एक क़स्बे के लिहाज़ से गट्टू भाई ख़ासे पैसे वाले थे और पुराने नवाबों की फ़ितरत रहते थे. उसी हिसाब के उनके शौक और खर्चे भी थे. आज से पच्चीस-तीस साल पहले के बखत के हल्द्वानी शहर में जब ठीकठाक ज़िंदगी जी रहे लोग अपनी बचत के चालीस-पचास हज़ार पहुँचते ही उससे एक प्लाट खरीद लेने से ऊपर के किसी एडवेन्चर की कल्पना तक नहीं कर सकते थे, उन्हीं की कूव्वत थी कि दिल्ली से थोक में जॉनी वॉकर की बोतलें मंगाया करते और कर्तव्यनिष्ठा के साथ दोस्तों को मौज कराया करते. इन मौज-कार्यक्रमों के लिए उन्होंने घर की चिखचिख से दूर एक गोदामनुमा कमरा बना रखा था जिसे अन्तरंगमंडली में कतिपय कारणों से चम्बल कहा जाता था. चम्बल को हल्द्वानी के इतिहास में पहला प्राइवेट गेस्टहाउस होने का गौरव प्राप्त था. खड़े मसालों वाला पहाड़ी शैली का गोश्त पकाने में महारत रखने वाला एक नेपाली रसोइया और पव्वा नाम्ना एक गुड मैन फ्राइडे चम्बल में स्थाई स्टाफ़ नियुक्त थे. संक्षेप में कहा जाय तो उनके दोस्तों की फोकट की मौज का सतत समां बंधा रहता था. इन मित्रों में बड़ी संख्या मुझ जैसे कंगलों की थी जो उनकी सोहबत में थोड़ी देर के लिए ही सही खुद को दुनिया का बादशाह महसूस कर लेते थे. यह भी गट्टू भाई की फितरत का हिस्सा था कि वे किसी को भी अपने सामने छोटा नहीं महसूस होने देते थे.
गट्टू भाई को गप्पें मारने का शौक था और डकैत-बन्दूक-शिकार-बाघ इत्यादि उनकी सबसे प्रिय विषयवस्तुएं थीं जिन के गिर्द वे अनवरत ख़याली किस्सों का निर्माण किया करते. हल्द्वानी के पुराने बाशिंदों से विरासत में पाया उनका अत्यंत विकसित हास्यबोध और उसकी लाजवाब टाइमिंग उनकी इन गप्प-केन्द्रित महफिलों में ऐसा सम्मोहन पैदा किया करते कि जो एक बार उनकी महफ़िल में गया ताजिन्दगी उन्हीं का हो कर रहा. गट्टू भाई को उनकी निश्छल हंसी और दोस्तों के प्रति अटूट वफादारी के चलते लाड़ से लाटा भी कहा जाता था.
लेकिन वे ऐसे भी लाटे अर्थात भोंदू नहीं थे जैसा समझने की गलती उनकी महफ़िल में नए-नए पहुंचे चोट्टी मनोवृत्ति वाले मनुष्य अक्सर कर लेते थे. ऐसे लोगों को तुरंत पहचान लेने और उन्हें सीधा करने का अद्वितीय हुनर भी गट्टू भाई में था.
तो पदमसिंह उर्फ़ पदिया गांठी नामक एक ऐसा ही घटिया और मौकापरस्त इन्सान जब गट्टू भाई की महफ़िल में पहली बार पहुंचा तो उसकी चकाचौंध से हक्का-बक्का रह गया. पदमसिंह के बाप जो किसी ज़माने में धारचूला-मुनस्यारी की सीमान्त सड़कें बनाने के ठेके हासिल करने और उन ठेकों को दूसरों को रीडायरेक्ट कर उनकी मेहनत से इनडायरेक्ट मुनाफ़ा बनाने की कला में पीएचडी कर चुके थे, अपने असमय निधन से पहले ‘हिमालयी नवोन्मेष’ नाम से बहैसियत प्रकाशक-सम्पादक-पत्रकार-हॉकर एक दुकड़िया अनियतकालीन पाक्षिक अखबार भी निकालने लगे थे क्योंकि उन्हें भनक थी कि ऐसे टुच्चकर्मों को बहुत सम्मान दिए जाने का युग जल्द ही आने को था. पदमसिंह जिसे उसके असामान्य छोटे कद के कारण सम्मानपूर्वक पदिया गांठी कहा जाता था, इसी ‘हिमालयी नवोन्मेष’ के सम्पादक की हैसियत से गट्टू भाई के आस्ताने पहुंचा था.
पदिया गांठी गट्टू भाई के पास आया तो अपने अखबार के दीवाली महाविशेषांक के लिए विज्ञापनरूपी चंदे के तौर पर बीस-पचास रूपये वसूलने था लेकिन दानवीर गट्टू भाई ने उसे न केवल सौ रूपये दिए, शाम का समय हो चुकने के कारण अपनी गाड़ी में साथ बिठाकर चम्बल भी ले गए. जिस पदिया गांठी ने कभी सलीके की अंग्रेज़ी शराब तक न चखी थी, उसे ब्लैक लेबल और स्पेशल मुर्ग लबाबदार जैसी चीज़ों का भोग लगाने को मिला. गट्टू भाई की मंडली के ठाठ देखकर वह टुन्न और हैरान हुआ किया कि हल्द्वानी में यह सब भी होता है. नतीज़तन उसे दिमागी अपच हो गयी.
जल्द ही चार-पांच बार ऐसा हुआ कि वह किसी न किसी बहाने से चम्बल पहुँचा और अपनी कैपेसिटी से अधिक दारू पीकर घर लौटा. हर दफ़ा उसके उसके शठ-हृदय को गट्टू भाई की सम्पन्नता से पहले से ज़्यादा डाह का अनुभव हुआ और उसने नगर के अन्य ठिकानों पर अपने विचारों को ज़बान देना शुरू कर दिया कि गट्टू गुरु बेमांटी से पैसा कमाते हैं और बेवकूफ़ भी हैं इत्यादि. उड़ते-उड़ाते गट्टू भाई तक भी बात पहुँची. उदारमना गट्टू भाई ज़रा भी नाराज़ न हुए. उलटे एक शाम उन्होंने पदिया को अपने साथ एक दावत में नैनीताल चलने का न्यौता दे डाला. गट्टू भाई के साथ नैनीताल जाकर दावत उड़ाने का अर्थ होता था चम्बल में की जाने वाली मौज का से कई गुना ज़्यादा मौज.
नैनीताल के कुछ सबसे बढ़िया होटलों के मालिक उनके बालसखा थे जो अपने सबसे महंगे कमरे अपने उनके स्वागत में खोल देते थे. बढ़िया खाने-पीने के अलावा रहने के शाही इंतजाम रहते थे जिनका भोग एकाधिक बार मैं भी कर चुका था.
नैनीताल में पदिया गांठी को शुरू में अपने पुराने फैशन के कपड़ों पर थोड़ी लज्जा भी आई लेकिन गट्टू भाई द्वारा उसका परिचय अपने ममेरे भाई के तौर पर कराया गया था सो उसे बर्दाश्त करने में किसी को गुरेज़ न हुआ. सुबह उम्दा नाश्ते के बाद हल्द्वानी को निकलने की वेला पास आ रही थी. पिछले बारह घंटों से वेटरों की फौज द्वारा की जा रही चाकरी के चलते पदिया तब तक अपने को वाकई बादशाह समझने लगा था. वह बालकनी में आरामकुर्सी पर लधरा हुआ झील को निहार रहा था. गट्टू भाई के सामने से आते ही वह उठ खड़ा हुआ. उनका सामान गाड़ी में डाला जा रहा था. सामने रिसेप्शन पर होटल का मैनेजर हाथ जोड़े झुका खड़ा उन्हीं की तरफ देख रहा था.
गट्टू भाई ने जेब में हाथ डालते हुए पदिया से पूछा – “कुछ पैसे पड़े हैं पदमसिंह?”
पदमसिंह उर्फ़ पदिया गांठी की जेब में आठ-नौ सौ रूपये थे जिन्हें उसने पिछले दस-पांच दिनों में चंदा-उगाही से इकठ्ठा किया था और जिनकी मदद से घर का महीना चलना था. पदिया कुछ कहता इसके पहले ही गट्टू भाई बोले – “गड्डी शायद बैग में रह गई.”
“अरे कैसी बात करते हैं दद्दा!” कहते हुए बिना एक भी पल को विचारे पदिया ने अपनी सारी जमा पूंजी गट्टू भाई के हाथ में धर दी.
पैसे अपनी जेब के हवाले करते गट्टू भाई ने गाड़ी की तरफ बढ़ते हुए कहा – “होटल में तू भी तो रहा ना. थोड़ा खर्चा तो तेरा भी बनता है बेटे!”
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