फ़्रांस के फ़िल्मकार अलबर्ट लेमुरेस्सी द्वारा बच्चों के लिए बनायी फ़िल्म ‘रेड बैलून’ अपने निर्माण के साठ साल बीत जाने के बावजूद अब भी जहाँ कहीं भी दिखाई जाती है अपने दर्शकों का दिल जीत लेती है. 1956 में बनी यह 35 मिनट की फ़िल्म लगभग बिना संवादों के है. यह पेरिस शहर की कहानी है. इस तथ्य के साथ एक ख़ास बात यह है कि 1960 के दशक के पेरिस को रंगीन सूरत में देखने का अब यही एकमात्र माध्यम भी है क्योंकि अब का पेरिस बहुत बदल चुका है.
पास्कल, जो इस फ़िल्म का नायक भी है, को स्कूल जाते हुए एक लाल गुब्बारा मिलता है. लाल गुब्बारा पास्कल से दोस्ती गांठने के लिए चुहल करता है. पास्कल भी अपने नए दोस्त को समझने की कोशिश करता है. थोड़ी देर की लुकाछिपी के बाद वे दोस्त बन जाते हैं. उनके दोस्त बनते ही दर्शकों के सामने 1960 के दशक के पेरिस की ऐसी दुनिया खुलनी शुरू होती है जो जनाब अल्बर्ट ने अपने मन के कोने में छुपा रखी थी. अब जहां–जहां पास्कल जाता है गुब्बारा भी उसके पीछे हो लेता है. इस क्रम में हम पेरिसवासियों के गली मोहल्ले, बेकरी की दुकानों, फुटपाथों, यातायात के लोकल साधनों और उस पर दिखते पेरिसी शिष्टाचार से रूबरू होते हैं. सबसे यादगार वह दृश्य है जब पास्कल रेलवे स्टेशन के ऊपर से गुजरता है और सिनेमा का पर्दा भाप इंजन के काले धुऐं और उसकी कर्कश सीटी से जगमग हो जाता है. एक बहुत बारीक कलाकारी के तहत अलबर्ट लेमूरेस्सी ने इस दोस्ती को इतना सघन बनाया है कि लाल गुब्बारा किसी छोटे बच्चे जितना आत्मीय और शैतान हो जाता है. वह पास्कल के साथ साए की तरह हर कहीं है. उसकी ट्राम की सवारी से लेकर उसके बेडरूम के बाहर आत्मीय पहरा देने तक. अकेली होती दुनिया में इस सघन दोस्ती के बहुत गहरे मायने हैं.
शुभ के साथ एक अशुभ विचार की तरह फ़िल्म का आख़िरी हिस्सा हुडदंगी बच्चों के समूह द्वारा पास्कल और उसकी लाल गुब्बारे के साथ दोस्ती को ख़त्म करने का है. यह समूह पास्कल के अभिन्न साथी को ख़त्म करने के इरादे के साथ पास्कल का पीछा करता है. इस क्रम में हम पेरिस के भीतर के इलाके से परिचित होते हैं. कुछ देर तक चलने वाले नाटकीय दृश्य के बाद हुडदंगियों का समूह पास्कल की प्यारी दोस्ती को ख़त्म करके ही दम लेता है और फिर एक अद्भुत दृष्टि और निर्देशकीय समझ की वजह से अलबर्ट जिस दृश्य की रचना करते हैं वह बहुत मार्मिक है. लाल गुब्बारे के नष्ट होते ही पास्कल से हमदर्दी दिखाते हुए शहर के सारे गुब्बारे खिंचे चले आते हैं और जब पास्कल उन्हें पकड़ता है तो वे उसे उड़ा कर शहर से बाहर ले जाते हैं. शायद अलबर्ट यह टिप्पणी करना चाह रहे हों कि पेरिस शहर अब इस दोस्ती के लायक नहीं. अपने गहन आत्मीय गुण के कारण यह फिल्म जब भी किसी नए दर्शक समूह को दिखाई जाती है बरबस ही एक नई दोस्ती की शुरुआत कर देती है जो हर रोज कड़वी होती इस दुनिया के लिए नियामत की तरह है.
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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