मैं वर्षों एक कंपनी में एचआर हेड के पद पर रहा हूं. इससे पहले भी कई दूसरी कंपनियों में इसी पद को धारण करता रहा हूं.
मेरी नौकरी के इन वर्षों के दौरान मुझे अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, परिचितों. बड़े और छुटभैया नेताओं, प्रशासनिक व इंडस्ट्री पर दबाव बना सकने में सक्षम विभिन्न विभागों के अधिकारियों से अपने बेटों, बेटियों या रिश्तेदारों की नौकरी लगाने के कई अनुरोध मिलते रहे हैं. ये वो बच्चे थे, जिन्होंने इंजीनियरिंग कॉलेज से ताजातरीन डिग्री हासिल की थी.
अनुरोधों की संख्या काफी लंबी-चौड़ी होती थी. इतने सारे नए बेरोजगार इंजीनियर होते थे कि मैं शायद उनमें से कुछ को ही अपनी कंपनी में या अपने संपर्क वाली कुछ अन्य कंपनियों में नौकरी पाने में मदद कर सकता था. कई बार मुझे माता-पिता के बेहद अनुनय-विनय वाले फोन भी आए, पर मैं उनकी मदद नहीं कर सका. स्वाभाविक था कि वे निराश हुए होंगे. उनकी पीड़ा को मैं समझ सकता हूं.
माता-पिता अपने जीवन भर की कड़ी मेहनत से अर्जित पूंजी इस आस में अपने बेटों या बेटियों को इंजीनियरिंग में डिग्री दिलवाने के लिए खर्च कर देते हैं कि इंजीनियरों के लिए नौकरियां आसानी से उपलब्ध हैं. उनमें से कई साक्षात्कार के बाद कतार से बाहर हो जाते हैं. मैं उन्हें यह भी नहीं बता सकता था कि इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के बाद भी आपके बेटे या बेटी के पास न्यूनतम आवश्यक तकनीकी ज्ञान भी नहीं है. कितना आश्चर्य होता है कि मेरे पास आने वाले इन बच्चों की डिग्री तो प्रथम श्रेणी या श्रेष्ठता के साथ उत्तीर्ण की होती थी, लेकिन ये इंजीनियरिंग के मूलभूत ज्ञान से शून्य होते थे. इन बच्चों की इस हालत को देख मुझे यह प्रतीत होता है कि माता-पिता को यह सलाह देने का उचित समय आ गया है कि वे इंजीनियरिंग डिग्री के पीछे दौड़ना बंद कर दें.
गौर करें, संयुक्त राज्य अमरीका 16 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है, जो प्रति वर्ष करीब 1 लाख इंजीनियर तैयार करता है. इसके विपरीत मात्र 2 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था भारत प्रतिवर्ष 15 लाख इंजीनियरों को पैदा कर रही है. पहले मैन्यूफैक्चरिंग यानी विनिर्माण के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर भर्तियां हो जाकी थीं और इंजीनियरिंग की कोर शाखाओं इलेक्ट्रिकल, मैकेनिकल, सिविल इत्यादि में डिग्री हासिल करने वाले बच्चे इस क्षेत्र में नौकरियां पा जाते थे. मगर अब विनिर्माण क्षेत्र जीडीपी के 17% पर स्थिर है और इसमें कोई बढोतरी नहीं हो रही है, इसलिए इन कोर शाखाओं में प्लेसमेंट बहुत मुश्किल हो गए हैं.
हाल के वर्षों में आईटी क्षेत्र का बोलबाला रहा. इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरियां मिलीं भी, अब यह भी सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 5% तक जा कर स्थिर हो गया है. आईटी ने लाखों इंजीनियरों को रोजगार दिया. अब आईटी क्षेत्र में भी संतृप्तता की स्थिति आ गई है. जो थोड़ी बहुत नौकरियां उपलब्ध भी हैं, वे केवल बेहद कुशल आईटी इंजीनियरों के लिए हैं.
यदि आप भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना को देखें तो पाएँगे कि अधिकांश क्षेत्रों में इंजीनियरों की मांग ही नहीं होती है. हमारी अर्थव्यवस्था में पर्यटन का सकल घरेलू उत्पाद का 10% हिस्सा है, मगर इस क्षेत्र में इंजीनियरों की आवश्यकता ही नहीं है. इसी तरह वित्तीय क्षेत्र, व्यापार, होटल और रेस्टोरेंट आदि में इंजीनियरों की आवश्यकता नहीं है. स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि जैसे क्षेत्रों में भी इंजीनियरों की आवश्यकता नगण्य है.
इस प्रकार सकल घरेलू उत्पाद के 50% से अधिक में इंजीनियरों के लिए कोई भूमिका नहीं है. फिर भी अधिकांश भारतीय युवा इंजीनियर बनने के लिए दौड़ रहे हैं. यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है. बाजार में इंजीनियरों की मांग कम है और आपूर्ति ज्यादा. इसके अलावा जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह खुल गए इंजीनियरिंग कॉलेजों से निकलने वाले इन युवाओं का कौशल स्तर बेहद कमजोर है. अगर हम देश के शीर्ष 100-200 इंजीनियरिंग कॉलेजों को छोड़ दें तो अधिकांश कॉलेजों से निकले इन ताजातरीन इंजीनियरों को उनके अध्ययन के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
जरा एक फ्रेश मेकैनिकल इंजीनियर से पूछकर तो देखिए कि क्या वह एक साधारण फ्रेम डिजाइन कर सकता है? आज स्थिति यह है कि ज्यादातर इंजीनियर ऐसे क्षेत्र में काम कर रहे हैं जिनके पास कॉलेज में अध्ययन किए गए कार्यों से कोई संबंध नहीं है. यह देश के संसाधनों की बर्बादी भी है. इंजीनियरिंग डिग्री सस्ते में नहीं मिलती है. एक बच्चे को सस्ते से सस्ते कॉलेज से भी इंजीनियर बनाने में लगभग 10-15 लाख रुपये लग जाते हैं. गरीब माता-पिताओं के लिए इतनी बड़ी रकम एक भारी-भरकम बोझ है. इतनी भारी रकम खर्च कर देने के बाद जब उनके बेटे या बेटी नौकरी पाने में सक्षम नहीं होते हैं या उम्मीद से बेहद कम वेतन वाली नौकरी पाते हैं तो वे जीवन भर की इस पूंजी को डूबा हुआ मानकर गहरे नैराश्य में डूब जाते हैं.
इंजीनियर बनाने की इस होड़ में मां-बाप व्यक्तिगत नुकसान तो उठा ही रहे हैं, राष्ट्रीय संसाधनों का भी बड़े पैमाने पर नुकसान हो रहा है. देश में प्रति वर्ष लगभग एक लाख इंजीनियरों को ही नौकरी मिल पा रही है. बाकी 14 लाख युवाओं ने 10 लाख फीस बर्बाद कर दी है. यह रकम लगभग $ 20 बिलियन तक है यानी स्वास्थ्य देखभाल पर सरकार के खर्च के लगभग बराबर. ऊपर से देश के मानव संसाधनों का जो नुकसान हो रहा है, वो अलग से. इसलिए छात्रों को इंजीनियर बनने की तुलना में अन्य करियर विकल्पों पर विचार करना चाहिए.
अब सवाल यह है कि अगर इंजीनियरिंग में कैरियर नहीं तो फिर ये युवा जाएं कहां. तो इन युवाओं के लिए कई विकल्प उपलब्ध हैं. एविएशन से, होटल प्रबंधन, लघु फिल्म कार्यक्रमों के लिए लघु अवधि कार्यक्रम, डेटा विज्ञान, साइबर सुरक्षा, सूचना सुरक्षा, क्लाउड टेक्नोलॉजी डिजाइनिंग, टेक्सटाइल डिजाइनिंग, भारतीय सशस्त्र बल, एनीमेशन और वीएफएक्स, डिजिटल मार्केटिंग, एसक्यूएल, पीएचपी जैसे तकनीकी पाठ्यक्रम फिल्म मेकिंग, स्क्रिप्ट लेखन, अभिनय, संगीत और नृत्य, सौंदर्य, मॉडलिंग और प्रसाधन सामग्री, स्वास्थ्य, आहार व पोषण विशेषज्ञ, विदेशी भाषाएं और बहुत कुछ.
अब आपको तय करना है कि आप इंजीनियरिंग के इस पागलपन के पीछे दौड़कर अपनी कड़ी मेहनत की कमाई की बर्बादी और नौकरी न मिलने पर जवान बेटे-बेटी की अवसाद में जाते देखना चाहते हैं या फिर विवेकपूर्ण फैसला लेकर अपनी संतति के लिए उचित कैरियर प्लानिंग करते हैं. सरकार को भी चाहिए कि वह देश की समूची इंजीनियरिंग शिक्षा प्रणाली पर पुनर्विचार करे. सरकार को चाहिए कि वह इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्या में कटौती करे और शेष रहे कॉलेजों की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए कदम उठाए.
–उत्तम सिंह मटेला.
भैंसियाछाना विकासखंड़ (जिला अल्मोड़ा) के डुंगरी गांव के रहने वाले उत्तम सिंह मटेला ने नेशनल हेरल्ड अखबार में दफ्तरी के पद से लेकर निजी क्षेत्र की कई कंपनियों में एचआर हेड का सफर तय किया है. उनके पास अनुभवों का विशाल भंडार है. रिटायरमेंट के बाद इन दिनों वह रुद्रपुर में रहते हैं.
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