Featured

केदारनाथ पहुंचा बन्दर, तो लेह लद्दाख पहुंचा लँगूर

हिमालय ग्लोबल वार्मिंग से झुलस रहा है. अब इसका असर दिखने लगा है. लेह लद्दाख में लंगूर पहुंच गये हैं तो केदारनाथ से ऊपर तक बंदर आराम से अपने परिवार के साथ रह रहे हैं. ये दोनों ही जीव अमूमन, ज्यादा से ज्यादा 2500 मीटर तक ही रह पाते हैं, लेकिन अब ये 4500 मीटर तक आराम से आमदगी दर्ज करा रहे हैं.

वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) के ताजा शोध में ये बात सामने आई है. इस शोध में पचास के करीब वैज्ञानिकों ने योगदान दिया है. शोध में पता चला कि, हिमालयी बेसिन और मध्य हिमालय में तापमान में वृद्धि हो रही है. जिस कारण गर्म मौसम में रहने वाले जानवर व जंतु ऊपरी ऊंचाई वाले स्थानों तक पहुंच गये हैं और वहां वो अब स्थाई जीवन आराम से यापन कर रहे हैं.

डब्ल्यूआईआई के निदेशक डा वीबी माथुर बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन में भारी फैरबदल हो रहा है. मसलन, जो लंगूर गर्म इलाकों में रहता था, वो अब लेह लद्दाख के साथ ही केदारनाथ में दिखने लगा है. यहां तक की कई जगह तो 4,876 मीटर या 16 हजार फीट तक भी दिखा है. इसी तरह कई जंतु हैं, जो पहले निचले इलाकों में ही पाये जाते हैं. उनमें से कुछ अब ऊंचाई वाले इलाकों में पहुंच चुके हैं. लगभग पचास वैज्ञानिक 10 जानवरों और जंतुओं पर सघन निगाह रखे हुये हैं.

उधर, हिमालय रेंज में पिछले कुछ सालों में हुए शोध में सामने आया है कि ‘स्नो लाइन’ (हिमरेखा) लगभग पचास मीटर नीचे खिसक गई है. इसका मुख्य वजह ग्लोबल वार्मिंग है. स्नो लाइन पीछे खिसकने का सबसे बड़ा खामियाजा सेब की दो प्रजातियों को उठाना पड़ रहा है. ‘गोल्डन डिलीसियस’ और ‘रेड डिलीसियस’ सेब की दो ऐसी प्रजाति हैं, जो जम्मू कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में लगभग खत्म होने की आगार में पहुंच गई है. अपने किन्नौर जिले के दौरे के दौरान जब मैंने कई काश्तकारों से बात की तो उन्होंने इस चिंता को गंभीर बताया। उन्होंने बताया, क्वालिटी में फर्क आया है। उत्पादन पहले की अपेक्षा कम हुआ है.

असल में, ग्लोबल वार्मिंग के कारण अब उच्च हिमालय और मध्य हिमालय में सितंबर से दिसंबर तक होने वाला हिमपात शिफ्ट होकर जनवरी से मध्य मार्च तक चला गया है. जनवरी से मध्य मार्च तक पड़ी बर्फ अपै्रल और मई में गर्मी आते ही पिघल जा रही है. जिससे न केवल स्नो लाइन तेज गति से पीछे खिसक रही है, बल्कि इससे स्नोलाइन के ईद गिर्द रहने वाले जनवरों और वनस्पतियों के लिए भी गंभीर खतरा पैदा होगा.

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलाजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. डीपी डोभाल बताते हैं कि, उत्तराखंड ही नहीं, जम्मू कश्मीर, हिमाचल, सिक्कम और अरुणाचल प्रदेश में स्नोलाइन औसतन लगभग चालीस से पचास मीटर तक पीछे चली गई है. कई जगह तो इससे भी ज्यादा गई है. इसी तरह ग्लेशियर भी काफी पीछे गए है. पिछले एक दशक की मानिटरिंग के बाद ये ताजा आकंड़े गत सालों में आये है.

मनमीत पत्रकार है. पर्यावरण और पर्यटन के मुद्दों पर विशेष रूप से लिखते रहें हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

18 hours ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

7 days ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

1 week ago

इस बार दो दिन मनाएं दीपावली

शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…

1 week ago

गुम : रजनीश की कविता

तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…

1 week ago

मैं जहां-जहां चलूंगा तेरा साया साथ होगा

चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…

2 weeks ago