समाज

घुघुती, प्योली व काफल पर्वतीय लोकजीवन के कितने करीब

ब्रह्मकमल और मोनाल को भले राज्य पक्षी एवं राज्य पुष्प का सम्मानजनक ओहदा मिल चुका हो, लेकिन लोकजीवन व लोकसाहित्य में प्योली, बुरांश तथा न्योली, घुघुती और कफुवा ने जो धमक दी, उससे ये लोकजीवन के पहचान बन गये. Ghughuti Pyoli And Kafal

चाहे उत्तराखण्डी लोककथाऐं हों अथवा लोकगीत, कथानक कहीं इन्हीं फूलों, पक्षियों अथवा काफल, बेड़ू, हिंसालू के इर्द-गिर्द ही घूमता है. फिर चाहे वह लोकगीत ’’हिट रूपा बुरूशी को फूल बणी जूंला’’ हो अथवा गढ़वाली खुदेड़ गीत – “गैला पातैला न्योली बासेंछ, घामिल मन उदास लागेंछ’ हो.” या “बेड़ू पाको बारमासा,  नरैण काफल पाको चैता” लोकगीत तो लोकमानस में बेड़ू और काफल की महत्ता उजागर करती ही है, लेकिन यहां के लोकजीवन मैं तो पक्षी भी “काफल पाको मैले नी चाक्खों” अथवा “पुर पुतेई पुरै पुर’’ को सुर देकर लोककथाओं को जन्म देते मुखर हो उठते  हैं. कितना विचित्र व सहज है न -पहाड़ का लोकजीवन, जो फल, फूल और पशु पक्षियों के आलम्बन से मुखर हो उठता है. घुघुती (फाख्ता) तो मैदानी क्षेत्रों में भी होता है, लेकिन पहाड़ की घुघुती लोकमानस से मौन आलाप करती नजर आती है और कवि हृदय गा उठता है –

आमकि डाई में घुघुति न बासा 
त्येरी घुरू घुरू सुणि मैं लागू उदासा
स्वामी म्यरा परदेशा बर्फीलो लदाखा

अथवा गढ़वाली लोकगीत में

घुघती घुरूंन लैगे म्यारा मैतकि
बौड़ी बौड़ी ऐ गे ऋतु, ऋतु चैतकि

या

ना बासा घुघूती चैतकि
खुद लागि च मा मैतकि

 ’खुद’ शब्द गढ़वाली लोकभाषा में नराई का प्रतीक है, जिसने गढ़वाली लोकगीतों में खुदेड़ लोकगीतों ने जन्म लिया और विरह प्रधान गीत बन गया. गढ़वाली लोकजीवन में प्योली को फ्योली उच्चारण से जाना जाता है. “कख रितु रैगे छोरी फ्योली रौतेली’’ इस गढ़वाली लोकगीत में तो नायिका की सुन्दरता की तुलना ही फ्योली पुष्प से ही कर दी गयी है. वन-उपवन में सुन्दरता के लिहाज से पुष्पों की कमी नहीं है, लेकिन लोकमानस को स्वतः उगने वाला यह प्योली का फूल ही आकर्षित करता है.

क्या हिसालू, काफल, किल्मोड़ा, तिमला, बेड़ू, घिंगांरू से स्वादिष्ट कोई फल उत्तराखण्ड में नहीं होते? लेकिन ये स्वतः उगने वाले फल लोकजीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं. लोकजीवन ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में वास नही करता, वह अपनी जमीन से जुड़ा जनमानस है और सहजता एवं सरलता से उपलब्ध प्राकृतिक उपादान ही उससे नजदीकी रखते हैं.

कफुवा और न्योली ने तो उत्तराखण्डी लोकजीवन में इस कदर पैठ बना ली कि आज उत्तराखण्डी लोकगीतों में न्योली एक अलग गायन शैली के रूप में जानी जाती है. यों तो कई लोग न्योली गीत की पीछे नवेली शब्द से इसकी व्युत्पत्ति मानते हैं और समर्थन में कहा जाता है कि नयी नवेली दुल्हन के अपने पति के विरह में गाये जाने के कारण इसे न्योली कहा गया. उसी तरह कफुवा लोकजीवन को इतना भा गया कि कफुवा ने कफुली शब्द ईजाद कर दिया जो खूबसूरत युवती के लिए प्रयोग होने लगा. लेकिन एक बात प्रकृति के इन आलम्बनों में आम दिखती है, चाहे वह बुरांश हो, प्योली हो, न्योली, घुघुती अथवा कफुवा की कुहुक भरी वेदना की ध्वनि ये सारे बसन्त ऋतु में दिखाई अथवा सुनाई देता है.

बसन्त ऋतु को उत्तराखण्ड में रितुरैण अथवा ऋतुरै्ण के नाम से भी जाना जाता है. यहां तक कि ऋतुरैण उत्तराखण्डी लोकगीतों का एक प्रकार भी है. ऋतुरैण अथवा बसन्त श्रृंगार का संयोग पक्ष भी प्रबल करता है और वियोग पक्ष भी. उत्तराखण्डी समाज में तो इसी ऋतु में ’भिटोली’ देने की परम्परा भी है, जिसके पीछे एक दर्दनाक लोक कथा भी प्रचलित है. इस कारण पहाड़ी लोकजीवन में इन प्रतीकों के माध्यम से विरह पक्ष अधिक मुखर हो उठा है.

एक ओर तो नई ब्याहता बहू को चैत के महीने में भिटोली अपने मायके की याद दिलाने को मजबूर करती है तो घुघुती की घुर-घुर उसे मायके की याद में खो देती है और बरबस ऋतुरैण गीत घुघुती को माध्यम बनाकर आकार लेने लगते हैं. दूसरी ओर पहाड़ का अधिकांश युवा अतीत में घर से बहुत दूर फौज में हुआ करता है और नव ब्याहता को अपने पति की विरह वेदना घुघुती, न्योली व कफुवा के स्वर से और भी तीव्र हो उठती है, जो लोकसंगीत में न्योली जैसे लोकगीतों को स्वर देती है. कभी कभी तो इसी विरह में वह घुघुती को संदेश वाहक बनाकर भी अपना संदेश पहुंचाना चाहती है.

कुमाऊनी लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी के गीत के ये बोल कुछ ऐसा ही कहते हैं – “उड़ि जा ओ घुघुति, न्हैजा लदाखा, हाल म्यारा बतै दिये, म्यार स्वामी पासा.” देखा जाय तो ऋतुरैण (चैत्रमास)में ही इन प्राकृतिक आलम्बनों – घुघुती, कफुवा व न्योली के वेदनापूर्ण स्वर, इसी समय काफल, बेड़ू का पकना और बुरांश, प्योली का खिलना उस पर श्रृंगार प्रधान बसन्त ऋतु, सब मिलकर या तो “हिट रूपा बुरूंशी को फूल बणी जूंला” का स्वर देकर संयोग श्रृंगार का सृजन करते हैं अथवा वियोग की स्थिति में ये ही प्राकृतिक आलम्बन विरह वेदना को उद्दीप्त करते नजर आते हैं.

कुमाऊनी के आदि कवि गुमानी को बुरांश का लाल पुष्प गुस्से से तमतमाता चेहरा दिखता है तो कविवर सुमित्रानन्दन पन्त “सारे जंगल में त्वी जस क्वे न्हा रे क्वे न्हा” कहकर बुरांश पुष्प को जंगलों का राजा घोषित कर देते हैं. यही कारण है कि  सहजता से सर्वसुलभ इन आलम्बनों को लोकजीवन व लोकसाहित्य ने गौरव प्रदान किया है. जब कि मोनाल व ब्रह्मकमल राज्य पक्षी व राज्य पुष्प होने के बावजूद आम न होकर खास है और पर्वतीय लोकजीवन से इतना नजदीकी रिश्ता नहीं जोड़ पाये.

– भुवन चन्द्र पन्त

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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं

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