रुद्रप्रयाग जिले के केदारखंड में मां मंदाकिनी के तट पर स्थित सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर में कुछ समय पूर्व तक मन्नतें पूरी होने पर लोग बड़ी संख्या में जानवरों की बलि देते थे. जिसमें बकरी और भैंसा शामिल था. मंदिर के पास प्रतिदिन बेजुबान जानवरों की खून की नदी बहती थी और खून पास बह रही मंदाकिनी नदी में मिल जाता था. अस्सी के दशक में यह देख स्थानीय निवासी गबर सिंह राणा का मन विचलित हुआ और उन्होंने मंदिर में सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध किया. गबर सिंह राणा के बलि प्रथा के विरोध करने पर उन्हें लोगों का भारी आक्रोश झेलना पड़ा. यहां तक कई बार लोगों ने उनके साथ मारपीट भी की उनका माइक तोड़ डाला. उन पर मुकदमा भी किया. कई साल तक उनपर हाईकोर्ट में वाद भी चला. लेकिन उन्होंने बलिप्रथा का विरोध करना नहीं छोड़ा. अस्सी वर्षीय गब्बर सिंह राणा बताते हैं कि करीब अस्सी के दशक में उन्होंने कालीमठ मंदिर से बलि प्रथा का विरोध शुरू किया था. इसके बाद उन्होंने पौड़ी के बूंखाल और अन्य मंदिरों में भी जाकर इसका विरोध किया. एक बार पशु बलि के विरोध में उन्होंने खुद की गर्दन ही आगे कर दी थी. आक्रोशित लोगों ने उनकी गर्दन पर ही हथियार रख लिया था. लेकिन उनकी मेहतन रंग लाई और धीरे-धीरे सरकार ने बलि प्रथा को मंदिरों से बंद कर दिया. आज बूंखाल और कालीमठ में बलि प्रथा पर रोक है.
देवभूमि में जहां लोग आस्था के नाम पर कुछ भी सहन नहीं करते हैं, ऐसे में करीब चालीस साल पहले कालीमठ मंदिर में बलि प्रथा के खिलाफ गबर सिंह राणा ने सबसे पहले आवाज उठाई. गब्बर सिंह बताते हैं कि मंदिर में भैंसे काटने के बाद वहां भारी मात्रा में खून जमा हो जाता था.साथ ही पशुओं के अवशेष भी आसपास भी डाले रहते थे. मंदिर के पास खून की बदबू से बहुत परेशानी होती थी. बकरी का मांस तो लोग खा जाते थे, लेकिन भैंस का मांस मारने के बाद किसी काम नहीं आता था. इसको लेकर उन्होंने कालीमठ मंदिर से ही सबसे पहले बलि प्रथा का विरोध शुरू किया. शुरूवाती दौर में लोगों ने इसका भारी विरोध किया. उनका यह अभियान आजीवन चलता रहा.
अब वह अपने नाम के आगे ब्रती बाबा लगाते हैं. या सत्यब्रती कहते हैं. उन्होंने कालीमठ के पास ही अपना आश्रम भी बना रहा है. कालीमठ के दो किमी पहले ही बेडुला उनका गांव है. उत्तराखंड में बलि प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले गबर सिंह राणा आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं. इस सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह को कोई सम्मान आज तक नहीं मिल पाया. कुछ समय पूर्व सड़क हादसे में उनके पांव में गभीर चोट आ गई थी. जिसके बाद उनका पांव भी काटना पड़ा. लेकिन देवभूमि में निरजीव जानवरों खासकर जिनका मारने के बाद कोई उपयोग नहीं है, के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह की पहल सराहनीय है. आज कालीमठ मंदिर में शुद्ध रूप से पूजा पाठ होता है. लोगों की आस्था आज भी उतनी ही है, लेकिन मंदिर में अब बलिप्रथा पूर्ण रूप से बंद हो गई है. किसी समय मंदिर में एक ही दिन में कई जानवरों की बलि दी जाती थी.
रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ हाइवे पर गुप्तकाशी से पहले कालीमठ के लिए सड़क कट जाती है. करीब बीस किमी आगे मंदाकिनी के किनारे चलते हुए सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर है. पहले यहां बलि प्रथा दी जाती थी लेकिन अब इसमें नवरात्रों में विशेष पूजा होती है. यहीं से कालीशिल्ला के लिए भी रास्ता निकलता है. कालीमठ में तीन अलग-अलग भव्य मंदिर है जहां मां काली के साथ माता लक्ष्मी और मां सरस्वती की पूजा की जाती है. कालीमठ में सुंदर नक्काशीदार मंदिर और स्थापत्य कला के दर्शन भी होते हैं. पास ही मंदाकिनी नदी बह रही है. कालीमठ मंदिर के बारे में कई रहस्यमयी कथाए भी प्रचलित हैं. माना जाता है कि मां काली इस कुंड में समाई हुई हैं. तब से ही इस स्थान पर मां काली की पूजा की जाती है. बाद में आदि शंकराचार्य ने कालीमठ मंदिर की पुनर्स्थापना की थी. मंदिर के नजदीक ही कालीशिला भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी शिला पर माता काली ने दानव रक्तबीज का वध किया था.
वरिष्ठ पत्रकार विजय भट्ट देहरादून में रहते हैं. इतिहास में गहरी दिलचस्पी के साथ घुमक्कड़ी का उनका शौक उनकी रिपोर्ट में ताजगी भरता है.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
इसे भी पढ़ें : उत्तराखंड के जिस घर में चंद्रशेखर आजाद रहे आज वह उपेक्षित पड़ा है
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
View Comments
कहानी बहुत अच्छी है काश 80 के दशक में इतनी दूर दृष्टि रखने वाले रना जी वर्तमान की दृष्टि रखते कोई मई का लाल नहीं बोलता की ईद में बेजुबान की क़ुरबानी करके कोनसे देवेता को प्रस्सन करते हो
1980 के दशक में मोबाइल नहीं हुआ करते थे । ये फर्जी पोस्ट है ।