मास्साब हमेशा रहेंगे खुस्स. सुलेख बन जाएं बालपन में ही, तो गुरू जी के धौल खाने, वक़्त बेवक्त कूकडूक कूं वाली पोज़ बनाने और हाथों पे संटी की लकीरों से बचने का फलित तो गारेंटेड ही हुआ बल भाऊ के कुनले में.

अब बननी है सियाही, लिखना है काली सतह पे, तो दमकेगी सुफेद सियाही. जो सबसे बढ़िया बनती कमेट से. कमेट की पपडियां चूने जैसी होतीं जिनकी खान होती. जिन्हें कुटले से खोदा जाता. थैली में भर रख लिया जाता. कमेट से घर की लिपाई पुताई भी होती, ऐसी कि ‘सफेदी की चमकार बार बार कई बार ‘वाली पंच लाइन सोला आने सही लगती. सो कमेट एकबट्या एक डली या टुकड़ा लिया जाता. पत्थर या ढुङ्ग से पीट-पाट एकसार किया जाता. फिर इस कमेट को पानी में घोला जाता. लकड़ी के डंडे से बार-बार हिलाया जाता. जरा गाढ़ा-गाढ़ा ही बनाते लस्सी जैसा.

कपड़े के साफ हन्तरे में उलीच छाना जाता. फिर इसे एक डब्बे में डाल देते जिस पे पकड़ने की डोर होती. पाठशाला तक जाने में सुविधा रहे. गिरे छलके नहीं. घर में लिखने के लिए कमेट की स्याही कांच की दवात में डाल देते. कभी जब कमेट न मिले तो चावल भिगा खूब पीस-छान बिस्वार जैसा घोल भी काम लाते पर ये उतना चिकना एकसार कहाँ जितना कमेट. कमेट खूब चुपड़ा होता है आसानी से फिसलता है, सूखजाने पर दमकता है. एकदम उजला उज्जवल.
(Golden School Memories in Uttarakhand)

पाटी चमाचम, कमेट की स्याही भी तैयार. अब है सबसे जरुरी चीज और वो है कलम. कलम तैयार होती निंगाल- रिंगाल से या फिर नस्तुर या नकतुर, सिवाई, पदम या पतले वाले बांस से. अब बांस की कलम में ये भैम भी ठैरा कि ‘बांस शिक्षा का नाश ‘. इसलिए इसके उपयोग में जरा झसक ही रहती. इनके अलावा कलम एक जानवर जिसे ‘सौल’ या साही कहते, के काले सफ़ेद कांटों की भी बनती. सौल जब किसी खतरे को चिताता, महसूस करता या आक्रमण की मुद्रा में आ जाता तो अपने बदन के कांटे झटका देता जो उसके बैरी के चुभ जाते, बस यही कांटा काम आता कलम बनाने में.

कलम बनानेके लिए निंगाल से ले कर पदम की ऐसी मजबूत पतली सीधी डंडी चुनी जाती जो अंगूठे की पकड़ गुरू, शनि व सूर्य की ऊँगली के ऊपरी पोर में बनाये रखे. ना तो बहुत मोटी हो ना पतली. और हां इस डंडी में गाँठ तो बिलकुल भी न हो क्योंकि यहाँ झसक नंबर दो की लोकोक्ति विराजती कि, “जिसकी कलम में गाँठ, उसकी विद्या नाश.”सो इसका विचार कर आगे की कार्यवाही की जाती जिसमें लोहे के धारदार छोटे चाकू की बड़ी भूमिका होती. डांसी पत्थर पर घिस इसे खूब तेज धार वाला बनाया जाता. बंद कर रखने वाले चक्खू भी होते. और ऐसे चाकू भी, जिसमें करीब साढ़े तीन इंच, ढाई इंच व डेढ़ एक इंच वाले तीन फलक होते.
(Golden School Memories in Uttarakhand)

छीलने काटने का काम हो जाने पर इन्हें पोछ पाछ बंद कर देते. सो तेज धार वाले चाखू से निंगाल के छः से आठ इंच लम्बे टुकड़े के एक भाग को करीब आध पौन इंच नीचे से पंद्रह से पचीस डिग्री के कोण में एक झटके में काट लेते. कटे भाग के ऊपरी सिरे पर फिर थोड़ी टेड़ी काट लगा कुट्ट कर कटका देते. इसके लिए ऊपरी भाग के तिरछी काट लगे भाग की ऊपरी सतह को किसी समतल जगह पर रख ऊपर का हिस्सा छोड़ एक बार में ही कटका देते. थोड़ी वक्र काट से लिखने में अद्भुत कलात्मकता आती, टांके लगते, पाटी में हीरे -मोती दमकने लगते.जरा सी लापरवाही से सब लिखे को पोछ दुबारा कोशिश करनी पड़ती.

 पहले पाटी में खड़िया से अक्षर लिखे जाते. लिख़ते समय बार बार बोला भी जाता. ये बना अ.अ से होगा अमरुद. अब इसमें लगी ये डंडी, ये हुआ आ. आ से आम. ले अब कलम कमेट की दवात में डुबा कर अक्षर में भर. हां ऐसे. बहुत अच्छे. बढ़िया. दवात पाटी के बगल में नहीं ऊप्पर की ओर रखना हां. बगल में हाथ लगने से गिरेगी दवात. स्याही जरा -जरा ले. धपोड धापोड़ नहीं. बस अभी सूख जाएगी. तब तक ऊँगली हाथ मत लगाना. ठीक. मेरा पोथा. अब मन नैं लग रा. वो देख बैणी कितना बढ़िया लिख रही? तू रंकरा मन नहीं लगाता, घपड़ चपड़ करता, सारे अक्षर बह रहे. शाबास चेली, बढ़िया, जी रै.

तख्ती पर वर्णाक्षर, स्वर व्यंजन, गिनती पहाड़े पहले सिखाते समय कमेट की डली से लिख देते. जिनको बालक -बालिका भरते. यही लिखने की शुरुवात होती. जोर -जोर से बोलते भी जाते याद भी होता जाता. कपड़े का एक चिथड़ा भी साथ रखते. इधर उधर स्याही बिखर जाती, कोई डंडी छोटी, कोई बड़ी हो जाती तो तुरंत पोछ पाछ बराबर कर देते. कभी कभी इसी हन्तरे से टपकने को तत्पर नाक भी पुछ जाती.सो तुरंत विद्या देवी से कान पकड़ माफ़ी भी मांग ली जाती. बस ऐसे ही लिखने का सिलसिला चलते जाता. राम घर जाता है. गाय हमारी माता है. बहुत समय पहले की बात है… खूब घना जंगल था.
(Golden School Memories in Uttarakhand)

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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