करीब सवा सौ साल पूर्व अपने मूल स्थान जिला सीकर राजस्थान के ग्राम कांवट निकट नीम का थाना से रानीखेत पहुंचे रामनिवास जी के तीन पुत्र –सूरजमल, ब्रदीप्रसाद, जगदीश प्रसाद अग्रवाल हुए. इस परिवार का गल्ले का काम था और मैदान से पहाड़ और पहाड़ से मैदान को सामान की सप्लाई में कई लोग रोजगार से जुड़े थे. इस बड़े परिवार के सदस्य सुभाष गुप्ता बताते हैं कि उनका बचपन रानीखेत में बीता. उस समय भी करीब तीस व्यापारी परिवार वहां थे. उस समय की पुरानी फर्मों में राधेलाल देवकरन, बलदेव प्रसाद बंशीधर, भूरालाल फतेहचन्द इत्यादि हैं. सुभाष अग्रवाल के चाचा बद्रीप्रसाद पहले हल्द्वानी आये तब वह महावीर गंज में किराये पर रहते थे. इनकी पुरानी फर्में रमेश चन्द्र एण्ड सन्स, ब्रदीप्रसाद महेन्द्र कुमार नाम से हैं. वे बताते हैं कि हल्द्वानी का महावीर गंज पहले आलू की बड़ी मण्डी हुआ करता था. उन्होंने अपने कमरे तक बड़े आढ़तियों को किराये पर दे रखे थे. मण्डी का कारोबार आज नवीन मण्डी बरेली रोड में पहुंच चुका है. लेकिन महावीर गंज के पुराने मकान और गली आज भी पुरानी यादों को ताजा करते हैं.
मूल रूप से जिला बुलन्दशहर के जहांगीराबाद के रहने वाले पंडित गणेश दत्त शर्मा करीब 125 साल पूर्व अल्मोड़ा आकर लाला बाजार में हलवाई का कार्य करने लगे. 2-3 साल बाद वह हल्द्वानी आ गये और हमेशा के लिये यहां के होकर रह गये. वे ज्योतिष विद्या के जानकार थे. उनके ज्योतिष से अंग्रेज अधिकारी भी प्रभावित थे. बताते हैं कि अंग्रेज कमिश्नर अपने बच्चों की जन्मपत्री बनवानी के लिए शर्मा जी के पास आया करते थे. गणेश दत्त शर्मा के दो पुत्र-रामचन्द्र और नानचन्द्र थे. रामचन्द्र अंग्रेजों के जमाने में ड्राइवर थे और उनका एक पुत्र रामकृष्ण हुआ. नाननचन्द्र के पुत्र ओमदत्त शर्मा वर्तमान में घड़ीसाज का काम करते हैं. ओमदत्त शर्मा बताते हैं कि उनके दादा जी की ज्योतिष विद्या से प्रभावित होकर अंग्रेज कमिश्नर ने मनचाही जमीन लेने को कहा और अन्य सहयोग का वचन भी दिया था लेकिन दादा जी बहुत ही संतोषी व्यक्ति थे, उन्होंने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया. पिता नानकचन्द्र स्वतंत्रता आन्दोलन में भी जुड़े लेकिन उनके बड़े भाई रामचन्द्र के ड्राइवर होने के कारण अंग्रेज सिपाहियों के साथ सम्बन्ध थे ओर वे जेल जाने से बच जाते थे. नानकचन्द्र आर्य समाज के मंत्री भी रहे. वह सेवा समिति का कार्य भी करते थे. तीर्थयात्राओं के लिये निकले यात्रियों की सेवा का कार्य करते थे. इनके साथी प्रतिष्ठित पन्नालाल(नाई), पं. रामचन्द्र (राममन्दिर वाले) थे. तब यात्रियों के गरमपानी से पैर धोने तक के लिये सम्भ्रान्त परिवारों के लोग जुटते थे. किसी के निधन हो जाने पर उसके दाहसंस्कार में तक यह टीम सहयोग करती थी. पं. नानकचन्द की पहले दुकान पीयर्सनगंज में हुआ करती थी. अब यह मुख्य गुरुदारे के पीछे लाइन में है.
हल्द्वानी में मोतीराम-बाबूराम की दुकान भी थी. मोतीराम के पुत्र बाबूराम थे और उनकी पुत्री लक्ष्मी थी. लक्ष्मी के पति प्रोफेसर जगमोहन जब हल्द्वानी आया करते थे तो लोग उनसे अपनी चिट्ठियां-तार पढ़वाने के लिये जाया करते थे. लोगों ने बाबूलाल से शिक्षा के लिये स्कूल खोलने का आग्रह किया. पठन-पाठन का माहौल बनाने के लिये एमबी स्कूल खोला. पुराने समय में कैलास मानसरोवर यात्रियों व बदरीनाथ यात्रियों के यात्रा का पड़ाव भी हल्द्वानी बना और यात्री, साधू-सन्यासी लटूरिया बाबा आश्रम या बचीगौड़ धर्मशाला में रुकते थे. तब सामाजिक व्यवस्था बनाने में क्षेत्रवासियों का बहुत योगदान था. यात्रियों को भोजन व उनके ठहरने की व्यवस्था की जाती थी. सन 1940 के समय लटूरिया आश्रम में पहलवानों का अखाड़ा था और व्यायाम और मुद्गर चलाते युवा दिखाई देते थे. गर्मी में महात्मा, साधू-सन्यासियों का यह प्रमुख अड्डा था. कई प्रकार के चमत्कारी महात्माओं का आना जाना यहां हुआ करता था.
लक्ष्मीनारायण नेतराम के परिजनों ने अथाह श्रम करते हुए आज भी अपनी परम्परा को बनाये रखा है. बाबूलाल बताते हैं कि अपने कारोबार को जमजमाव करने के लिए पहाड़ों की कई यात्राएं उन्होंने की. वे कहते हैं तब चाय का रिवाज नहीं था और दूध-दही मट्ठा मिलता था. वर्तमान में आर्थिक संरचना ने सबकुछ बदल कर रख दिया है. ऐसे में अपने संस्कारों को बनाए रखना सबकी प्राथमिकता होनी चाहिए.
मूल रूप से ग्राम गुढ़ा जिला महेन्द्रगढ़ (हरियाणा) के सदासुख के पुत्र बेगराज और इनके पुत्र हरदेव सहाय करीब सन 1850 में हल्द्वानी आये थे. आज भी अपने पूर्वज को याद करते हुए निमंत्रण पत्रों में इनके वंशज समस्त ‘सदासुख परिवार’ लिखते हैं. अपने संस्कार और मेहनत के बल पर सदासुख के वंशज गल्ला, आटोमोबाइल, फ्लोर मिल, सरिया, सीमेन्द्र फैक्ट्री, ट्रान्सपोर्ट इत्यादि कारोबारों में अग्रणी हैं. उस दौर में जंगल से घिरे हल्द्वानी में जब लकड़ी का कारोबार हुआ करता था, हरदेवदास-मुरारीलाल फर्म बनी. इसके साथ ही रानीखेत, रामनगर, मुरादाबार में भी इस परिवार की फर्में खुलीं. हरदेव सहाय सन्त प्रवृत्ति के थे और धार्मिक कार्यों में इन्हें विशेष रुचि थी. अपने मूल गांव गुढ़ा और उससे पांच किमी आगे स्टेशन कनीना में मन्दिर व धर्मशाला लाला जी ने बनाई. रानीखेत के तुरूपगंज क्षेत्र में इन्हेांने धर्मशाला बनाई थी. तब बद्रीनाथ यात्रा पर जाने वाले यात्रियों का प्रमुख पड़ाव रानीखेत हुआ करता था. महात्माओं, श्रद्धालुओं की सेवा के लिये राशन, आलू को यह अपने हाथों से बंटवाते थे. आज रानीखेत का शिवमन्दिर रानीखेत वासियों के लिए प्रमुख स्थान बना हुआ है.
परिवार के बुजुर्ग लक्ष्मीचन्द अग्रवाल अपने बचपन को याद करते हुए कहते हैं प्राइमरी शिक्षा उनकी रानीखेत ही हुई. उनके बाबा (दादा) लाला हरदेव जी का सेवाभाव ही आज उनके परिवार को फल रहा है. लक्ष्मीचन्द्र ने इण्टर तक की पढ़ाई हल्द्वानी एमबी से करने के बाद मुरादाबाद से स्नातक किया. वह बताते हैं –तब हल्द्वानी में अधिकांश जंगल हुआ करता था. सदर बाजार, रेलवे बाजार मुख्य थे. लकड़ी के कारोबारी ज्यादा हुआ करते थे. उनका गल्ले का काम था, लकड़ी का काम करने वाले राशन आदि सामान ले जाया करते थे. सदरबाजार में उन लोगों की दुकान थी और सदर बाजार से लम्बे-लम्बे मकानों के पीछे का हिस्सा जो पियर्सनगंज (मीरा मार्ग) में खुलता है, वहां गाय-भैंस बांधने के गोठ भी थे. तब बिजली नहीं थी, लोग लैम्प से उजाला किया करते थे. रात्रि में सोने के लिए पूरा मोहल्ला सड़क पर ही चारपाइयां लगा लिया करता. दुकानों पर बांस के किवाड़ों की ओट कर दी जाती थी. किसी प्रकार का कोई भय लोगों में नहीं था.
अपने अतीत को याद करते हुए तथा बुजुर्गों से सुनी के आधार पर लक्ष्मीचन्द बताते हैं कि भेड़ों में राशन व सामग्री हल्द्वानी से रानीखेत जाया करती थी. तब ऊंटों में भी सामान भिजवाया गया लेकिन पहाड़ में ऊंट की यात्रा सफल नहीं हो सकी. पुराने समय में उन लोगों को चौधरी, सेठ जी, मारवाड़ी जैसी संज्ञा मिली थी. तब पांच रुपये में वह लोग हरियाणा अपने गांव तक चले जाते थे. आने-जाने के लिये कई जगह ट्रेन बदलनी पड़ती थी. उनके मूल गांव से पांच किमी दूर कनीना स्टेशन तक वह ऊंट में आते थे. फिर ट्रेन से रेवाड़ी, उसके बाद दिल्ली और वहां से मुरादाबाद पहुंचते थे. मुरादाबाद से लालकुंआ, हल्द्वानी पहुंचते.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 59
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कुछ जानकारी हल्दुवानी के बारे में मैं रखता हूं,वह आपसे साझा करना चाहता हूं।
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