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हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने: 64

आज उत्तराखण्ड की प्रमुख मण्डी के रूप में हल्द्वानी स्थापित है. पूर्व में यहां मण्डी का कारोबार मंगल पड़ाव, मीरा मार्ग (पियर्सनगंज), रेलवे बाजार, महावीर गंज में था. महावीरगंज को रहीम गंज कहा जाता था. मण्डी के विस्तार को देखते हुए 1983 में इसे बरेली रोड स्थित नवीन मण्डी स्थल में स्थापित कर दिया गया. आलू-फल आढ़ती व्यापारी एसोसिएशन के अध्यक्ष जीवन सिंह कार्की और कोषाध्यक्ष नीरज प्रभात गर्ग बताते हैं कि मण्डी के पुराने करोबार में घोड़ों में सब्जी, फल, गुड़, अनाज व अन्य सामान व्यापारी लाते थे. भीमताल के समीप खुटानी बैंड में पहाड़ से आने वाले व्यापारियों के रुकने का पुख्ता इन्तजाम था. पुराने जमाने में जब व्यापारी कई दिन की यात्राओं के बाद हल्द्वानी पहुंचते थे तो खुटानी में उनका पड़ाव होता था और उस क्षेत्र के लोग राहगीरों के लिये भोजन, उनके घोड़ों के लिये घास तथा रहने की व्यवस्था करते थे. व्यापारी और काश्तकार आते समय अनाज, सब्जी और हल्द्वानी से जाते समय गुड़ व अन्य सामान मददगारों को देते थे. वस्तु विनिमय के साथ होटल के स्थान पर घर की जैसी व्यवस्था खुटानी बैंड पर थी.

पहले व्यापारी अपना वार्षिक लेखा-जोखा दीपावली के दिन से आरम्भ करते थे लेकिन कई लोग इस बसन्त पंचमी के दिन से भी शुरू करते थे. सरकारी कामकाज के हिसाब से मार्च से लेखा माना जाता है लेकिन आज भी पुरानी फर्मों में सरकारी तौर पर बही-खाते तैयार करने के अलावा बसन्त पंचमी के दिन शगुन के रूप में गुड़, आम की बौर, धनिया का प्रसाद बांटते हैं.

मण्डी के कारोबार को व्यवस्थित रूप देने और व्यापारियों का एक संगठन बनाने के लिए 1976 में आलू-फल आढ़ती व्यापारी एसोसिएशन गठित की गई जिससें प्रमुख व्यापारी गोपीनाथ शर्मा महावीर गंज वाले, प्रेमशंकर महेश्वरी, हरदत्त दुम्का, कासिम अली, इद्रलाल गुप्ता, प्रयाग दत्त सुयाल, मुसद्दीलाल, गोविन्दराम, प्रताप सिंह, धनगिरी गोस्वामी, सुरेश चन्द्र अग्रवाल थे. समय के साथ कई उतार-चढ़ाव से गुजरी इस एसोसिएशन ने अपनी परम्पराओं को बनाया हुआ है. इसके सक्रिय सदस्यों में श्यामलाल, भुवन तिवारी, नीरजप्रभात गर्ग, जीवन सिंह कार्की, केशवदत्त पलड़िया, लक्ष्मी चन्द आसवानी, नन्दलाल तेजवानी, रमेश चन्द्र जोशी, सुदीप भंडारी इत्यादि हैं.

हल्द्वानी की पुरानी फर्मों की बात करें तो प्रेमराज गणेशी लाल, रामदयाल रामशरण दास, मंगतराम रामसहाय, खड़क सिंह चन्दन सिंह, जयदत्त लक्ष्मी दत्त, रेवाधर भैरवदत्त, चन्द्र बल्लभ बुद्धिबल्लभ, मस्तान खान-तसब्बर खान, दयाराम सुरेश चन्द्र भण्डारी, जगदीश प्रसाद कासिम अली, तारादत्त जोशी एण्ड सन्स, गिरीश चन्द्र दीप चन्द्र, लक्ष्मण सिंह प्रताप सिंह, हिन्द ट्रेडर्स, हयात सिंह देवेन्द्र सिंह, नरसिंह जमन सिंह हैं. इन पुरानी फर्मों को अपनी परम्परा के साथ इनके उत्तराधिकारी चला रहे हैं. कम्प्यूटर के इस युग में नये उपकरणों और बात व्यवहार के अलावा अपने संस्कारों को भी इन फर्मों ने बनाया हुआ है. आज भी मुनीम, स्याही कलम से लेखे-जोखे का रिवाज, आवाज लगाने का ढंग, गद्दी में बैठने का तरीका देखा जा सकता है. नई मण्डी में दुकानों के साथ व्यापारियों की भीड़ और ट्रकों की भरभार है और अनजान चेहरों की बड़ी जमात भी जुटती है लेकिन पैदल यात्रा के पथ में तपते हुए जिनके पूर्वजों ने अपने कारोबार को जमाया था वह आज भी अपनी लीक पर बने हुए हैं. प्रताप भैया के पिता आन सिंह जी जो स्वतंत्रता सेनानी भी थे, की रेलवे बाजार में आलू की आढ़त हुआ करती थी. दूसरे मंगल पड़ाव के चौराहे पर लाला शंकरलाल साह की आढ़त थी. नैनीताल एवरेस्ट होटल उन्होंने ही बनवाया था. आलू-फल आढ़ती व्यापारी एसोसिएशन के अध्यक्ष जीवन सिंह कार्की कहते हैं कि उत्तराखण्ड का सेब बाजार में बाहर से आने वाले सेबों के मुकाबले सुस्त हो चुका है. पहले से अपना आकार-प्रकार और खुशबू के बल पर छा जाने वाला पहाड़ का सेब मण्डी में नहीं दिखाई दे रहा है. जो फल आ रहा है वह बाहर से आने वाले सेब के मुकाबले नहीं ठहरता है. वे कहते हैं कि सेब की उन्नत खेती को बढ़ाने के उपाय किये जाने जरूरी है.

साइबर युग में प्रवेश कर चुके हल्द्वानी शहर में 500 से अधिक परिवारों की एक ऐसी बस्ती भी है जहां रहने वाले न बिजली की समस्या के लिए सड़कों पर उतर आते हैं, न पानी की कमी का रोना रोते हैं और न गैस जैसी जरूरी चीज के लिए शोर मचाने की उन्हें जरूरत पड़ती है. टाट और पालिथीन की तार-तार हो आई पट्टियां जोड़कर बनाई गई झुग्गियों के नीचे उनका संसार है. शहरभर का कूड़ा-कचरा यहां पसरा पड़ा है. बरसात में पानी व कीचड़ से लबालब इस बस्ती के होने न होने की हकीकत का हाल तूफानी हवायें बयां करती है. रेंगते कीड़े-मकोड़े व मच्छर तो इनके हमसफर हैं. ग्रीष्म की तपती दुपहरिया और जाड़ों की सर्द रातें इनके लिए एक सा हैं. लेकिन यह बस्ती अपने आप में इस सबसे बेखबर है. यहां की मस्ती का आलम भी अनोखा ही है. यह मस्ती इनके जीवन की कड़वी सच्चाई है. रेलवे स्टेशन से लगी इस बस्ती का नाम है ढोलक बस्ती और यहां रहने वालों के कंजर कहा जाता है. ढोलक बस्ती में सीमापुर के महमूदाबाद के ग्राम केदारपुर से आए लोगों की संख्या ज्यादा है. इनके करीब पांच सौ परिवार यहां रह रहे हैं. महिलांए-पुरूष बच्चे-बूढों में से करीब सात सौ वोटर हैं. बस्ती में इन्हीं से लगे नेपाल के जिला दैलिक से आए लोग भी रहते हैं. इनके करीब सौ परिवार यहां रहते हैं. झुग्गी-झोपड़ियों के इस बेड़े में कुछ ऐसे लोग भी घुस आये हैं जिनके अपने अन्यत्र धंधे हैं लेकिन वह किसी लोभ में इस स्थान को छोड़ना नहीं चाहते हैं. रेलवे द्वारा अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही का प्रभाव कई बार इन परिवारों को झेलना पड़ा है.

मुख्य रूप से ढोलक बनाने, सुधारने, बेचने का कार्य करने वालों के बसने के कारण इस स्थान को ढोलक बस्ती कहा गया. 75 वर्षीय सब्बीर, 63 वर्षीय हिमायत अली, 50 वर्षीय शेरदिल, 63 वर्षीय किड़िया और नियाज अली बताते हैं कि देश की आजादी से पहले उनके पूर्वज ग्राम केदारपुर से यहां आ चुके थे. बदहाली के कारण आज तक उनके बच्चे कूड़ा बीनकर ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं. शहर का कोई ऐसा कोना नहीं जहां इस बस्ती के लड़कियां-लड़के ओर महिलायें कूड़े के ढेरों में से काम की चीजें टटोलते न मिलें. अतिक्रमण हटाओ अभियान से त्रस्त ढोलक बस्ती के नेता बताते हैं कि कई बार शासन-प्रशासन को मांग पत्र दे चुके हैं कि लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं होती है. मलिन बस्तियों के नाम पर तमाम योजनाएं चल रही हैं लेकिन ढोलक बस्ती को कोई लाभ नहीं पहुंचा है. बस्ती वाले गुस्से में कहते हैं कि वह जायें तो जायें कहाँ? उनके पुरखों की लाशें यहां के कब्रिस्तान में हैं और उनका जनम यहीं हुआ है. वे चाहते हैं कि यहां के गलीज रहन-सहन से उबरें, लेकिन कैसे यह उनकी समझ से बाहर है. इस बस्ती में नेपाल के करीब सौ परिवार भी वर्षों से रहे रहे हैं. त्रिलोक सिंह, रमेश कुमार, बताते हैं कि जिला दैलिक से वे लोग यहां 1965 में आ चुके थे. खड़क सिंह, लालबहादुर सबसे पहले आने वाले लोगों में थे.

(जारी)

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर

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Sudhir Kumar

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