[विनोद कापड़ी ने बहुत छोटी जगहों से जीवन की शुरुआत कर संसार में अपने लिए एक बड़ी जगह तैयार की है. एक मीडियाकर्मी के तौर पर खासा सफल जीवन जी चुके विनोद ने हाल के चार-पांच वर्षों में फिल्म निर्माण और निर्देशन में कदम रखा है और कुछ महत्वपूर्ण कार्य किये हैं. उनके साथ रहकर यह अहसास हो जाता है कि उनकी अंतरात्मा में पहाड़ बहुत शिद्दत के साथ धड़कता है. यही पहाड़ और उसके जन उनकी सघनतम स्मृतियों को अपनी सुदीप्ति से भरे हुए हैं. हमारे एक इसरार पर उन्होंने काफल ट्री के पाठकों के लिए अपने बिलकुल शुरुआती संस्मरण लिखने आरम्भ किये हैं. उम्मीद है पाठकों को, ख़ास तौर पर युवा पाठकों को यह सीरीज पसंद आएगी. कापड़ी अपने संस्मरण में कहते भी हैं – “तीन प्राणियों का यही वो ननिहाल था, जिसने मुझ पर सबसे ज़्यादा असर डाला और उस कच्ची उम्र में सबक़ दिया कि अपने जीवन के अमिताभ बच्चन आप भी हो सकते हैं!” -सम्पादक]
शाम के पाँच ही बजे थे. सूरज अस्त नहीं हुआ था पर पहाड़ों के बीच ढकने को तैयार था. सात-आठ बकरियाँ अभी भी चर ही रही थीं और उन सबके पास मैं मस्त हो कर खेल रहा था. तभी पाँच फ़ुट से भी कम क़द की सत्तर साल की मेरी परनानी (जिन्हें मैं आम्मा बोलता था. पहाड़ में दादी और नानी को आम्मा ही कहा जाता है), एक चट्टान पर खड़े हो कर चिल्लाने लगी थी :
“ओ … पप्पू .. अरे ओ पप्पू … !!! आजा इजा… हिट (चल) अब घर चलनूं …”
आम्मा की आवाज़ मैंने भी सुन ली थी और बकरियों ने भी पर दोनों ने ही उस आवाज़ को अनसुना कर दिया. वो चरती रहीं और मैं पास पड़े पत्थरों और बकरियों से खेलता रहा.
पहाड़ों में बकरियों के घास चरने का एक बड़ा अजब सा नियम है. सुबह उन्हें चरवाहा एक निश्चित जगह पर छोड़ देता है. बकरियाँ घास की तलाश में आगे बढ़ जाती हैं. ख़तरनाक रास्तों और पहाड़ों की तरफ चरवाहा वहीं रूक जाता है बकरियाँ दिन भर चरती रहती हैं और हर शाम को तक़रीबन एक ही समय पर वो बकरियाँ वापस उसी जगह पर जमा हो जाती हैं.
मै जब छोटा था, तक़रीबन 6-7 साल का, और गर्मियों की छुट्टी में जब भी पिथौरागढ़ में थल के पास अपने ननिहाल लेजम आना होता था मेरा सबसे पसंदीदा काम होता था आम्मा के साथ बकरियाँ चराना. बकरियाँ चराना क्या होता था – ये तो तब बिलकुल पता नहीं था लेकिन काली-सफ़ेद -भूरी उन बकरियों के साथ खेलने का रोमांच मुझे रोज़ पूरे दिन आम्मा के साथ रखता था. आम्मा की पोटली में दिन के खाने के लिए (तब पता नहीं था कि उसे लंच कहा जाता है) मडुवे की कुछ रोटियाँ (मडुवा तब बहुत निम्न स्तर की रोटी मानी जाती थी, अब तो उसे रागी भी कहा जाता है) होती थीं और हरी मिर्च के साथ पीसा नमक होता था, जो मुझे तब भी बहुत पसंद था और आज भी बहुत पसंद है.
पूरे दिन में आम्मा से मैं सिर्फ इस लंच के वक्त ही मिलता था और फिर वापस चला जाता था बकरियों के पास. बकरियों को मैं इतना तंग करता था कि शायद उन्हें मेरी मौजूदगी पसंद नहीं थी पर इस सबसे बेख़बर मैं उन्हें दिन भर सताता रहता था. इसके बावजूद हम दोनों का एक दूसरे से ख़ास रिश्ता बन गया था. यही वजह रही कि आम्मा दूसरी और तीसरी बार भी जब उसी चट्टान पर खड़ी हो कर चिल्लाई तो एक बार फिर ना मैंने ध्यान दिया और ना ही बकरियों ने.
चौथी बार आम्मा की आवाज़ में ग़ुस्सा था और शब्द भी बदल गए थे. वो चिल्ला रही थी: “अरे बाघ आने वाला है रे बाघ …बाघ पप्पू बाघ …”
बाघ हिंदी का शब्द है, जिसका मतलब होता है टाइगर. लेकिन पहाड़ों में तेंदुए या चीता को ही बाघ कहा जाता है.
पूरे उत्तराखंड के पहाड़ में शायद एक भी टाइगर नहीं होगा और ऐसे में चीता को ही बाघ क्यों कहा जाता है – ये मेरे लिए आज भी रहस्य बना हुआ है. उस वक्त तक मैंने ये तथाकथित बाघ नहीं देखा था पर इसी आम्मा से सोने से पहले बाघ के ख़ौफ़नाक क़िस्से सुन रखे थे कि कैसे वो गोठ (जानवरों को रखने वाली जगह) में घुसकर बकरी की गर्दन पकड़ कर घसीटता हुआ अपने साथ ले जाता है. बाघ सुनकर मैं भी कुछ घबराया और शायद बकरियाँ भी और हम सब आम्मा की तरफ चल पड़े.
जंगल से गाँव जाने के रास्ते में आम्मा अक्सर मुझे उस गड़रिए की कहानी सुनाती, जो हमेशा बाघ आने की झूठी कहानी सुनाकर पूरे गाँव को इक्कट्ठा कर लेता था. तब कभी समझ नहीं आया कि आम्मा हमें भी झूठा बाघ दिखा कर डराती है. मैं तो नासमझ था ही. बकरियों का हाल मुझ से भी बदतर था …
आज 40 साल बाद सोचता हूँ कि आम्मा की वो कहानियाँ (झूठी ही सही) अगर नहीं होती तो जीवन में न कहानियों से परिचय हो पाता – न कल्पनाओं से और न ही तमाम चरित्रों और पात्रों से …
अशोक दा ने आदेश किया कि पहाड़ और बचपन के बारे में कुछ लिखो. बहुत देर तक सोचता रहा कि कहाँ से शुरू करूँ? तो फिर एहसास हुआ कि मेरे जीवन में अगर ननिहाल और मेरी आठवीं पास माँ नहीं होती तो पता नहीं शायद कुछ भी नहीं होता. ऐसा ननिहाल जिसमें ना कोई मामा ना मामी, ना नाना, ना मौसी, ना कोई मौसा. बस तीन प्राणियों का मेरा ननिहाल. माँ , माँ की माँ (नानी) और मेरी माँ की माँ की माँ (परनानी, जिनके साथ मैंने बकरी चराने जाता था).
तीन प्राणियों का यही वो ननिहाल था, जिसने मुझ पर सबसे ज़्यादा असर डाला और उस कच्ची उम्र में सबक़ दिया कि अपने जीवन के अमिताभ बच्चन आप भी हो सकते हैं.
(जारी)
देश के बड़े मीडिया घरानों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके विनोद कापड़ी फिलहाल पूरी तरह फिल्म-निर्माण व निर्देशन के क्षेत्र में व्यस्त हैं. मिस टनकपुर हाज़िर हो उनकी पहली फिल्म थी. अपनी एक डॉक्यूमेंट्री के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित हो चुके विनोद की नई फिल्म पीहू बहुत जल्द रिलीज होने वाली है. काफल ट्री के पाठकों के लिए उन्होंने अपने संस्मरण लिखना स्वीकार किया है.
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विनोद ने जीवन को क़रीब से देखकर उसको गुना है। विनोद की सोच और चीज़ों को उनका देखने का नज़रिया ही उन्हें औरों से जुदा करता है। सपने, कहानियाँ, दृश्य ये ही तो जीवन है। विनोद ने इनको रच दिया है। मेरी मुलाक़ातें विनोद से चंद ही हैं लेकिन उसमें स्पार्क पहले से ही था।
विनोद सर वास्तव में पहाड़ की जमीन से जुड़े दिग्गज कलाकारों में से एक है हमें उनसे प्रेरणा मिलती है और पहाड़ के प्रति उनके प्रेम यह कहानी सहज रूप से कह रही है
मुझे विनोद कापड़ी का साक्षात्कार का मौक़ा मिला और तभी पता चला कि वे आदमी कम और इंसान ज़्यादा हैं..
पता नहीं क्यों बचपन की कहानियां ननिहाल के बिना खत्म क्यों नहीं होती। मेरा सुनहरा बचपन नानी,मामा,मौसी के साथ गुजरा, पता ही नहीं क्यों शहर की ओर मुड़ना हुआ। कभी बाघ आ जाने वाले ठहरे, कभी बिराव, तो कभी-कभी किसी के दरवाज़े पर सांप भी आ जानेवाले हुए। पहाड़ में बचपन शुद्ध हवाओं के झोंको के बीच बहुत साफ होता है और कहीं न कहीं वह साफ मन हर उस पहाड़ी के दिल में बसा होता है जिसका बचपन पहाड़ में गुजरा हो।