डिप्लोमा इंजीनियरिंग के उस लड़के का सुनाया किस्सा मैं कभी नहीं भूल सकता. भूलने वाली बात है भी नहीं. रैगिंग का जिक्ऱ आते ही वो मुस्करा कर, सगर्व बताता कि मुझे तो फर्स्ट इयर में रैगिंग से कोई परेशानी नहीं हुई. उसी के शब्दों में – परिचय के बाद, सीनियर्स जैसे ही कहते कि क्या जानते हो तो मैं कहता – सर गाना. और जैसे ही गाना शुरू करने का इशारा मिलता मैं नज़र झुका कर गाना शुरू कर देता, घुघूती घुरूण लगी म्यरा मैत की, बौड़ि-बौड़ि ऐगे ऋतु, ऋतु चैत की… गाने के तीसरे अंतरे तक पहुँचते-पहुँचते मैं समझ जाता कि कमरे का मौसम भी बदल गया है. कभी कनखियों से, रूमाल से आँखें पोंछता, कोई सीनियर दिख भी जाता था. ज़ाहिर हो जाता कि मेरे मासूम चेहरे में सीनियर्स, दूर किसी पहाड़ी गाँव में रहने वाली अपनी उदास माँ-बहिनों का अक़्स देखने लग गए हैं. उसके बाद अगला वाक्य अक्सर यही सुनने को मिलता, भुला्! कभी भी कोई जरूरत-परेशानी हो तो बता देना. आदतन, मैं कहता जी सर तो फिर प्यारी-सी झिड़की मिलती, बड़े भाई हैं तेरे, सर-वर नहीं, समझे. मुँह से फिर निकल जाता, यस्सर… तो कमरा ठहाकों से गूंजने लगता और रैगिंग का उस दिन का एपिसोड एक सुखद नोट पर समाप्त हो जाता.
(Ghughuti Ghuran Lagi Song)
गीत और लोकगीत के अंतर पर बहस अक्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाती है और लोग तत्काल ही दो धड़ों में बँट भी जाते हैं. एक धड़े का मानना होता है कि लोकगीत किसी गीत को तभी माना जा सकता है जब उसका रचयिता अज्ञात हो. दूसरे धड़े का मानना होता है कि भले ही आज रचयिता अज्ञात हो पर कभी न कभी तो वो ज्ञात रहा ही होगा. और भले ही किसी लोकगीत के विकसित होने में एक से अधिक व्यक्तियों का योगदान क्यों न रहा हो पर किसी न किसी ने उसे रचने की पहल तो की ही होगी, किसी न किसी के कंठ से पहली बार वो बोल तो फूटे ही होंगे. मेरा मानना है कि लोकतत्व जिस भी गीत में हों वो किसी फतवे के बगैर भी लोकगीत बन जाता है. समाज, धड़ों की परवाह किए बगैर और विधाओं के विभेद की जानकारी के बिना भी उसे लोक-विरासत का हार्दिक सम्मान देता है.
उत्तराखण्ड के परिपेक्ष में, गीत और लोकगीत के अंतर और सादृश्य को समझने के लिए घुघूती घुरूण लगी म्यरा मैत की, बौड़ि-बौड़ि ऐगे ऋतु, ऋतु चैत की… से बेहतर दूसरा उदाहरण नहीं है. ये गीत भी है और लोकगीत भी. गीत की कलात्मकता और लोकगीत का शिल्प व तत्व. इस गीत के एलबम में आने की तिथि के बाद जन्मी बेटियों के लिए ये लोकगीत है. मैत का गीत. एक ऐसा गीत जिसमें शब्द-संयोजन भले ही नया हो पर कथ्य और धुन सदियों पुरानी परम्परा से सहेजा गया है.
चैत अर्थात फरवरी-मार्च परम्परा से पहाड़ी ब्याहताओं के मायके जाने का, मायके वालों से मिलने का महीना रहा है. बसंत ऋतु के चैत महीने में पहाड़ों की शोभा दर्शनीय होती है. चैत में ही तराई-भाबर से घुघुती (फाख़्ता पक्षी) पहाडों में लौट आती है और परिवेश को अपने उदासी भरे स्वर से गुंजायमान कर देती है. ऐसे में ब्याहताएँ अपने मायके की याद में आकुल हो जाती हैं.
(Ghughuti Ghuran Lagi Song)
तीन अंतराओं वाला घुघूती घुरूण लगी म्यरा मैत की, बौड़ि-बौड़ि ऐगे ऋतु, ऋतु चैत की… गीत, प्रख्यात उत्तराखण्डी कवि-गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी जी द्वारा लिखा गया है और उनके वर्ष 1991 में प्रकाशित गीत-संग्रह खुचकण्डि में भी सम्मिलित है. गीत मूल गढ़वाली रूप में यहाँ दिया जा रहा है. नयी पीढ़ी के उन युवाओं के लिए, मेरा अंग्रेज़़ी अनुवाद-प्रयास भी है, जिनका तकियाकलाम होता है कि जरा-जरा बींग पाते हैं… यू नो वॅकैब्लरी प्राब्लम.
मर्मस्थल को छूने वाले और लोकगीत की तरह समादृत इस गीत के रचयिता नरेन्द्र सिंह नेगीजी बताते हैं कि महिला-श्रोताओं की ओर से इस गीत को सुनाने की फरमाइश बहुत रहती है पर पुरुष-श्रोता भी सुनकर भावुक हो जाते हैं. प्रवासी महिला-पुरुषों के लिए तो मैत का अर्थ एक ही हो जाता है -अपने पहाड़ की प्यारी डांडी-कांठी.
घुघूती घुरूण लगी मेरा मैत की.
बौड़ी बौड़ी ऐगे रितू, रितू चैत की..
डांडि कांठ्यूं को ह्यूऊं, गौळिग्ये होलू
मेरा मैता को बण, मौळिग्ये होलू
चखुला घोलू छोड़ी, उड़णा ह्वाला
बेटुला मैतुड़ाकू, पैटणा ह्वाला.
घुघूती…..
डांड्यूं खिलणा होला, बुरांसी का फूल
पाख्यूं हैंसणी होली, फ्योंली मुलमूल
फुलारी फुलपाती लेकी, देळ्यूं देळ्यूं जाला
दगड़्या भग्याल थड्या-चौंफुळा लगाला.
घुघूती…
तिबारिमा बैठ्यां होला बाबाजी उदास
बाटु ह्येनी होली मांजी लगीं होली सास
कब मेरा मैती औजी दिसा भेंट आला
कब मेरा भै बैणोकी राजी खुसी ल्याला.
घुघूती…
Dove of my native place has begun cooing
Here returns the month of Chait1
Snow of mountains must have melted
Forest of my native place bloomed
Birds would be flying from nests
Daughters be leaving for native places.
Dove …
Burans2 would be blooming in hilltops
Phyonli3 smiling on mountainsides
Phulari4 would go door to door with flower-baskets
Lucky friends’d do Thadya5 Chaunfula6
Dove…
Father would be sitting depressed in Tibari7
Mother be waiting for me, longing
When’ll my native Auji8 come for Disha Bhent9
When would they bring welfare of my siblings.
Dove …
उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद के सुंदरतम दृश्यों में एक वो भी है जिसमें एक नौकरशाह दम्पति इस गढ़वाली गीत को सटीक लय और मधुर-युगल-स्वर में गाते हुए दिखायी-सुनायी देते हैं. ये दम्पति अपनी प्रशासनिक कुशलता के साथ-साथ सादगी के लिए भी प्रदेश में लोकप्रिय हैं. श्री अनिल रतूड़ी जी प्रदेश पुलिस महकमे के मुखिया अर्थात पुलिस महानिरीक्षक और श्रीमती राधा रतूड़ी जी अपर मुख्य सचिव के पद पर कार्यरत हैं. श्री रतूड़ी जी टिहरी जनपद के मूल निवासी हैं जबकि मैडम राधा रतूड़ी पहाड़ी मूल की न होने के बावजूद यहाँ की संस्कृति व बोली-भाषा पर अद्भुत पकड़ रखती हैं. हाल ही में बीइंग उत्तराखण्डी फेसबुक पेज़ के लिए एक ऑनलाइन साक्षात्कार में रतूड़ी दम्पति ने युगल-स्वर में इस गीत की कुछ पंक्तियां सुनाकर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था. बीइंग उत्तराखण्डी के लिए ये साक्षात्कार डॉ. आशा नैथानी जी द्वारा लिया गया. इस साक्षात्कार में अनिल रतूड़ी ने यह भी बताया कि उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद साल 2000 में, स्वेच्छा से उत्तराखण्ड का विकल्प चुनने वाले तीन नौकरशाहों में से वे भी एक थे.
और कैसे उत्तराखण्ड की कल्पना करी थी हमने. निश्चित रूप से ऐसे उत्तराखण्ड की जहाँ हमारी फरियाद हो या हमारे गीत, नौकरशाह, भाव और संप्रेष्य को ग्रहण करने में सक्षम हों. इसीलिए कहा कि एक लोकप्रिय गढ़वाली गीत को युगल-स्वर में गाते नौकरशाह-दम्पति को देखना-सुनना, उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद के सुंदरतम दृश्यों में से एक है. रतूड़ी-दम्पति गाने के लिए गीत-चयन के लिए भी तारीफ़ के हक़दार हैं. एक ऐसा गीत जो गीत और लोकगीत की सीमारेखा को मिटा देने वाले गीतों में ध्वजवाहक है. एक ऐसा गीत जो पहाड़ में कुछ ही महीने गुजारने वाले को भी नोस्टेलजिक बना देता है, खुद-नराई की गहराई में उतार कर पहाड़ की ऊँचाइयों पर चढ़ा देता है.
(Ghughuti Ghuran Lagi Song)
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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अविस्मरणीय गीत, जो रच-बस गया है हम उत्तराखण्डियों के दिलो-दिमाग में ।