20 नवम्बर 1977 में गोपाल सिंह भंडारी ने दैनिक के रूप में ‘उत्तर उजाला’ का प्रकाशन हल्द्वानी से शुरू किया. वर्तमान में उनकी पुत्री उषा किरन भंडारी व पुत्र वधु स्नेहलता भंडारी की देख रेख में पत्र प्रकाशित हो रहा है. इस पत्र के साथ महेश चन्द्र पांडे, चन्दन करगेती, चन्द्रशेखर शर्मा बहुत समय तक जुड़े रहे. महेश पांडे बाद में हिन्दुस्तान लखनऊ संस्करण में कार्य करने लगे. राजेन्द्र सिंह बिष्ठ दैनिक उत्तर उजाला के प्रशासनिक विभाग को संभाले हुए हैं. भण्डारी ग्वालदम के पास ग्राम छत्यानी के रहने वाले थे. छत्यानी कुमाऊं-गढ़वाल की सीमा है और वहां गढ़वाली रीति-रिवाज प्रचलित हैं. भण्डारी जी का हल्द्वानी राजपुरा निवासी उत्तम सिंह बिष्ट के साथ मधुर सम्बन्ध थे. यहीं किराये के मकान से ही उन्होंने दैनिक उत्तर उजाला की शुरूआत की थी. 1972 से भण्ज्ञरी जी के कारोबार में जुड़े राजेन्द्र सिंह बिष्ट बताते हैं कि 1959 गोरीपुर (असम) में ‘डीएस बिष्ट एण्ड संस’ मैनेजर के रूप कार्य करने वाले गोपाल सिंह भंडारी ने मेघालय में भी अपने कार्य विस्तार किया. पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी, दार्जलिंग में भी डिपो और सम्पत्ति थी. इसके बाद वह हल्द्वानी में आकर जंगलात की ठेकेदारी करने लगे थे. सन 2009 से बेदप्रकाश गुप्ता ने सांध्य दैनिक के रूप में ‘उत्तरांचल दीप’ का प्रकाशन शुरू किया है.
स्टेशन रोड में ‘मोहनी टायर्स’ नाम से मोटरों के टायरों की एक सुप्रसिद्ध पुरानी दुकान हुआ करती थी. उस दुकान के मालिक थे प्रीतम सिंह कोहली. कुछ समय बाद टायरों के व्यापार में भी बदलाव आया और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा में वे पिछड़ गए. लेकिन सामाजिक सरोकारों में इसके बाद भी आगे रहे. आतंकवाद के दौरान साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में उनकी अग्रणी भूमिका रही. वे गुरूनानक मिशन के प्रान्तीय अध्यक्ष भी रहे. कारोबार के नए जमाने की दौड़ में जब उनके पुत्रों ने प्रवेश किया तो उनका ध्यान समाज सेवा, साम्प्रदायिक एकता, पत्रकारिता की ओर चला गया. वे उर्दू अच्छी जानते थे और ‘उर्दू मिलाप’ के लिए समय-समय पर कुछ लिखते भी थे. वे हिन्दी पत्रकारिता में शामिल होना चाहते थे किन्तु हिन्दी ठीक से नहीं जानते थे. लेकिन पत्रकारिता और पत्रकारों की सेवा में मानापमान की पराकाष्ठा को पार कर भी तन्मयता से जुटे रहते. ‘उत्तराखण्ड न्यूज सविर्स’ के नाम से एक संवाद एजेंसी भी उन्होंने खोल डाली. साम्प्रदायिक एकता के इस जुनून के कारण कहें या उनका उपयोग कर अपमानित करने के लिए कई धमकी भरे पत्र भी उन्हें मिले. एक पत्र में लिखा था-“ प्रीतम सिंह, मैं तुवानू चैलेंज नाल एह गल कह रह्या हां के एक मांह के अन्दर तुवाडा काम कर दित्ता जाएगा. क्योंकि तुवाडी जुबान अखबारां बिच बहुत लम्बी होन्दी जा रही है. जे तुसी आतंकवाद के खिलाफ लिक्खा है. आतंकवादियों ने तुवाडी मां( ) है या बहन…’’ भिंडर वाला कमांडो फोर्स बिलासपुर, जग्गा सिंह’’ इस तरह की घटनाओं से वे बहुत व्यथित हो गए और 20 जुलाई 1993 को 65 वर्ष में उनका निधन हो गया.
1969 में जब मैंने ‘शक्ति प्रेस’ नाम से कालाढूंगी रोड पर अपना मुद्रण संस्थान खोला तब कुछ समय के लिए मुझे लेखन व पत्रकारिता से हट कर अपने व्यवसाय को स्थापित करने में समय लगाना पड़ा. मुद्रण सम्बंधी तत्कालीन सारी तकनीकों को भी मैंने सीखा ताकि कारीगरों के ही भरोसे न रह जाऊॅं. यह दौर भी मेरे लिए संघर्षों का दौर था. इस दौर में वर्तमान में जगदम्बा नगर निवासी एनसी तिवारी ने एक सच्चे सहयोगी की तरह मेरा साथ दिया. तब हल्द्वानी में कागज की कोई दुकान नहीं हुआ करती थी. तिवारी ने सिरपुर पेपर मिल की एजेंसी लेकर यहां कागज की दुकान खोली और कापियां बनाने का काम भी शुरू किया. मैंने दिल्ली जाकर रूलिंग का कार्य भी सीखा और एनसी तिवारी जी के साथ कापियां बनाने में एक सहयोगी की तरह लगा रहा. हम दोनों इस काम में एक दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करते थे. बाद में उन्होंने सोपस्टोन का कार्य शुरू कर दिया. छोटी मुखानी में स्थापित सोप स्टोन पाउडर बनाने वाला यहां का यह पहला कारखाना था.
मुद्रण के क्षेत्र में आए परिवर्तन के दौर में यहां पुरानी मुद्रण कला का संक्षिप्त परिचय देना भी जरूरी है ताकि आने वाला समय यह जान सके कि इस दौर तक पहुंचते-पहुंचते मुद्रण कला को किन स्थितियों से गुजरना पड़ा था. यहां मैं मुद्रण कला के प्रारम्भिक इतिहास की नहीं अपने समय की बात कर रहा हूं. तब अलग-अलग साइज यानी फौंट के लेड (सीसा) से बने अक्षरों को एक-एक कर जोड़ना होता था. इस काम को अक्षर बोध वाला कोई व्यक्ति अभ्यास के बाद कर सकता था. उसे कम्पोजीटर कहा जाता था. अभ्यास करते-करते वह शुद्ध-अशुद्ध शब्दों का जानकार भी हो जाता था. आज जहां कम्प्यूटर के छोटे से की बोर्ड में सुविधाएं और आसानियां तलाशी जा रही हैं तब हिन्दी के एक फौंट के अक्षरों को रखने के लिए लकड़ी के 4 केस हुआ करते थे. जिनमें हिन्दी के लिए 455 तथा अंग्रेजी के लिए 159 खाने हुआ करते थे. इन खानों में अक्षर रखे रहते थे. एक ही अक्षर के कई रूप होते थे. जैसे पूरा क, नुक्ते वाला क आधा क्, क्क, के, कर्ण क यानी इसके पेट मात्राओं को फसार कर शब्द बनाये जाते थे. इसके अलावा प्र, क, कृ, श्र, श्र, स्र, ó, ऋ,लृ, ह्न, हृ, ह्य,ह्म, द्द,़द्य, द्ध, द्व, क्त, ऊॅं, जैसे अनेक वर्णमाला के अलग व संयुक्त तथा कर्ण अक्षर इन खानों में भरे रहते. इसके अलावा स्पेस, मिडिल स्पेस, हेयर स्पेस, थिन स्पेस, हाफ एम, एक एम, दो एम, तीन एम, चार एम कोटेशन हुआ करते थे. इन 455 खानों में रखे शब्दों को याद रखने के अलावा स्टिक में जोड़ कर गेली में उतारा जाता और प्रूफ मशीन में ले जाकर प्रूफ निकाला जाता था. अन्त में किसी भी तैयार मैटर को चेस में कस कर ट्रेडिल मशीन में चढ़ा कर छपाई की जाती थी. बाद में सिलिंडर मशीन में भी काम होने लगा. छपाई के बाद फर्मे को धोकर अक्षरों को यथास्थान डिस्ट्रीब्यूट कर दिया जाता था. यह सब इतना आसान काम नहीं था. तब भी शब्दों के सरलीकरण की बात नहीं कही जाती थी. किन्तु अब तो की बोर्ड से भी आगे बोल कर कम्प्यूटर में शब्द उभरने की ओर विज्ञान जा रहा है और मुद्रण कला में चमत्कारिक परिवर्तन आते जा रहे हैं. कहा जाता है कि 1833 में कृष्ण प्रेस नाम से एक छापाखाना यहां खुला था. ऐसोसिएट प्रेस नाम से भी नया बाजार में एक प्रेस कुछ दिन तक चला, विजय प्रिंटिंग प्रेस के नाम से महावीरगंज के अन्दर की गली में एक प्रेस था. इसे पूरनमल अग्रवाल चलाते थे. पूरनमल अग्रवाल, छैलविहारी लाल अग्रवाल और छोटे लाल अग्रवाल इन तीन भाइयों ने सदर बाजार में पहले स्टेशनरी की दुकान खोली, फिर पूरनमल अग्रवाल ने प्रेस खोल लिया कुछ समय बाद छैलबिहारी लाल ने भी स्टेशनरी की अलग दुकान खोल ली और अपना प्रेस लगा लिया. सदर बाजार में तब अग्रवाल बुक डिपो, हल्द्वानी बुक डिपो, कर्नाटक बुक डिपो और पांडे बुक डिपो के अलावा नैनीताल रोड में कंसल बुक डिपो हुआ करते थे. पूरनमल अग्रवाल ने बाद में बरेली रोड़ में पुराने प्रेस को नया रूप देकर पूरन एंड संस के नाम से स्टेशनरी की दुकान व प्रिंटिंग प्रेस खोल लिया. स्टेशन रोड पर कैलास प्रेस व प्रकाश प्रेस के नाम से भी दो प्रेस थे. जगदम्बा प्रेस पहले रेलवे बाजार में और बाद में साहूकारा लाइन में पद्मादत्त पन्त जी ने खोला, नवाबी रोड में सुरेश पन्त जी व उनके कुछ सहयोगियों ने सहयोगी प्रेस के नाम से प्रेस खोला, कृष्ण कुमार गुप्ता ने भी पहले रामलीला मुहल्ले में बाद में मुखानी में प्रेस लगाया, स. गुरूदयाल सिंह आनन्द सिंह रामलीला मोहल्ले में एक प्रेस लगाया और तत्कालीन छपाई की नई तकनीक को भी अपनाया . एमबी राजपूत ने भी रामलीला मुहल्ले में उत्तरांचल दीप नाम से एक प्रेस लगाया बाद में उसे रामसिंह खोलिया को बेच दिया. बरेली रोड़ में राष्ट्रीय मुद्रण केन्द्र नाम से जैन साहब ने, बची सिंह कनवाल ने लक्ष्मी प्रिंटिंग प्रेस नाम से नैनीताल रोड़ बोरा बिल्डिंग में अल्मोड़ा से राजपूत प्रेस की मशीनें लाकर छापाखाना खोला, भारत प्रेस के नाम से अशरफ परवेज ने ऐश बाग में, कंसल बुक डिपो वालों ने और रमेश पांडे ‘पथिक’ ने हीरानगर में छापेखाने लगाए. नित्यानन्द भट्ट ने उत्तरायण प्रकाशन के नाम से नैनीताल रोड में छापा खाना लगाया. रामपुर रोड में जायसवाल प्रेस लगा. इनके अलावा भी समय-समय पर कई छापे खाने यहां लगते रहे और बन्द होते रहे. तब इन छापेखानों का स्वरूप आज से बिल्कुल ही भिन्न हुआ करता था. वर्तमान की कम्प्यूटरीकृत व आफसेट मुद्रण व्यवस्था में तत्कालीन मुद्रण व्यवस्था की कठिनाइयों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. इस दौर की मुद्रण कला की बारीकियों को मैंने सीखा, जो बाद में मेरे बहुत काम आयीं.
यों मैं कुछ समय बाद दिनमान, नवभारत टाइम्स, चौथी दुनिया, रविवार आदि के लिए लिखता रहता था, किन्तु अपना समाचार पत्र प्रकाशित करने की बड़ी साध मन में थी. मैं प्रिंटिंग व्यवसाय के साथ अकेले ऐसा कर पाना असम्भव पा रहा था. कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम बार-बार दुहराते हैं. कुछ कहानियां ऐसी होती हैं जिन्हें हम बार-बार सुनते हैं. किस्से या कहानियां बच्चों को बहलाने या समझाने के लिए ही नहीं कही जाती हैं, जाड़ों की लम्बी रात में ठंड को भुलाने का उपक्रम भी उनमें छिपा होता है, भूख की व्याकुलता का काम करने का उपक्रम भी होता है. इस उपक्रम का अहसास सबको नहीं होता. धवल हिमालय और उसके आस-पास की हरियाली, उसकी छाती से रिसता निर्मल जल अपने आप में एक कहानी है. कभी खत्म न होने वाली कहानी. लगता है वह मूक है या कहानी दोहरा रहा है. लेकिन उसका शाश्वत और चिरंतन स्वर बदलाव का गवाह है. उसके अन्दर छिपा सत्य, उसके अन्दर छिपी पीड़ा का अहसास सबको नहीं होता. कभी-कभी उसे पुरानी कहानी दुहरानी पड़ती है और वह हमें नई लगती हैं.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 49
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