वे जब भी दिखाई दिए हमेशा एक गुरु गंभीर छवि में दिखाई दिए – बहुत बारीकी से जीवन का संधान करते हुए और संसार में अपनी अलग जगह को पहचानते और बेहतर बनाते हुए. बहुसंख्य हिन्दीभाषी समाज ने गिरीश कर्नाड को केवल एक टीवी और फिल्म अभिनेता की भूमिका में देखा जबकि एक मानवीय जीवन के हिसाब से देखा जाय तो विविधता-भरे उनके काम की विशालता को देखकर केवल हैरत और ईर्ष्या के ही भाव आते हैं. (Girish Karnad Passes Away)
वे कन्नड़ रंगमंच का सबसे बड़ा नाम थे, उन्होंने अनेक नाटक लिखे, फ़िल्में बनाईं और जब जब सार्वजनिक मंचों पर उनकी जरूरत पड़ी, उन्होंने सत्ता का खुलेआम विरोध करने में ज़रा भी देर नहीं की. उनके कार्य के लिए उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण सम्मान दिए गए. साहित्य का सबसे बड़ा सम्मान ज्ञानपीठ भी उन्हें मिला. (Girish Karnad Passes Away)
सम्पूर्ण दक्षिण भारत और विशेषतः उनके अपने राज्य कर्नाटक में उन्हें उनके लिखे नाटकों की वजह से एक विराट व्यक्तित्व के रूप में देखा जाता था. इतिहास, लोकगाथा और मिथकों के तानेबानों में गुंथे उनके नाटकों की विषयवस्तुएं जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हुईं.
अपने छात्र जीवन में बेहद प्रतिभावान रहे कर्नाड को ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में रोड्स स्कॉलरशिप मिली जिसके दौरान ही उन्होंने अपना पहला नाटक ‘ययाति’ लिख लिया था. कन्नड़ रंगमंच को समृद्ध करने में उनका योगदान कितना बड़ा था इसका पूरा अनुमान लगा सकने के लिए यही बात जान लेना पर्याप्त होगा कि उनके नाटकों से उनके राज्य की राजनीति तक प्रभावित हुआ करती थी. ‘हयवदन’ और ‘नागमंडल’ उनके सबसे चर्चित नाटक रहे जिन्हें देश की अनेक भाषाओं में अनूदित और मंचित किया गया.
1970 के दशक की शुरुआत से उन्होंने फिल्मों में भी काम करना शुरू किया और बतौर अभिनेता समूचे देश में अपने लिए एक ख़ास जगह बनाई. मुख्यधारा के सिनेमा से लेकर समानांतर सिनेमा तक के तमाम निर्देशकों की फिल्मों में उन्होंने काम किया.
जन-अधिकारों के मुखर प्रवक्ता रहे इस महाप्रतिभावान कलाकार ने दो साल पहले गौरी लंकेश की हत्या के बाद एक तमाम विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया. वे उन दिनों बीमार थे और नाक में लगी ट्यूब वगैरह के बावजूद वे इन प्रदर्शनों में उतरे.
आज सुबह बंगलुरु में 81 वर्ष की आयु में गिरीश कर्नाड का देहांत हो गया. उन्हें याद करते हुए इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने ट्वीट किया है:
“नाटककार, अभिनेता, संस्थाओं के निर्माता और राष्ट्रभक्त गिरीश कर्नाड एक विराट व्यक्तित्व थे. उन्हें जानना मेरी खुशनसीबी थी, उनके नाटकों को पढ़ और देख सकना उससे भी बड़ी खुशनसीबी …”
1985 में बनी एक हिन्दी फिल्म में, जिसमें उन्होंने शास्त्रीय संगीतज्ञ की भूमिका की थी, निर्देशक ने उनसे एक गाना गवाया था जिसके बोल उनके जीवन की निस्वार्थ कर्मठता को रेखांकित करते हैं:
“धन्य भाग्य सेवा का अवसर पाया
चरण कमल की धूल बना मैं
मोक्ष द्वार तक आया”
इस महाप्रतिभा का जाना भारतीय उपमहाद्वीप के समाज और कला संसार की बहुत बड़ी हानि है.
-काफल ट्री डेस्क
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