प्रो. मृगेश पाण्डे

आजादी के लिए टिहरी रियासत का संघर्ष

टिहरी राजा के राज में ब्रिटिश हुक्मरान गवर्नर हेली ने एक अस्पताल बनाना चाहा. यह अस्पताल नरेंद्र नगर में बनना था. इसकी नींव रखे जाने के सारे प्रबंध टिहरी के राजा ने कर दिए. रियासत में मुनादी करवा दी गई कि जनता इस मौके पर नरेंद्र नगर पहुंचे.रवाईं पट्टी से भी औरतें आदमी बच्चे बूढ़े पहुंचे. आखिर उनके बद्री विशाल का फरमान था. बोलांदा बद्री के बोल सर माथे.
(Freedom Struggle in Tehri)

टिहरी नरेश  हर लिहाज से ब्रिटिश आकाओं को खुश करना चाहता था. दोनों के मध्य आपस में अनगिनत समझौते हुए . अपना राज्य बनाए बचाये रखने के लिए रियासतों की यही लालसा थी कि प्रकृति ने जो दुर्लभ संसाधन दिए हैं उनके विदोहन से राजस्व बढ़ते रहे.अंग्रेज सरकार की नजर टिहरी रियासत के समृद्ध वनों पर थी. जंगल खूब कटे. संसाधनों की लूट मची. टिहरी नरेश के सामने फिर एक सुनहरा मौका था. तो इस अवसर पर अपनी सोच व तमाम मुहंलगों की रायशुमारी के बाद उसने अपनी जनता को हुक्म  दिया कि सामने जो तालाब है उसमें सब लोग कूदें. नंग धड़ँग हो कर कूदें. उसके खास अंग्रेज मेहमान इस अद्भुत नज़ारे को देखें और सबको बिना कपड़ों के तालाब में कूदते देख अंग्रेज  खुश हो जाएं.मान जाएं कि ऐसा मनोरंजन और कौन करा सकता है सिवाय टिहरी सम्राट के. लाचार जनता ने फरमान सुना.अपने राजा के बोल सुने.उसके हुक्म की तामील तो करनी ही थी . पर दिल पर तो जैसे खुकरी पड़ गई.

 बद्री नाथ के अवतार कहे जाने वाले राजा के लिए, उसके राज की आन -बान -शान के लिए गरीब जन ने कितने हाड़ गलाये. पर राजा की सनक से अब बस ऐसी हैसियत रह गई कि लाज शरम छोड़ सब नंगे कर दिए गए. यही रह गई उनकी औकात  कि भेड़ बकरियों की तरह हाँक दो. जो कहे राजा वैसा कर दो.बस बहुत हुआ. अब ऐसी गैरत की जिंदगी क्या जीनी, क्योँ जीनी?

अपने राजा के खिलाफ बगावत की यह भी एक कड़ी रही. रियासत टिहरी की जमीन में घटी ऐसी अनेक घटनाओं में यह भी एक घटना थी जिसने राजा और उसके निरंकुश शासन के प्रति विद्रोह का सिलसिला जारी रखा.फिर एक बार ये हुआ कि  राज परिवार में एक सदस्य की मृत्यु हुई तो निरंकुश राजा की तरफ से यह फरमान जारी हुआ कि शोक को दिखाने -जताने के लिए सारी प्रजा अपना सर मुंडवा दे. पर कैंथोली गाँव के वो ग्रामवासी जीवट भरे थे जिन्होंने इस बेतुके आदेश को मानने से इंकार कर दिया. पटवारी ने राजा से शिकायत की. राजा का आदेश न मानना तो जुर्म हुआ ही सो सबल का कोप निर्बल पर हुआ और पूरे कैंथोला गाँव के लोग कैद कर जेल में डाले गए. जुर्माना पड़ा सो अलग.गाँव के लोगों ने यह सब सहा और सोचा भी कि ऐसे राजा के अधीन रहना तो हर पल अपने आत्मसम्मान का खून पानी करना है. सो निर्णय हुआ कि छोड़ देंगे ऐसा राज और साथ ही वह जमीन भी जो इस राज के अधीन है. कैंथोली गाँव वालों ने अपने बसे बसाये गाँव खेत और छानियां छोड़ी और आ बसे पहले श्रीनगर और फिर पौड़ी.

1815 से 1949 तक टिहरी रियासत अपने बोलांदा बद्रीनाथ यानी राजा के अधीन रही. इसे हिज हाईनेस महाराजा सुदर्शन साह ने बसाया था.1814 से 1816 के बीच एंग्लो- गोरखा युद्ध हुआ था जिसमें पहला युद्ध देहरादून के नालापानी में लड़ा गया. जिसमें ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना का मुखिया मेजर जनरल जिलेप्सी मार डाला गया था . सख्त घेरेबंदी को तोड़ते हुए गोर्खाली सेना नाहन की तरफ बढ़ चली थी . कंपनी की फौज के साथ जम कर टक्कर हुई. अंततः नेपाल को सिगौली की सन्धि करनी पड़ी जिससे वह सिक्किम, दार्जिलिंग, गढ़वाल और कुमाऊं के साथ पश्चिमी हिमालय के कई इलाकों को छोड़ने पर मजबूर हुए. एंग्लो गोरखा युद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए सामरिक महत्व का तो था ही इससे बढ़ कर उच्च हिमालयी दर्रों के रस्ते तिब्बत से पशमीना ऊन के व्यापार से होने वाले भारी मुनाफे से भी जुड़ा था. ईस्ट इंडिया कंपनी ने हिमालयी दर्रों का अधिकांश क्षेत्र अपने अधिकार में रख मन्दाकिनी और अलकनंदा के पश्चिमी भू भाग को सुदर्शन शाह को सौंप दिया.टिहरी रियासत में सुदर्शन शाह की सीमित संसाधन क्षमता को देख अंग्रेजों ने पहले रवाईं का परगना अपने ही पास रखा था पर 1824 में रवाईं को भी टिहरी रियासत में शामिल करने की सनद जारी कर दी गई.
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अस्तु, भागीरथी और भिलंगना के संगम के बाएँ तट पर स्थित यह छोटा सा गाँव 28 दिसंबर 1815 को  दिन के 11 बजे कुम्भ लग्न और सिँह राशि में टिहरी नरेश की राजधानी बन गया. यह भी कहा जाता है कि इस समय बनी नगर की जन्म कुंडली से नगर का नक्षत्र आधारित नाम टिहरी पड़ा. सुना कि पहले यहाँ एक “टिपरी” नाम का गाँव था. यह भी दिखता था कि इस स्थल पर नदी टेढ़ी हो कर बहती है जिसे स्थानीय रूप से टीरी कहा जाता था. वैसे भी धनुषाकार नदी के तट पर राजधानी स्थापित करने की परंपरा रही थी. एक अन्य मत त्रिवेणी या त्रिहरी अर्थात तीन जलों के मिलने से बना जिसके पीछे यह पौराणिक विश्वास था कि यहाँ भागीरथी-भिलंगना के संगम पर एक अन्य जलधारा पाताल गंगा भी आ कर मिल जाती है.अर्थात तीन जल धाराओं का मिलन.

टिहरी नरेश सुदर्शन शाह के दरबारी कवि गुमानी पंत रहे. उन्होंने टिहरी शब्द के बारे में लिखा कि :

सुरगंग तटी, रसखान मही, धनकोष भरी यहु नाम रह्यो.
पद तीन बनाए रच्यो बहु विस्तर, वेग नहीं जब जात कह्यौ.
इन तीन पदों के बसान बस्यो, शुभ अक्षर एक ही एक लह्यौ,
जनराज सुदर्शन शाहपुरी, टिहरी, इस कारण नाम रह्यो.

1949 से पहले तक टिहरी महाराज टिहरी गढ़वाल की राज रियासत रही. अनेकों संघर्षो से जूझती जनता एवं आजादी के मतवाले आंदोलन कारियों के अपनी मातृभूमि को स्वाधीन भारत में मिला देने के साहस से ही टिहरी रियासत का विलीनीकरण उत्तर प्रदेश प्रान्त में हुआ. उससे पहले आम जनता ने शोषण और उत्पीड़न का लम्बा दमन चक्र झेला.

ठीक वैसे ही जैसे उत्तराखंड में आजादी की लड़ाई लड़ी गई टिहरी में ढंढकों के जरिये रियासत की खिलाफत की गई. इसकी शुरुवात 1835 से हुई जब सकलाना के मुआफीदार के खिलाफ कमीण -सयाणों ने विद्रोह किया.1851 में सकलाना की अठूर पट्टी में बद्री सिंह असवाल ने कृषि उपज के तीसरे भाग को कर में देने के रिवाज को बंद करने की घोषणा की.1903 में कंजरवेटर केशवानन्दरतूड़ी ने गाय बैलों पर ‘पुच्छी’और बर्दायस या देण नामक कर थोपे. इसके खिलाफ कुंजणी गाँव में ढंढक हुई. बाद में राजा कीर्ति शाह ने इसे वापस लिया व वन अधिकारियों को मुअत्तल कर दिया.

अपने आप को बनाए बचाये रखने के लिए टिहरी के राजाओं ने समय समय पर ब्रिटिश शासन के आगे घुटने टेके. अपना स्वार्थ सिद्ध करने को अंग्रेजों की जी हजूरी की. अनापशनाप समझौते किए. कहीं भी वह भारत की आजादी की लड़ाई में सहयोगी न बने.जब 1857 की क्रांति हुई तो टिहरी के राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की तरफदारी की थी.1859 में राजा सुदर्शन शाह के दिवंगत होने पर राजा भवानी शाह 1871 तक राज सँभालते रहे. उनके शासन में टिहरी में अशांति का माहौल रहा. जनता की आवाज को बल पूर्वक दबाया गया. फिर 1871 से 1884 तक राजा भवानी शाह के पुत्र प्रताप शाह का शासन हुआ. यह तेरह वर्षों की समय अवधि टिहरी रियासत के लिए बेहतर काल रही . 1884 में पृथ्वी शाह की मृत्यु के समय उनका पुत्र कीर्ति शाह अल्पव्यस्क था. अतः श 1892 तक शासन महारानी गुलेरिया के हाथों में रहा.

1892 में कीर्ति शाह ने टिहरी की राज गद्दी संभाली. उन्होंने जनकल्याण हेतु अनेक योजनाएँ क्रियान्वित कीं. प्रजा को माफ़ीदारों के शोषण से मुक्त कराया. कुमाऊं कमिश्नर की मदद ली.1893 से 1919 तक टिहरी राज्य का शासन संरक्षण समिति के अंतर्गत चला. फिर 1919से 1946 की लम्बी समय अवधि में राजा नरेंद्र शाह का राज चला.अपने हक की लड़ाई का पहला जन आंदोलन 1929-30 में उभरा जिसके पीछे सदियों से चली आ रही प्राकृतिक संसाधनों और वन अधिकारों की लड़ाई थी. इसके साथ ही सामंत शाही, बेगार, प्रभु सेवा के साथ ही लगातार बढ़ते करों से भी यह जुड़ गया. आंदोलन के पीछे किसान थे. भूमि सम्बन्धी अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले कीर्ति नगर परगना इलाके के कई निवासियों को दंड के रूप में काले पानी की सजा हुई. भूमि सम्बन्धी आंदोलन परगना उत्तरकाशी राजपट्टी में भी चला. 20 मई 1930 को एस डी एम सुरेन्द्र दत्त शर्मा और डी एफ ओ पदमादत्त रतूड़ी ने जनता पर गोली चला डी. अनेक किसान घायल हुए और धूम सिंह के साथ एक अन्य किसान मारा गया.

आंदोलन की चरम परिणति तब हुई जब 30 मई 1931 को रवाईं के तिलाड़ी मैदान में आंदोलन कारियों पर गोली चला दी गई थी. टिहरी नरेश नरेंद्र शाह के दीवान थे चक्रधर जुयाल जिन्होंने यह जघन्य गोली कांड करवाया. जुयाल ने टिहरी से बाहर के वकीलों को मुकदमा लड़ने का अधिकार भी नहीं दिया.कइयों को कठोर कारावास और कालापानी की सजा हुई.बंदी बनाए गए 15 लोगों की मौत जेल में ही हो गई जिनके शवों को यमुना नदी में बहा दिया गया.इन ख़बरों को छापने वाले गढ़वाली पत्र के संपादक विश्वम्भर चंदोला को भी झूठी खबर के जुर्म में साल भर की कड़ी कैद की सजा दे दी गई.रवाईं आंदोलन वनाधिकारों के संघर्ष के साथ रियासत की दमनकारी नीति का विरोध भी था.1935 में ही सत्य प्रसाद रतूड़ी ने सकलाना पट्टी के उनियाल गाँव में बाल सभा की स्थापना की. इसका मकसद विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना भरना था.1936 में दिल्ली में गढ़ देश सेवा संघ बना जो रियासत की जनता के बीच जा कार्य करने का लक्ष्य रखता था.20 मार्च 1938 को दिल्ली में ही पर्वतीय सम्मलेन हुआ जिसमें पंडित बद्री दत्त पांडे व श्री देव सुमन शामिल हुए.5 व 6 मई 1938 को श्रीनगर में श्री देव सुमन ने टिहरी रियासत की जनता के कष्टों व इनके समाधान के प्रस्ताव पारित किए गए इसकी अध्यक्षता पंडित नेहरू ने की थी. जून 1938 में मानवेन्द्र नाथ ने ऋषिकेश में टिहरी की जन समस्याओं को उठाया जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी की मांग की गई.
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टिहरी रियासत में आम खेतिहर और पशुपालक आबादी की हालत बहुत शोचनीय थी. उन पर मनमाने और अनापशनाप कर थोपे जाते थे. पर कीर्तिशाह के शासन में किसानों को कई रियायतें दी गईं . वह जंगलों में अपने पशु चरा सकते थे. अपने मकान बनाने के लिए जंगल से लकड़ी व पत्थर -पटाल ले सकते थे. खेती के उपकरणों के लिए जंगल से काष्ठ ले सकते थे, उन्हें अपनी जरुरत के लायक पेड़ दिए जाते रहे .इसी तरह वह काठ -कोरालों में आलू चौलाई इत्यादि की बुवाई कर सकते थे. अब इस व्यवस्था में बदलाव तब आया जब टिहरी रियासत के वन अधिकारी पदम दत्त रतूड़ी ने जंगलों से मिलने वाली इन सुविधाओं पर रोक लगा दी. साथ ही नाप खेती के मिलान पर हदबंदी भी करवा दी. इसे मुनार बंदी कहा गया. ऐसे में कई समस्याएं पैदा हुईं. गरीब किसान अपनी व अपने पाले पशुओं के लिए नमक तक लेने रवाईं जौनसार व चकरौता तक पैदल जाते थे.अब वन अधिकारी रतूड़ी के नये आदेश से तो रवाईं के लोगों के आनेजाने का रास्ता, खेत खलिहान,गौशाला भी वनों की हदबंदी की सीमा में आ गया. रियासत का फरमान था कि सुरक्षित वनों में जनता का कोई अधिकार न रहेगा.ग्रामीणों के सामने यह समस्या आई कि वह अपने ढोर ढंगर कहाँ चरायें. जब उन्होंने यह समस्या सरकार के सामने रखीं तो उन्हें यह उलटबांसी सुनने को मिली कि गाय बछियों के लिए सरकार कोई नुकसान नहीं उठाएगी. ग्रामीण अपने जानवर पहाड़ से नीचे लुढ़का दें.

आखिरकार ऐसी नीतियों पर चलती शासन व्यवस्था का प्रबल विरोध होने लगा. आम जनता राजा के खिलाफ होने लगी. लोगों ने तय किया कि जहां कहीं भी वन विभाग मुनारें बनाता है उन्हें तोड़ दिया जायेगा .कोई हदबंदी नहीं चलेगी. ऐसे में राजा के दीवान ने जनता के आपस में इकट्ठा होने और सभा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. ग्रामीण भी चुप न रहे. वह लाखामण्डल पहुँच गए और वहीं गोलबंदी शुरू कर दी. सभाएँ होने लगीं. विरोध के स्वर उभरे. जनता राजा के कारकुनों द्वारा किए जा रहे अन्याय व अत्याचार की जानकारी की खबर डाक भेज ब्रिटिश वायसराय तक पहुँचा देती .वहीं टिहरी नरेश के जासूस भी हर घटना पर नजर रखते और जनता द्वारा सरकार के विरोध में की जा रही हर हरकत की खबर देते.

दमन और उत्पीड़न देश की सारी रियासतों में था.पर्वतीय प्रदेश की 63 रियासतों में हिमाचल प्रदेश की धानी रियासत भी शामिल थी. यहाँ हो रहे अन्याय व मनमानी का विरोध स्थानीय जनता ने किया. प्रजा मण्डल के नेतृत्व में जनता ने अपने अधिकार मांगे. इस आंदोलन को कुचलने के लिए 1940 में गोली कांड हुआ था. गोली कांड की जाँच के लिए पंडित नेहरू ने जाँच कमेटी बनाई जिसके अध्यक्ष पंजाब के भाई परमानन्द और मंत्री श्री देव सुमन थे. इस जाँच कमेटी ने रियासतों के नरेशों को गोली कांड का दोषी पाया. इनमें टिहरी रियासत भी शामिल थी. 19 मार्च 1941को टिहरी राज्य के अंदर प्रजामंडल गठित करने का निश्चय किया गया. श्री देव सुमन और शंकर दत्त डोभाल ने यह दायित्व संभाला. रियासत ने उनके पीछे जासूस और पुलिस लगा दी और 9 मार्च 1941 को टिहरी के पास श्री देव सुमन को उनकी ससुराल पडियार गाँव में हिरासत में ले लिया. फिर भारत छोड़ो आंदोलन में 29 अगस्त 1942 को देवप्रयाग में उन्हें फिर गिरफ्तार कर हवालात में डाल दिया.

6 सितम्बर 1942 को उन्हें ब्रिटिश पुलिस के हवाले कर पहले देहरादून व फिर आगरा जेल में रख दिया गया.18 दिसंबर 1943 जेल से छूट वह अपने गाँव जौल गए. फिर जौल से टिहरी जाते 30 दिसंबर को उन्हें फिर गिरफ्तार कर टिहरी जेल में डाल दिया गया.टिहरी में तो दमन चक्र बढ़ते ही जा रहे थे.ऐसे ही 14 जून 1942 को राजद्रोह का मुकदमा चला था. राम चंद्र उनियाल को दो साल व राम प्रसाद बहुगुणा को छह महिने की सजा सुना दी गई थी. भारत छोड़ो आंदोलन में टिहरी प्रजामंडल के कार्य कर्ता गिरफ्तार किए गए थे. उन्हें नजरबंद किया गया.राजनीतिक बंदियों को जेलों में ठूंस दिया गया. श्री देव सुमन, पंडित शंकर दत्त डोभाल, श्री आनंद शरण रतूड़ी व श्री भगवान दास को देहरादून से आगरा की जेल में डाल दिया गया.इस जेल से उन्हें दिसंबर 1943 को छोड़ा गया. श्रीदेव सुमन अपने गाँव जैल आये जहां उनकी माता रहती थीं और हफ्ते बाद ही टिहरी की ओर रवाना हो गए. उनका मुख्य लक्ष्य जनता के हित संवर्धन की सोच को साकार करता प्रजा मण्डल का उत्तरदायी शासन स्थापित करना था. टिहरी की पुलिस ने उन्हें चम्बा में रोक दिया. जब वह टिहरी की ओर जाने लगे तो पुलिस ने उन्हें पीटा. सुमन के सर की गाँधी टोपी को जमीन पर फेंक जूतों तले रोंदा गया. श्री देव सुमन वहीं सड़क पर अनशन पर बैठ गए. फिर उन्हें रस्सों से बांध टिहरी जेल ले जाया गया. जेल में भी उनका अनशन जारी रहा. बताया जाता है कि उनके दोनों पैरों में पेंतीस सेर की बेड़ियाँ थीं जिनमें लोहे के मोटे डंडे पड़े थे. उन्हें काल कोठरी में डाल दिया गया

जेल में श्री देव सुमन ने तेरासी दिन की भूख हड़ताल की. उनकी बिगड़ी हालत देखते हुए उन्हें इंजेक्शन लगाया गया जिसके लगने से उनकी मृत्यु हो गई.श्री देव सुमन करीब 209 दिन जेल में यातनाओं से जूझते रहे.29 फरबरी 1944 से शुरू उनका अनशन 25 जुलाई 1944 तक उनके शहीद होने पर ही खत्म हुआ.उनके देहांत की खबर कई घंटों के बाद अन्य कैदियों को पता चली. जब यह खबर फैली तो जनता शोक विह्वल हो उठी. टिहरी से सोलह मील दूर उनके गाँव जैल में खबर पहुँचने से पहले ही उनके पार्थिव शरीर को बोरी में डाल दो लकड़ियों से बांध जेल अधीक्षक मोर सिंह के आदेश पर नदी में डाल दिया गया . श्री देव सुमन शहीद हो गए.जनता में हाहाकार मच गया.विरोध के स्वर और मुखर हुए . टिहरी रियासत के खिलाफ जनता का आक्रोश बढ़ता ही चला गया.

1946 मेंआजाद हिन्द फौज के सैनिक जै हिन्द के उदघोष के साथ गढ़वाल पहुंचे.25 जुलाई 1946 को पहली बार सुमन दिवस मनाया गया.21 अगस्त 1946 को टिहरी रियासत द्वारा राज्य के भीतर प्रजा मण्डल की स्थापना को वैधानिक मान्यता देनी पड़ी. पर नये भूमि बंदोबस्त के विरोध में गिरफ्तारियां होती रहीं. नागेंद्र सकलानी, दौलत राम और परिपूर्णानन्द पैन्यूली को छोड़ अन्य को जमानत पर छोड़ा गया.5 अक्टूबर 1946 को युवराज मानवेन्द्र शाह का राज्याभिषेक हुआ पर शासन व्यवस्था यथावत रही.बिना वकील के मुकदमों की सुनवाई, बंदियों को कठोर सजा देने का सिलसिला जारी रहा.10 दिसंबर 1946 को परिपूर्णानंद पैन्यूली जेल से फरार हो दिल्ली पहुँच गए. प्रजामंडल का विरोध जारी रहा.28 अप्रैल 1947 को टिहरी रियासत ने शांति रक्षा अधिनियम लागू कर दिया जिससे प्रजामंडल के सभी क्रिया कलापों पर रोक लगे सभा, जुलूस न हो सकें व अभिव्यक्ति प्रतिबंधित रहे.
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टिहरी रियासत ने आजादी के मतवालों स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को प्रताड़ित करने का नया तरीका खोजा. चुन चुन कर उनके घरों की कुड़की की गई और माल असबाब की नीलामी होने लगी. कास्तकारों की फसलें रौँदी गईं.घरों के बर्तन भांडे और पालतू पशु भी नहीं छोड़े गए. ऐसी जोर जबरदस्ती और दमनकारी नीतियों के विरोध में 15 दिसंबर 1947 को सकलाना पट्टी के माफीदार ने टिहरी नरेश को अपना त्यागपत्र भिजवा दिया.16 दिसंबर को सभी अधिकार प्रजामंडल को सौंप आजादी की घोषणा कर दी.

अंग्रेजों और गोरखों के बीच पहले जब युद्ध हुआ था तब ईस्ट इंडिया कंपनी की भरपूर मदद करने वालों में शिवराम सकलानी उनके बंधु बांधव व स्थानीय जनता रही थी. इसके इनाम में उन्हें टिहरी रियासत के अधीन बत्तीस गाँव वाली जागीर की सनद मिली. इसे सकलाना की मुआफीदारी के नाम से जाना गया. सकलाना में रियासत बनने के दो दशक बीतते 1835 से ही ढंडक शुरू हो गई थी. रियासत के लोग जनता पर थोपे करों का विरोध इन्हीं ढंडकों के करते आये. जब भी कर बढ़ते या रियासत के कारिंदे कोई मनमानी करते या मुआफीदार अपनी रियाया के साथ कोई जुल्म करते तो विरोध का स्वर ढंडक के रूप में उभरता. जनता जानती थी कि अगर टिहरी नरेश उनकी समस्या को नहीं सुलझाता तो उससे ऊपर अंग्रेजों का शासन है. इसी कारण टिहरी नरेश और मुआफीदारों की शिकायतें ऊपर तक जाने लगीं.फिर मुआफीदार भी शासन के विरोध में उतर आये.

सकलाना के पुजार गाँव से नागेंद्र सकलानी द्वारा रियासत के निरंकुश तंत्र के विरोध की कथा भी यहीं से शुरू होती है. जब रियासत ने माफीदारों की सारी जमीन जब्त करवा दी और उन्हें राजद्रोही घोषित कर दिया. इससे पूरी सकलाना पट्टी भड़क गई और टिहरी नरेश के विरोध में जनता मुखर और आक्रामक हो गई. सकलाना पट्टी के क्रांतिवीरों द्वारा किए इस राजनीतिक संघर्ष को सकलाना आंदोलन के नाम से जाना जाता रहा .

टिहरी रियासत के अधोपतन के पीछे सकलाना पट्टी और उनियाल गाँव का संघर्षप्रद और प्रेरक योगदान रहा. इसी सकलाना मुआफीदारी के पुजारागांव में 16 दिसंबर 1920 को नागेंद्र सकलानी का जन्म हुआ था . सभी किसान परिवारों की तरह उनका परिवार भी खेती और पशुपालन से जीवन निर्वाह करता आया था. अपने राजा के सामंती जुल्म नागेंद्र ने बचपन से ही देखे थे और इनके विरोध के स्वर भी उसके भीतर अंकुरित होते रहे.19 वर्ष का होने पर नरेंद्र उनियाल गाँव की उस बाल सभा का जुझारू कार्यकर्त्ता बन गया जिसने सामंती जुल्म के खिलाफ बगावत की शुरुवात गाँव गाँव में गए जाने वाले बाल गीतों से की.
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 ऐसे ही कैंथोली गाँव था जो टिहरी रियासत की ‘खास पट्टी ‘में आता था . खास पट्टी के जागरूक निवासियों से टिहरी नरेश का निरंकुश शासन भयभीत रहता था क्योंकि यहां भी वह मतवाले थे जो बलात थोपे गए करों जिसे का प्रबल विरोध करते थे. खास पट्टी अपनी शूरवीर प्रकृति के जन समुदाय से टिहरी रियासत के कारकुनों के मन में ऐसा भय व आतंक पैदा करती थी कि टिहरी रियासत के अन्य इलाकों के निवासी सुबह सबेरे न तो खास पट्टी कि ओर देखा करते थे और न ही खास पट्टी का नाम अपनी जुबान पर लाना पसंद करते थे.

15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होने के बावजूद टिहरी रियासत बनी रही व स्वाधीन भारत में उसका विलय नहीं हुआ. आजादी के समय देश में लगभग पांच सौ पेंसठ रियासतें थीं. वह सारे इलाके जो रियासतों में शामिल थे वहाँ भारत संघ में विलीनीकरण की प्रक्रिया चल रही थी. स्वाधीन होने के जोश में टिहरी रियासत के परगना कीर्तिनगर की जनता ने किसानों की अनगिनत उनसुलझी समस्याओं को ले कर टिहरी नरेश की खिलाफत की. बुजुर्ग क्रांतिकारी नेता श्री दौलत राम कुकसाल की नेतृत्व में चौरास, बडियारगढ़, लोस्तु, कड़ाकोट के हजारों किसान, राजनीतिक कार्यकर्त्ता व अवकाशप्राप्त फ़ौजी एकजुट हो गए. 10 जनवरी 1948 में जगह जगह से एकत्रित इन जोशीलों ने नागेंद्र सकलानी के नेतृत्व में एस डी एम कोर्ट कीर्ति नगर में तिरंगा झंडा फहरा दिया. शराब के सरकारी ठेकों में आग लगा दी.

11 जनवरी 1948 को ही कीर्तिनगर में डिप्टी कलेक्टर व पुलिस अधीक्षक पहुँच गए. प्रशासन और जनता के बीच संघर्ष बढ़ गया. आंसू गैस छोड़ी गई. न्यायालय भवन में आग लगा दी गई. जनता की उत्तेजना देख पुलिस अधीक्षक व डिप्टी कलेक्टर भागे. नागेंद्र सकलानी और मोलू राम ने उन्हें पकड़ने का प्रयास किया. टिहरी रियासत की दमन कारी पुलिस ने नागेंद्र सकलानी और मोलू भारदारी की गोली मार कर हत्या कर दी.अपने साथियों को शहीद होते देख आंदोलन कारियों ने दोनों अधिकारियों को पकड़ कीर्ति नगर हवालात में बंद कर दिया. 12 जनवरी को शहीद नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की अर्थियों को ले कर कीर्तिनगर से चले. उनके हाथों में तिरंगा था.इस दिन ये देवप्रयाग रुके और फिर खास पट्टी के रस्ते टिहरी को बढ़ चले.
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15 जनवरी को टिहरी नगर पर अधिकार के इरादे से अपार जन समूह जा रहा था. मकर संक्रांति का दिन था और टिहरी में खूब भीड़ थी. शहीदों की अर्थियों को प्रताप इंटर कॉलेज के मैदान में लाया गया. वीरेंद्र दत्त सकलानी के नेतृत्व में आजाद पंचायत का गठन किया गया. पूर्व नरेश नरेन्द्र शाह ने टिहरी शहर आने की कोशिश की पर आजाद पंचायत के सूरमाओं ने भागीरथी नदी के पुल पर ताला जड़ दिया.देहरादून से सेना और पुलिस के सौ जवानों के साथ अधिकारी पहुंचे और भारत सरकार ने टिहरी की शासन व्यवस्था संभाल ली. आजाद पंचायत के आदेश से टिहरी जेल के दरवाजे खोल दिए गए. इसी दिन दोपहर को अपार जनसमूह की मौजूदगी में शहीदों का अंतिम संस्कार संपन्न हुआ. सामंती व्यवस्था के अंत का उदघोष हुआ. सायंकाल एक सभा का आयोजन हुआ जिसमें टिहरी के भविष्य को ले गहन विमर्श हुआ. एक मत यह भी था कि राजशाही के अधीन उत्तरदायी सरकार कि स्थापना हो तो दूसरी ओर टिहरी रियासत को भारतीय संघ में विलीन करने का पक्ष था जो अधिक प्रभावी रहा. अगले दिन 16 जनवरी 1948 को श्री दौलतराम के नेतृत्व में विशाल सभा हुई जिसमें महावीर त्यागी, नरदेव शास्त्री और भक्त दर्शन सम्मिलित थे. इसमें सरकार के स्वरुप पर विचार हुआ.

15 फरवरी 1948 को टिहरी में अंतरिम सरकार बनी जिसके चार सदस्य प्रजामंडल द्वारा मनोनीत थे और एक सरकार के द्वारा. तदन्तर 12 अगस्त 1948 को वयस्क मताधिकार के आधार पर टिहरी विधान सभा के चुनाव हुए जिसमें प्रजा मण्डल को 24, प्रजा हितैषिणी सभा को 5 तथा स्वतंत्र को 2 स्थान प्राप्त हुए. टिहरी रियासत के संयुक्त प्रान्त में विलीन होने की औपचारिकतायें 18 मई 1949 तक पूरी हुईं जिसके पश्चात 1 अगस्त 1949 को टिहरी रियासत संयुक्त प्रान्त में सम्मिलित हो गई. आजाद भारत की टिहरी.
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प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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