[पिछली क़िस्त: हल्द्वानी के कुछ पुराने परिवार]
नरोत्तम शारदा पहाड़ से आने वाली बहुमूल्य जड़ी-बूटियों के कारोबारी हुआ करते थे. शारदा मूलतः अमरोहा के रहने वाले थे. उन्होंने 1934 में अपना कारोबार स्थापित किया. 1948 में उन्होंने रोजिन का व्यवसाय शुरू किया. 1967 में ‘बरबरीन हाइड्रोक्लोराइट’ का निर्यात कर क्षेत्र के निर्यातकों की सूची में उनका नाम अंकित हो गया. एमबी एजुकेशनल ट्रस्ट के वे लम्बे समय तक सचिव रहे. ‘शारदा चैरिटेबल ट्रस्ट’ के अंतर्गत एक डिस्पेंसरी भी उन्होंने काठगोदाम में स्थापित की. पहाड़ के लोगों को तब यह पता भी नहीं था कि जड़ी-बूटियां कितनी बहुमूल्य हुआ करती हैं. (Forgotten Pages from the History of Haldwani-9)
टनकपुर रोड में वर्ष 1945 में आगरा निवासी शिवराज भार्गव को फ़ूड प्रोसेसिंग के लिए 90 साल की लीज पर भूमि दी गयी. जिसे बाद में बंद कर दिया गया और इसकी लीज विवादग्रस्त हो गयी. (Forgotten Pages from the History of Haldwani-9)
हल्द्वानी में गौला के किनारे टनकपुर रोड के आसपास, कालाढूंगी रोड स्थित ऐश बाग़ में लकड़ी का भारी कारोबार हुआ करता था. सैंकड़ों मजदूर लकड़ी के चट्टों को लगाने, लादने, ढोने में लगे रहते थे इन्हीं के सहारे कई आरा मिलें भी यहाँ स्थापित हुईं. लकड़ी के ठेकेदारों का जमघट लगा रहता था.
खैर से कत्था बनाने का कारोबार भी ठेकेदार किया करते थे. जंगलों में ही कत्था बनाने की भट्टियां लगाते. रामपुर रोड में विशन दास मेहता ने गणेश कत्था फैक्ट्री व बरेली रोड में सतीश गुप्ता ने कृष्णा कत्था फैक्ट्री लगाई थी. यहां सैंकड़ों मजदूर काम किया करते थे.
कृष्णा कत्था फैक्ट्री बाद में बंद हो गयी. तब खैर यहां बहुतायत में मिलता था किन्तु जंगलों के कत्तन के साथ खैर का दोहन भी बहुत हुआ. कत्थे का कारोबार करने वाले लोग बाहरी क्षेत्रों को भी खैर की लकड़ी और कच्चा कत्था काफी मात्रा में भेजा करते थे. विशन मेहता ने मेहता चेरिटेबल ट्रस्ट के नाम से एक अस्पताल भी रामपुर रोड में खोला जहां अच्छे डाक्टरों व इलाज कि व्यवस्था आज भी है.
1985 से पूर्व यहां लकड़ियां या पत्थर के कोयले जलाकर ही घरों या होटलों में खाना बनता था. पुराने बंगलों में घर के मुख्य कमरे में दीवार से सटाकर अंगीठी बनाने का भी रिवाज था ताकि धुआं दीवार के भीतरी छेद से होकर छत में बनी चिमनी से बाहर निकल जाये.
जड़ों में आग सेंकने का भी काफी प्रचलन था. बाद में बढ़ते दाम और धुंए से निजात पाने के लिए मिटटी तेल के स्टोव अधिकांश घरों में प्रयुक्त होने लगे और अब ये सब गए जमाने की बातें हो गयी हैं. गैस चूल्हों का ज़माना आ गया है.
(जारी है)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…