1860 के करीब पटवा बिरादी ने रामपुर से आकर हल्द्वानी में कारोबार शुरू किया था. तब पैंठ पड़ाव में सड़के किनारे बैठकर चूड़ी-चरेऊ, धमेली-फूना इत्यादि सामान ये लोग बेचा करते थे. मूल रूप से बेलियों का अड्डा, पुरानागंज, रामपुर (उप्र) से पटवा लोगों ने जंगल से शुरू होकर कस्बा बन रहे हल्द्वानी में अपना काम जमाया. बेनीराम पटवा के तीन पुत्र रामस्वरूप, छोटेलाल व राधेलाल थे. पटवों के इन परिवारों में से बुजुर्ग मन्नीलाल पटवा कहते हैं –‘पहले काम के हिसाब से लोगों की पहचान थी. मिठाई बनाने वाला-हलवाई, बर्तन बनाने-बेचने वाला-केसरा, तेल वाले-तेली, भड़भुजिया चना भूनने वाले-भुर्जी. ऐसे ही चूड़ी-चरेऊ इत्यादि को संजोने वालों को पटवा कहा गया. तब लोग कम पढ़े-लिखे हुआ करते थे.’’
मन्नीलाल जी बताते हैं उन्होंने अपने पिता जी से सुना था कि हल्द्वानी में सबसे पुराने लोगों में फिरोजपुर, जालंधर के मिश्रा लोग आये थे, जिन्होंने अपनी सम्पत्ति दान कर दी.
हल्द्वानी शहर में वर्तमान में करीब डेढ़ सौ स्वर्णकार हैं. सन 1950 के आस-पास गिनती भर के पहाड़ी सुनारों (स्वर्णकारों) ने इस भाबर में अपना कारोबार जमाया था. चम्पावत, ताकुला, रामगढ़, पहाड़पानी से वर्मा परिवारों ने पटेल चौक क्षेत्र में अपने कारोबार शुरू किये. चामा, कुल्याल गांव, रीठा साहिब (चम्पावत) के कृपालाल वर्मा के पुत्रों हीरा लाल वर्मा, मोहन लाल, बिशन लाल और देवीलाल में से मोहनलाल और विशनलाल वर्मा ने सन 1948 में हल्द्वानी आकर अपने परम्परागत कार्य को जमाया. यहां के पुराने परिवारों में इनकी गिनती होती हैं मोहन लाल के चार पुत्र — नवीन चन्द्र वर्मा, पूरनचन्द, विपिन चन्द और दिनेश चन्द्र हुए जबकि बिशनलाल के चार पुत्र गिरीश वर्मा, भुवन, सुधीर और ललित हुए. आज इन परिवारों की परम्रागत दुकानें है. वंशीकुंज तिकोनिया वाले बंशीलाल वर्मा भी हल्द्वानी के पुराने पहाड़ी स्वर्णकारों में थे. रामगढ़ के हरलाल वर्मा, श्यामलाल वर्मा, पहाड़पानी के डांगीलाल वर्मा, ताकुला के जीवनलाल वर्मा के अलावा केशव लाल वर्मा, रामलाल वर्मा, हल्द्वानी के पुराने पहाड़ी सुनारों में से हैं. पहाड़ी सुनारों के अलावा बाहर से आये अन्य लोगों ने भी अपना कारोबार जमा लिया है और परम्परा से हट कर आधुनिकतम ज्वेलरी के शोरूम स्थापित कर लिए हैं.
वर्मा परिवारों ने अपने कारोबार के अलावा सामाजिक कार्यों में हमेशा सहयोग दिया है. हल्द्वानी में जन्मे मोहन लाल वर्मा के ज्येष्ठ पुत्र व तमाम सामाजिक गतिविधियों से जुड़े नवीन चन्द्र वर्मा बताते हैं कि यही भाबर उनकी जन्मस्थली है. बचपन में उन्होंने देखा है कि महिलाएं पांच सौ ग्राम तक के सुतले गले में पहनती थीं. नथ का वजन सात तोले तक होता था. चांदी के भारी गहने पहनने का रिवाज था. धीरे-धीरे गहनों का प्रचलन बहुत बदल चुका है. खेलों से जुड़े श्री वर्मा बताते हैं कि पहले से दुखी साइकिल स्टोर वाले स. सुरजीत सिंह साहनी बालीबाल और कुश्ती के आयोजन करवाया करते थे. कबड्डी, कुश्ती फुटबाल खेलों को प्रोत्साहित करने वालों में भीम सिंह चैहान, सुरेन्द्र सिंह रावत, गिरीश वर्मा ने सरकारी बाग को स्टेडियम के रूप में स्थापित करने के लिए काफी प्रयास किये. ये बच्चों और युवाओं को खेल के प्रति जागरूक किया करते थे.
सन 1955 में पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त स्थित सहदादकोट तहसील से आकर सर्राफ स्व. गुलाब चन्द्र सेठ, अपनी दो पत्नियों तुलसी देवी और शीलावन्ती व बच्चों के साथ व्यापार के सिलसिले में काठगोदाम आ गये. वह दौर विभाजन के बाद का था, गुलाबचन्द्र सेठ परम्परागत रूप से अपने गांव में सर्राफ का कार्य किया करते थे. विभाजन के समय इनके अधिकांश रिश्तेदारों के भारत आने के बाद इन्हेांने भी भारत आने का निर्णय लिया और अपनी सम्पत्ति को बेच कर भारत चले आये. काठगोदाम में 5 साल रहने के बाद इनका परिवार मुखानी में रहने लगा. मुखानी में घर बनाने के अलावा पटेल चैक में सर्राफा का काम शुरू कर दिया. अपने व्यवसाय के साथ-साथ खेती, ठेकेदारी का कार्य परिवार के सदस्य करने लगे. स्व. गुलाबचन्द्र के पांच पुत्र हुए –चमनलाल, रोशन लाल, अर्जुनलाल, गुलशन कुमार, कमल कुमार.
पाकिस्तान स्थित अपने ग्राम में कक्षा पांच तक पढ़े चमन लाल अपने बचपन को याद करते हुए बताते हैं कि काठगोदाम आने के बाद उन्होंने एमबी स्कूल में कक्षा 6 में प्रवेश लिया. तब आबादी बहुत कम थी. कालाढूंगी चैराहे से मुखानी जाने के लिये रिक्शे का किराया एक आना था. यदि कोई रिक्शे में जाना चाहे तो उसे काफी देर तक इन्तजार करना होता था. तब वाहन बहुत कम होते थे. एकड़ों जमीन के मालिक साइकिल में चला करते थे. मुखानी चैराहे के पार हल्दू के पेड़ थे और सांय 5 बजे बाद कोई भी जाने की हिम्मत नहीं करता था. सन 60 तक मुखानी चैराहे के पार लूटपाट की घटनाएं भी होने लगीं, नौजवान वहां से गुजरने वाले की तलाशी ले लिया करते थे. तब मुखानी चैराहे पर बची सिंह चाय वाले, पूरन लाल साह चक्की वाले, रामदत्त दानी चक्की वाले खास हुआ करते थे.
चमन लाल भी अपने परम्परागत व्यवसाय सर्राफा से जुड़े हैं और उनके पुत्र भूषणलाल व देवेन्द्र भी इस परम्परा में उनके साथ हैं. अपने समय के लाइसेंसी शिकारी रहे चमनलाल को हथियारों की खासी पहचान है. वह बताते हैं कि हल्द्वानी में बेंशन साहब प्रसिद्ध शिकारी थे, सरकार आदमखोर शेरों को मारने के लिये उनसे सहयोग लेती थी. उस दौर में शिकार खेलने के लिए जंगलात द्वारा परमिट मिलता था. एक माह का यह परमिट अलग-अलग ब्लाकों के लिये होता था और जंगलात विभाग की देखरेख में हिरन, चीतल, पाड़ा, मुर्गी मारने की अनुमति थी. पहले हल्द्वानी में जंगली जानवरों की भरमार थी और शिकारियों का सीधे सामना हेाता था. उन दिनों हल्द्वानी में गन्ना खूब होता था और बैलगाड़ी में गन्ना ढोने और कोल्हू से बाजार तक गुड़ ले जाने वालों का खासा रोजगार था. इन्हें सिलौनिया कहते थे. सिलौनिया लोग काफी मेहनती थे जो प्रातः 4 बजे ही खेतों से गन्ना ढोकर बैलगाड़ी में लादने लगते.
हल्द्वानी के बसने के क्रम में मथुरावासियों का हाथ भी कम नहीं है. सन 1459 में कराची से कृष्णानन्द गुप्ता और उनके भाई मिश्री लाल हल्द्वानी आये. मूल रूप से मथुरा जिले के लोहवन के रहने वाले कृष्णानन्द करांची में अपना काम करते थे और मथुरा के गांव में उनका परिवार था. हल्द्वानी आते ही इन भाइयों ने मिठाई का कारोबार किया. इनसे पहले देवकी महाशय ने रेलवे बाजार में मिठाई का काम किया लेकिन वह चल नहीं पाये, जिसे इन लोगों ने संभाल लिया. लाला नारायण दास (लोहे के मुनीम जी) के मकान पर किराये में ये लोग रहने लगे. देवकी महासय रेलवे में बिल्टी का कार्य करते थे.
कृष्णानन्द के पुत्रों में कन्हैया लाल, अशोक कुमार (कुमाऊं केसरी, पहलवान) और हाईकोर्ट के अपर महाधिवकता विन्देश गुप्ता हैं. अपने बचपन को याद करते हुए कन्हैया लाल और विन्देश बताते हैं कि पहले रेलवे बाजार ही हल्द्वानी का मुख्य बाजार था. उस समय आगरा फोर्ट, लखनवां (लखनऊ एक्सप्रेस) ट्रम्बा कासगंज तक चला करती थी. एक दुर्घटना के बाद ठोकर बनने से रेलवे लाइन को मोड़ा गया जिस कारण रेलवे बाजार की रौनक जाती रही है. पहले इस बाजार से सीधे रेलवे स्टेशन दिखाई देता था. इस बाजार में तेल मिल, कपड़े की दुकानें, होटल, नाहिद सिनेमा हाल और भी बहुत कुछ था.
कन्हैया लाल बताते हैं कि उनके बुजुर्ग बताया करते थे कि हल्द्वानी में पहले लू नहीं लगा करती थी. क्योंकि उस समय जंगल होने से लोकल वर्षा भी होती थी. अब पेड़ कटने से हल्द्वानी का मौसम ही बदल चुका है. रेलवे बाजार में कृष्णानन्द गुप्ता ने मथुरा के पेड़े, मलाई की खुरचन, छेना, चमचम मिठाई बनानी शुरू की. पीतल के सांचे में ढालकर मेवावटी को मुख्य रूप से बनाया जाता था. अब तो इसका नाम भी लोगों को पता नहीं है. मंगल के दिन मिठाई लेने वालों की खास भीड़़ होती थी. उस समय श्यामलाल कबाड़ी की प्रसिद्ध दुकान के आगे मिठाई की ठेली लगा करती थी. बाद में पेड़ा और छेने की मिठाई ठेलियों में बिकने लगी. उस दौर में देशी घी की मिठाई के लिये शंकर भण्डार और जलेबी के लिये सियाराम हलवाई प्रसिद्ध थे. यह भी उल्लेखनीय है कि मथुरा जिले के लोहवन के आये हुए लोगों ने इस शहर को चाट-पकौड़ी, दही बड़े, पानी के बताशों का जो स्वाद चखाया, वह आज तक चला आ रहा है. मिठाई के कारोबार से तो मथुरावासी दूर हो गये लेकिन बड़ी संख्या में इन लोगों ने अथाह श्रम करते हुए चाट, दही-बड़े की दुकानों और ठेलों का संचालन किया है. अच्छे कारीगर इनमें से हैं. इनकी बोली-भाषा भी बहुत मीठी है. तभी कहते हैं-‘छोरा काम न करेगो तो का करेगो.’
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 60
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