Featured

गन्ज्याड़ू: पथरीले पत्थरों के बीच उगने वाले पहाड़ी पेड़ के वजूद की दास्तां

वाह रे! तू भी क्या किस्मत लेकर आया इस दुनियां में. पथरीले पत्थरों के बीच से तेरा ये दीदार बहुत कुछ कह जाता है, पहाड़ की इस पहाड़ सी जिन्दगी और अपने वजूद की जुत्सजू की दास्तां. पत्थरों से भी जीवनीशक्ति खींचने की तेरी यह अद्भुत जीजिविषा. इस जीवट संघर्ष के बाद भी मिला क्या? उपेक्षा, नफरत और नकारापन.
(Ganjyadu Tree in Hills)

वैसे तुझे कन्दमूल भी कैसे कह दें, मूल से जुड़ा जरूर है पर कन्द कहां और मूल कहां? कन्द तो बाहरी दुनियां का रसिक हो चला है, पलायन कर गया है अपने मूल से. तुझे बाहर की दुनियां भा गयी है. शायद अपनी मिट्टी रास नहीं आई तुझे. जहां कन्द लुढ़का उसी मिट्टी में जड़ जमाने की अद्भुत क्षमता देखी तुझमें. पत्थरों के दवाब के बीच जिसने दबाया, जख्म न मानकर उसी को आकार दे दिया अपना.

इस बेडौल आकार के कारण हीं नाम दे दिया गंज्याड़ू- निठल्ला कहीं का. जी हां, बात हो रही है पहाड़ों में पथरीली भूमि पर खुद-ब-खुद उग आने वाले गंज्याड़ू की. एक कन्दमूल की श्रेणी का, जिसका कोई उपयोग नहीं फिर भी दाल-भात में मूसलचन्द उग आता है बेहया.

दुनियां तुम्हें दुत्कार दे, लेकिन हम पहाड़ी बच्चों ने तुझे भी खूब अपनाया. वैसे तुम्हारे पत्तों की स्निग्धता ही तुम्हारा मर्म बयां कर देती हैं. पत्थरों के गर्भ से जन्म लेकर भी तुममें जो कमनीयता है, तुम्हारी वही कोमलता भा गयी हमें.

बचपन में तुम्हारे देह पर वसूले और धारदार हथियार से प्रहार कर मनमानी शक्ल देना, जितना तुम्हारे साथ सहज व सरल था, अन्य कहां? क्योंकि तुम निष्प्रयोज्य साबित कर दिये गये, इसलिए तुम्हारे जिस्म पर प्रहार की कतई भी परवाह नहीं की हमने.

कभी वसूले से गोल-गोल पहिया का आकार देकर और रास्तों पर पहिया बनाकर लुढकाते अपना बचपन बहलाया तो कभी खेल-खेल में पहाड़ी घट (घराट) बनाने के लिए तुम्हें गोलाकार घट का पाट बनाकर कठोर लकड़ी से बने फितौड़े रोप दिये तुम्हारी परिधि में. पानी की तेज धार का प्रहार भले फितौड़े झेलें, लेकिन नाचना तो तुमको ही पड़ता है न उनके ईशारों पर. दूसरों पर प्रहार को खुद बरदाश्त करना, यही सिखाया हमारे बचपन को तुमने.

कभी सोचता हॅू कि तुमने जन्म ही क्यों लिया इस धरा पर केवल और केवल दुत्कार सहने को. लेकिन कुदरत यों ही किसी को नहीं लाई है इस धरती पर. तुम्हारी भी अपनी कोई खूबी जरूर होगी, भले हम केवल भूत पूजने के लिए ही तुम्हारा उपयोग समझ पाये. वैसे भूत को खुश करने की तुम्हारी खूबी कम थोड़े ठहरी. लोग आज के इन्सान को खुश नहीं कर पा रहे, बीते जमाने के भूत को खुश करना आसान काम थोड़े ही है.
(Ganjyadu Tree in Hills)

यही क्या कम है कि हम पहाड़ियों ने तुम्हें किसी व्यक्तित्व को परिभाषित करने का विशेषण दे दिया- गन्ज्याड़ू. विशेषण भी उभयलिंगी. नाम यदि ईकारान्त होता तो तुझमें सुदूर पहाड़ की महिलाओं की गति तो कतई नहीं, कुछ कुछ प्रकृति लेकिन नियति जरूर ढॅूढते. वहीं पथरीली भूमि का जनम, वही जीजिविषा, उसी की तरह कोमलता अथवा लचीलापन जिसने दूसरे के आधातों के अनुरूप ही स्वयं को ढाल लिया, उसी तरह की तिरस्कृत नियति. आधा भूमि के गर्भ में और आधा बाहर. बाहरी आकार देखकर अन्दर की गहराई का पता तो नहीं लगाया जा सकता है ना.

अब ये गन्ज्याड़ू का विशेषण भी कुछ ऐसा ही है जैसे- सूरदास ने ईश्वर के संबंध में कहा है- अविगत-गति कछु कहत न आवै, ज्यों गॅूगा मीठे फल को रस अन्तरगत ही भावै. किसी को दिये गये तुम्हारे विशेषण का यह भाव केवल महसूस किया जा सकता है, व्यक्त नहीं. कोई इस पहाड़ी विशेषण गन्ज्याडू़ शब्द के लिए एक सटीक शब्द बता दे, तो मानें. निठल्ला, आलसी, ढीलाढाला, भोला, बुद्धू, दीर्घसूत्री कुछ भी तो नहीं एक शब्द में. इन सब शब्दों से परे है गन्ज्याड़ू का भाव. जैसी आपकी समझ वैसा ही भाव.
(Ganjyadu Tree in Hills)

कुत्ता, सुअर, गधा जैसे विशेषण यदि इन्सान को दिये जाये तो बात समझ में आती है एक प्रवृत्ति विशेष की. तुम्हारा विशेषण नकारात्मकता का आभास तो जरूर करा देता है, लेकिन किस तरह की नकारात्मकता? काश! जीव होते तो तुम्हारा कोई स्वभाव होता, कुछ समझ पाते तुम्हारी वृत्ति को. जहां तक मैं गन्ज्याड़ू शब्द का भाव समझ पाया हॅू- दीर्घसूत्री, अविवेकी, बुद्धू और भोलेपन का समन्वित गुण या कहें अवगुण. जिस हिकारत के संबोधन से गंज्याड़ू विशेषण से किसी को अलंकृत किया जाता है तो गुण तो हो नहीं सकता.

सुना है तुम में इस युग की असाध्य बीमारी मधुमेह से लड़ने की ताकत दी है कुदरत ने. होगी ताकत, तब न जब इसका प्रमाण दे सको. लोगों से कहते सुना तुझ में विद्यमान यह गुण, लेकिन किसी ने जहमत नहीं उठाई, चलो इसी गुण की खोज कर ली जाय. तुम लटके रहे यों ही इधर-उधर इस उम्मीद में कि कभी तो कोई तुम्हारी कीमत समझेगा. लेकिन ये दुनियां कुछ ऐसी है यहां अपनी औकात खुद ही जाहिर करनी पड़ती है. सच कहें तो गन्ज्याड़ू तुम खुद की काबालियत को लोगों को समझा पाने में भी गंज्याड़ू ही साबित हुए.
(Ganjyadu Tree in Hills)

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें: उतरैणी के बहाने बचपन की यादें

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago