गीता गैरोला

बूढ़ी सास और उसकी बहू की कथा

ऊंचे-ऊंचे पहाड़ो में घने जंगलों के बीच एक पहाड़ी गांव था. ठेठ गांव के बीच में घर होना ही था, वैसे ही जैसे पहाड़ियों के घर होते हैं – मिट्टी पत्थर से चिने पतली पठाली (स्लेट) से ढके तिकोने घर. जिस ज़माने की यह बात है उस ज़माने में पहाड़ी गांवों के बाशिंदे सब नहाने के लिए नदी, खाले, धारे, पन्यारे में जाते थे. ये सभी जगहें खुली होती थीं इसलिए औरतों के लिए इन जगहों में नहाना बहुत मुश्किल होता. और हां इन सभी जगहों में नहाने के लिए तो दिन में ही जाया जा सकता था. दिन में औरतों के पास न तो फुर्सत होती न ही सुविधाजनक जगह.

दिन में सभी औरतें घर में पाले मवेशियों का, खेत का और जंगल का काम करतीं. घर के बाकी कामों के साथ परिवार के बूढों और बच्चों बच्चों की देखभाल करतीं. पहाड़ की औरतों के पहाड़ जैसे काम. वैसे भी पहाड़ी औरतें किस के लिए नहातीं. सुआ माने प्रेमी या पिया तो हुए परदेसी. सालों बीतने पर कभी घर आने की सुध लेते.

बड़ी बूढ़ियां समझातीं जवान-जहान बेटी-ब्वारियों का जादा नहाना, रोज बाल बनाना ठीक नहीं होता. ये पातरों का काम होता है भले घरों की बेटी ब्वारियों का नहीं. और ये जवान-जहान बेटी-ब्वारियां नहा धोकर, बाल बना स्यून्दि पाटी (मांग) किसको दिखाने के लिए निकालतीं – खेतों को, जंगलो में ऊंचे-ऊंचे देवदारों को, आसमान छूते पहाड़ों को, साथ-साथ चरते पशुओं को? कौन कहता इन औरतों को की तुम बहुत सजीली लग रही हो!

हाँ तो भले घरों की ये बेटियां-ब्वारियां जिस दिन समय मिलता उस दिन रात को ओबरे (गोठ) में नहातीं या घर के पीछे बने कोलणे में. ऐसी ही एक घनघोर अंधेरी रात में सास नहा रही थी और बहू सास की पीठ से मैल रगड़ रही थी. घोर अंधेरे में सास की पीठ थी बहू के हाथ थे, पानी का बर्तन था और थीं दोनों की दो आवाजें.

बहू दोनों हाथों से सास की पीठ को जैसे ही रगड़ने लगती, उसके हाथों की जगह पैर अपने आप आगे बढ़ने लगते. बहू परेशान क्या जो करूं, तभी ब्वारी की डगमगाती आवाज सास को सुनाई दी – “…जी (सास को पहाड़ में केवल जी भी बोला जाता है) मैं तुम्हारी पीठ को हाथों से रगड़ रही हूँ और मेरा पैर आगे जा रहा है ऐसा लगता है कि कोई भूत-खबीश जबरदस्ती मेरा पैर तुम्हारी पीठ की तरफ ले जा रहा है.

अंधेरे में ही बहू को सास की हिलकती पीठ के साथ गहरी रुदन वाली सिसकी सुनाई दी – “हे ब्वारी, धो ले बाबा पैर से ही धो ले. ये मेरा किया है जो तेरे पैर उठा रहा है, कोई भूत-खबीस नहीं है. एक बार नाराजी में मैंने अपनी बूढ़ी सास की पीठ पैरों से ही धोई थी. फिर उस पहाड़ी गाँव की घनघोर अंधियारी ओसीली रात में तमाम पेड़-पौधे-कंकड़-पत्थर दो औरतों के आंसुओं से भीगने लगे.

-गीता गैरोला

देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगी.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

View Comments

Recent Posts

उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विकास व रणनीतियाँ

उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…

1 day ago

जब रुद्रचंद ने अकेले द्वन्द युद्ध जीतकर मुगलों को तराई से भगाया

अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…

5 days ago

कैसे बसी पाटलिपुत्र नगरी

हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…

5 days ago

पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद

आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…

5 days ago

चतुर कमला और उसके आलसी पति की कहानी

बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…

5 days ago

माँ! मैं बस लिख देना चाहती हूं- तुम्हारे नाम

आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…

5 days ago