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हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 44

सन् 1970 तक शादी-ब्याह की रस्में भी यहां ठेठ ग्रामीण परिवेश में ही हुआ करती थीं. न्योतिये प्रातः पहुँच जाते और साग सब्जी काटना, हल्दी-मसाले घोटना, टेंट कनात लगाने में सहयोग करना, आदि में जुट जाते. पहाड़ी मूल के लोगों के इस आयोजन में भोजन व्यवस्था भी ग्रामीण ढंग से ही हुआ करती थी और मैदानी क्षेत्र के लोग आपसी सहयोग के साथ हलवाई की व्यवस्था करते थे. 1985 तक हिन्दू धर्मशाला रामपुर रोड़, राम मंदिर धर्मशाला और भोलानाथ धर्मशाला व सत्यनारायण धर्मशाला कालाढूंगी रोड के अलावा ऐसा कोई बड़ा स्थान नहीं था जहाँ बारात की व्यवस्था की जा सके. अधिकांश लोग अपने ही आंगन या आस-पास की खाली पड़ी भूमि या सड़क पर ही छोटा सा टेंट लगाकर शादी की रस्म पूरी कर लिया करते थे. आज की जैसी सजावट का भी प्रचलन नहीं था. अब तो हर गली में कई विवाहगृह खुल गए हैं जिनका किराया ही उस वक्त की पूरी शादी के खर्च से अधिक बैठता है और एक लाख से ऊपर सजावट में ही लोग खर्च कर दे रहे हैं. इसका प्रभाव उस अक्षम तबके पर पड़ रहा है जिसकी आमदनी सीमित है. बिजली विभाग में काम करने वाले रामदत्त पन्त जी और नगरपालिका पुस्तकालय की देखरेख करने वाले चन्द्र बल्लभ पांडे जी उन दिनों पहाड़ी पंडितों की ही तरह अधिकांश घरों में रसोइये हुआ करते थे. वणिक वर्ग खाना बनाने के लिए हलवाई बुलाता था. शेष अन्य घरों में भी अपनी-अपनी सामर्थ्य व परिचय के दायरे के अनुसारी रसोई का इंतजाम हुआ करता था. टेंट हाउस से बर्तन तभी मॅंगाए जाते थे जब किसी कारण वश गुरूदारे में बर्तन न मिल पायें, अन्यथा शादी-ब्याह आदि के लिए गुरूदारे से ही बर्तनों का इन्तजाम हो जाया करता था. लड़की की शादी में दिनभर काम करने के बाद न्योतिये बारात आने के बाद बिना भोजन किए ही अपने घरों को वापस लौट जाते थे. लड़की की बारात में भोजन करना ठीक नहीं समझा जाता था. लेकिन अब घराती बरातियों से पहले भोजन पर टूट पड़ते हैं. इसी तरह किसी की मृत्यु पर श्मशानघाट जाने वाले मलामी (शवयात्रा में जाने वाला व्यक्ति) को ही बारहवें दिन भोजन के लिए बुलाया जाता था. यदि वह न पहुँच पाता तो उसके घर चावल-दाल वगैरह पहुंचा दिया जाता. उस भोजन को सिर्फ वही व्यक्ति खाता जो श्मशानघाट गया हो. किन्तु आज इस आयोजन को ‘ब्रह्मभोज’ का नाम दे दिया गया है और तमाम परिचितों को आमंत्रित कर स्वादिष्ट पकवान खिलाये जाने लगे हैं. इस दिन क्रियाकर्म में बैठे लोग पीपल में पानी देते हैं ताकि वे इस क्रिया के बाद शुद्ध हो सकें. अलग-अलग प्रजाति के वृक्षों के साथ आदमी के सम्बंधों की परम्परा एक अलग ही अध्याय की विषय वस्तु है किन्तु यहाँ यह रस्म ढकोसला बनती जा रही है. इस क्रिया के बाद नई पीढ़ी समझ नहीं पा रही है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है. अब एक पीपल की टहनी तोड़ कर आंगन में रोप दी जाती है और हर आने वाले से कहा जाता है कि वह उस टहनी में पानी डाले. लोग उस गमगीन माहौल में यह सब करते हैं लेकिन उन्हें पता नहीं होता कि पीपल पानी की यह रस्म केवल मृतक के परिवारजनों को ही करनी होती है. यह भी ‘भबर्योव’ का ही एक नमूना है.

सन् 80 से पहले पहाड़ी क्षेत्रों को मैदानी क्षेत्रों से जोड़ने वाली यातायचात व्यवस्था वर्तमान के मुकाबले बहुत ही कम थी. तब आज की तरह सरपट रात-दिन भागने वाले छोटे वाहनों की भी कमी थी. पहाड़ से मैदानी शहरों को जाने वाले तथा मैदानी शहरों से पहाड़ जाने वाले यात्रियों को हल्द्वानी रुकना पड़ता था. तब यात्रियों के टिकने की इतनी व्यवस्था का भी अभाव था और यात्री होटलों में टिकना भी अपनी जेब के अनुरूप पसन्द नहीं करते थे. इसलिए वे अपने किसी परिचित के घर का रूख करते थे. उन दिनों यहां रह रहे लोगों के घरों में अक्सर मेहमानदारी ही रहती थी. लेकिन सम्पन्न घरों में मेहमान कम ही जाया करते थे. शायद उन्हें या तो उनके घर जाने में हिचक लगती थी या लगता था कि वहां उनको सम्मान नहीं मिल पाएगा. अभावों के बावजूद जिन आम लोगों के घरों में लोग टिका करते थे वहां आत्मीयता का रोज ही एक संगम जैसा दिखाई देता था. कनेाल विभाग में चिटगल (गंगोलीहाट ) कि नित्यानन्द व मोहन पन्त जी के दो भाई चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पद पर थे. मोहन पन्त जी के क्वार्टर में रोज ही पांच-सात मेहमान हुआ करते थे. वे बहुत आत्मीयता से उन्हें रखते, उनके खाने, रहने की व्यवस्था करते, बाजार से सामान खरीदने में भी मदद करते और प्रातः ही उनका सामान कंधे में ढोकर उन्हें गाड़ी में बैठाने जाते. उन दिनों पहाड़ की ओर जाने वाली गाड़ियाँ प्रातः चार बजे से चलना शुरू कर देती थीं उसके बाद कोई वाहन नहीं मिलता था. सुबह ही सुबह रिक्शा वगैरह भी नही मिल पाता था, इस लिए सामान उन्हें कंधे पर ढोकर ले जाना पड़ता था. मेरे आवास में भी नित्य ही मेहमानदारी बनी रहती थी. स्थान की कमी के बावजूद परेशानी महसूस नहीं होती थी. लोगों को पहाड़ के अपने घर और मैदानी शहरों में नौकरी करने वाले लोगों को इस मिलन से आपसी एक जुड़ाव व आत्मीयता की अनुभूति होती थी. किन्तु अब तेज रफ्तार होती तमाम व्यवस्था ने लोगों को अलग-थलग कर दिया है. लोग सरपट भागे चले जा रहे हैं और लगाव खत्म हो गया है. तब लोगों के सामने यहां टिकना एक मजबूरी भी थी. किन्तु आज आग्रह के बावजूद न टिक पाना एक मजबूरी बन गया है.

सन् 1970 से पहले यहाँ बहुत से घरों में बिजली भी नहीं थी. 1956 में नैनीताल रोड पर डीजल पावर हाउस नामक भवन में डीजल से बिजली बनाने का संयंत्र लगाया गया था. सेंटपाल्स स्कूल के ठीक सामने खण्डहर में तब्दील होताजा जा रहा यह विशाल डीजल पावर हाउस आज भी मौजूद है. इस विद्युतालय पर पहले नगरपालिका का अधिकार था. तब जल और विद्युत व्यवस्था नगरपालिका के अधिकार क्षेत्र में ही हुआ करती थी. खण्डहर में तब्दील होने जा रहे इस विशाल भवन में लगे पत्थर में आज भी लिखा हुआ देखा जा सकता है कि ‘विद्युतालय हल्द्वानी म्युनिस्पल बोर्ड का शिलान्यास आत्माराम गोविन्द खरे, सचिव स्वायत्त शासन विभाग संयुक्त प्रान्त के करकमलों द्वारा रविवार श्रावण कृष्ण 7 संम्वत् 26 तदनुसार 17 जुलाई 1949 को किया गया. सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियर विभाग द्वारा निर्मित इस भवन के हरगोविन्द त्रिवेदी-चीफ इंजीनियर, रामदास वर्मा– सुपरिटेंडिंग इंजीनियर, जीवनचन्द्र पाण्डे– एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, अनिल प्रकाश अग्रवाल व श्यामलाल– असिस्टेंट इंजीनियर और जोगा शाह ठेकेदार थे. आज विद्युतालय के इस भवन की छत उखड़ चुकी है लेकिन इसी बुनियाद और दीवारों की मजबूती देखने लायक है. इस भवन के बगल में विभाग का बहुत बड़ा कॉम्प्लेक्स बनाने का प्रस्ताव है. उस समय पंखा तो बिरले ही घरों में चलता था. हाथ के पंखों की काफी चौल थी. कई सरकारी कार्यालयों में छत पर एक डंडा बांध कर उस पर एक मोटा कपड़ा लटका दिया जाता था और एक आदमी रस्सी से उसे झलता रहता था. कई घरों में खस की पट्टी लगा कर उस पर पानी छिड़क कर गर्मी से निजात पाने का प्रयास किया जाता था. अब हाथ के पंखे क्या होते हैं नई पीढ़ी जानती ही नहीं है. पंखे तो मामूली सी बात है कूलर से आगे लोग एसी की व्यवस्था करने लगे हैं, बावजूद इसके उन्हें गर्मी सताने लगी है. पहले हल्द्वानी में लू नहीं चलती थी अब चलने लगी है. कारण साफ हैं पेड़ काट दिए हैं, न गर्म हवा को रोकने का प्राकृतिक साधन रह गया है और न जाड़ों में तराई से उठ कर आने वाले कोहरे को रोकने का साधन रह गया है. गर्मियों में लोग घरों से बाहर सड़के किनारे बाण से बुनी बांस की चारपाईयां बिछा कर सोते थे. मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी लगाते थे. न कोई डर था न भय. घरों के किवाड़ भी खुले रखते थे.

पहले नैनीताल से लोग जाड़ों में यहाँ आ जाते थे. अब लोग कहने लगे हैं कि जाड़ों में नैनीताल में अच्छी धूप है. पुराने जमाने में मच्छरों का प्रकोप लोगों को यहाँ बसने में बहुत बड़ा बाधक था और लोग अक्सर मलेरिया से पीड़ित हो जाते थे. किन्तु मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम के बाद मच्छरों की संख्या में कमी आ गई और बीमारी वाले मच्छरों की संख्या में भी कमी आ गई साथ ही मलेरिया का इलाज भी ढूंढ लिया गया. तब अधिकांश लोगों को मलेरिया ही हुआ करता था. अब मलेरिया तो होता ही है उससे भी आगे डेंगू आदि का प्रकोप बढ़ गया है. शहर के विस्तार के साथ ही विभिन्न लाईलाज बीमारियाँ भी फैलने लगी हैं और अस्पतालों की संख्या भी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है. हर गली, मुहल्ले अस्पतालों से भर गए हैं. इन अस्पतालों में इलाज कराना भी आसान नहीं रह गया है. हल्द्वानी में, जिसे आज शोबन सिंह जीना बेस अस्पताल के नाम से जाना जाता है, जिला बोर्ड का एक अस्पताल था. महिलाओं का अस्पताल नैनीताल रोड पर बाद में बना. जिला बोर्ड के इस अस्पताल को पहले नागरिक चिकित्सालय के नाम से जाना जाता था. मैंने इस अस्पताल में देवकी नन्दन पन्त को एकमात्र डाक्टर के रूप में देखा. बड़े सेवा भाव से वे मरीजों को देखते थे. उन्हीं के पुत्र डॉ. विपिन चन्द्र पन्त ने मंगल पड़ाव में सन् 1968 में दांतों का निजी अस्पताल खोला. तब हल्द्वानी शहर और आसपास की जनता मात्र इस नागरिक चिकित्सालय पर निर्भर थी. आज यह बहुत बड़ा बेस अस्पताल बन गया है. डाक्टरों-नर्सों की लम्बी कतार है, व्यवस्था चैप है और मरीज असन्तुष्ट.

(जारी)

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर

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Sudhir Kumar

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