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‘गहन है यह अन्धकारा’ में दूर कहीं उजास दिखता है

पुलिस के पास ढेरों कहानियां होती हैं. हर तबके की, हर तरह की. कहानी बनाना भी आ जाता है और वक्त-जरूरत पर मैदानी सड़क को पहाड़ी-मोड़ देना भी. एक कमी रह जाती है कि अपनी रामकहानी नहीं सुना पाते कभी. कोई पूछने की ज़हमत भी तो नहीं उठाता और खुद पहल करें इससे पहले पहरा बदलने का समय हो जाता है. Gahan Hai Yah Andhkara Review

महकमे के बारे में ऑल इज़ वेल बोलने की परम्परा है. कोई शक़ के जवाब में सैल्यूट बजाना होता है और शक़ को मौक़ा-ए-वारदात की तहक़ीक़ के लिए सुरक्षित रखना होता है. Gahan Hai Yah Andhkara Review

ऐसी सूरत में पुलिस शेष दुनिया के लिए एक अबूझ पहेली-सी हो जाती है. पुलिस के बारे में जानकारी से अधिक धारणाएँ होती हैं लोगों के पास जो पूर्वाग्रहों की पगडण्डियों से होकर कभी-कभी अफ़वाहों की गलियों में भी भटक जाती हैं.

इस अबूझ पहेली के अंधियारे पर प्रकाश डालकर श्वेत-श्याम पक्ष को शेष दुनिया के सामने लाने का जोख़िम उठाया गया है, उपन्यास – गहन है यह अन्धकारा में. लेखक अमित श्रीवास्तव स्वयं एक पुलिस अधिकारी हैं, उत्तराखण्ड पुलिस सेवा में. पहला दख़ल संस्मरण और बाहर मैं …मैं अंदर कविता-संग्रह से चर्चा में आ चुके हैं. इस उपन्यास के जरिए एक नई विधा में एक अछूते विषय को लेकर वो  पाठकों के सम्मुख हाज़िर हुए हैं.

उपन्यास का प्लाट बहुत छोटा है (एक मर्डर-मिस्ट्री को सुलझाना), पर कैनवास बहुत बड़ा. मर्डर की गुत्थियों को सुलझाते हुए लेखक महक़मे के रस्मो-रिवाज़ और तौर-तरीकों को भी पाठकों के लिए खोलता जाता है. पात्रों को थाने के अंदर के एंगल से देखना भी एक नया एंगल है पर असली नयापन उस दृष्टि में है जो सीओ साहब को किसी प्रशिक्षण में नहीं बल्कि अपनी संवेदनशीलता के कारण मिली थी.

एक ब्लाइंड-मर्डर की गुत्थियाँ सुलझाने के लिए सिर्फ़ सुराग और सबूत ही एकत्र नहीं  किये गए बल्कि उस हताशा, अभाव, नशाखोरी, दलाली, घरेलू हिंसा, बेरोज़गारी के दृश्यों को भी ग्राउन्ड ज़ीरो से समेटा गया है.

उपन्यास की भाषा, कथा के प्रवाह को अतिरिक्त गति प्रदान करती है. बिम्बों में, रूपकों में, अन्योक्ति में, कभी हास्य-व्यंग्य की सतह पर और कभी दर्शन की गहराई में उतर कर. कुछ बानगियाँ –

 “मजदूर बनने से पहले किसान थे. कृषि प्रधान देश की नीतियों ने इनके जीवन में इतनी पूस की रातें लिखीं कि कब इन्हें हरिया से हल्कू बना दिया इन्हें पता ही नहीं चला. अपने ही खेत में मजदूर बनने से पहले ये मरजाद बचाने को बाहर निकले और गोबर बनने की जगह व्यवस्था की उलटबांसियों ने इन्हें झबरा बना कर छोड़ दिया था.”

 “महकमा अब सैल्यूट फैंकने से सरकारने तक खिसक आया है.”

“अपने गूढ़ार्थ में मोटीवेशन उस सुंदर कन्या की तरह होता है जिसकी सुन्दरता का पता घूँघट उठने के बाद ही चलता है.”

“अमिताभ बच्चन ब्रांड, जिसे जाने क्यों लोग फ्रेंच कट कहते जाते हैं, दाढ़ी थी. क़ायदे से इसे गोटी विद कनेक्टेड मुष्टाश कहना चाहिए. फ्रेंच कट या वैन डाइक में तो मूँछों एवं दाढ़ी का अपना-अपना स्वतंत्र  अस्तित्व होता है. होती दोनों हैं लेकिन मूँछों की किनारी त्वचा को छोड़कर बाहर को निकल जाती है.”

“ईमानदारी असभ्य है, आदिम टाइप, तनतनाती है, झल्लाती है, हाँफने लगती है. भ्रष्टाचार सभ्य है, चुपचाप काम करता है. वैसे देखा जाए तो सिस्टम में भ्रष्टाचार और ईमानदारी एक साथ आए थे. भ्रष्टाचार बहुत विनम्र भाव से हाथ जोड़े खड़ा रहता था और ईमानदारी न जाने क्यों हमेशा तुनक में.”

शिल्प के साथ छेड़खानी में पता नहीं दफ़ा कौन सी लगती है, पर ये छेड़खानी अच्छी लगती है. जहाँ-जहाँ छेड़ा गया है वहीं-वहीं से स्वरलहरियाँ निकली हैं.

लेखक ने अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट करते हुए ये किताब महक़मे के ड्राइवर, गनर और फाॅलोअर जैसे हमराहों के नाम की है जिनके असली नाम शायद तब ही महत्वपूर्ण होते हैं जब वो कोई लीड ले के आते हैं या किसी कार्रवाई में चोटिल हो जाते हैं.

निश्चित रूप से भारत में पुलिस महक़मे में परिवर्तन के प्रति बहुत उत्साह नहीं है. शब्दावली तक नहीं बदलना चाहते. मानो चश्मदीद की जगह प्रत्यक्षदर्शी लिख-बोल देंगे तो अपराध की दफ़ा बदल जाएगी. अपने ही महक़मे की कार्यप्रणाली और कार्यपरिस्थिति पर अभिनव कुमार (आई.पी.एस.) जैसे अधिकारी भी बेबाकी से सवाल उठाते रहे हैं. अमित श्रीवास्तव ने भी उठाए हैं, गहन है यह अन्धकारा में. पर ये सवाल, सवालों की सूरत में नहीं हैं. कविता-सी कहानी की सूरत में हैं, चिलमन के पीछे हैं और जवाबों का पता बताने को आतुर दिखते हैं .

गहन है यह अन्धकारा में दूर कहीं उजास दिखता है. आदमकद आईना-सा ये उपन्यास प्यार से समझाता है कि चेहरे की धूल साफ की जाएगी तो संवरी तस्वीर नज़र आएगी. उपन्यास को, कोई मज़ार पर चादर चढ़ाने आया होगा, वाक्य के साथ बड़ी मासूमियत से फिनिश किया गया है.  

राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित ये किताब आनलाइन और बुकस्टाॅल्स पर उपलब्ध है.

-देवेश जोशी

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी शिक्षा में स्नातक और अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). इस्कर अलावा उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनसे 9411352197  और devesh.joshi67@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. देवेश जोशी पहाड़ से सम्बंधित विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं. काफल ट्री उन्हें नियमित छापेगा.

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