Featured

हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने – 22

सन् 60-70 के दशक में साम्यवादी विचारधारा के नाम पर बहुत से पाजी लोगों का जमघट मैंने यहां देखा. वे काम बिल्कुल नहीं करना चाहते थे और कहते थे कि पूंजीपतियों की सम्पत्ति बांट ली जानी चाहिए. वे लोग काम न कर सकते हों ऐसी बात भी नहीं थीं, उन्हें काम नहीं मिल सकता हो ऐसी बात भी नहीं थी. उनमें जगत उप्रेती जैसे सुर के धनी कलाकार भी थे. लेकिन वे साम्यवाद के नाम पर भटके हुए लोग थे. वे सुबह और शाम को भोजन के लिए इधर-उधर हाथ पैर मारते और झूठ-सच का सहारा भी लेते थे. उनमें से कुछ शाम को इस ताक में भी रहते थे कि कहीं से दो घूंट शराब की मिल जाए तो वे साम्यवाद पर भाषण झाड़ सकें. ललित मोहन पांडे कई बार चुनाव में भी खड़े हो चुके थे. ठगी ऐसी करते थे कि ठगा जाने वाला उनके किस्से भी सुनाए और हंसे भी.

एक बार उन्होंने भूमिहीनों को भूमि दिलाने का झॉंसा देने के लिए कुछ प्रार्थनापत्र व सर्टिफिकेट छपवाये और तराई में उन्हें बेचने का धंधा शुरू कर दिया. कुछ दिनों तक आज नैनीताल जाना है, आज लखनऊ जाना है आदि के बहाने से पैसे लेते रहे. बहुत दिनों के इंतजार के बाद भी जब उन लोगों को न भूमि मिली न भूमिहीन प्रमाणपत्र, तो वे पांडे जी की खोज में उनके कमरे में पहुंचे. वहां उन्हें पांडे जी तो नहीं मिले किन्तु कोने में पड़े एक पुराने से कनिस्तर में उनसे लिए गए प्रार्थना पत्र वगैरह जरूर मिले. वे पांडे जी की मरम्मत करते लेकिन तब तक वे गायब हो गए. बाद में वे कांग्रेसी विधायक गोपलराम दास उसके बाद नारायण राम दास के साथ लखनऊ दारूलसफा में रहने लगे. तब मैंने नया-नया छापा खाना खोला था. पांडे जी ने मुझे भूमिहीन प्रार्थना पत्र छापने का आर्डर दिया था, खर्चा आया कुल 17 रूपये. जब बहुत समय तक भुगतान नहीं किया तो मैं उनके अड्डे पर गया. वहीं उन्हीं की तरह के कई लोग बैठे थे. जब मैंने उनसे बिल भुगतान करने को कहा तो वे बोले ‘तुमने पढ़ा जरूर होगा गुणा नहीं है.’ मैंने कहा ‘अब गण भी लिया है’ और मैं उठ कर चला आया.

एक बार मुझे नौकरी की तलाश में पहाड़ से लखनऊ पहुंचे कुछ बच्चे दारूलसफा में मिले उन्होंने बताया कि नौकरी दिलवाने का वायदा कर उनसे पांडे जी रोज शराब मंगवाते रहे लेकिन उनकी न नौकरी लगी और न उनके पास घर लौटने के लिए पैसे ही बचे. ये साम्यवादी कामरेड पी. सी. जोशी को अपना आदर्श मानते थे लेकिन उनके आदर्शों व सिद्धांतों के विपरीत खानाबदोश जीवन जीना अधिक पसन्द करते थे. जीवन का एक बहुमूल्य समय खानाबदोशी में गंवा देने वाले कुछ ऐसे लोग बाद में घर वापस जाने के योग्य भी नहीं रह जाते थे और अन्तिम दिनों में मुफलिसी का जीवन जी कर लावारिस से मर जाया करते थे.

रामलीला मुहल्ले में मूल रूप से गंगोलीहाट निवासी लीलाधर पाठक ने के. एम. ओ. यू. वर्कर्स की एक यूनियन बनाई. जहां से वे कम्यूनिस्ट आन्दोलन चलाया करते थे और जेल जाते रहते थे. बाद में उन्होंने जसपुर में अपना मकान बना लिया. एक थे सत्य प्रकाश वे ट्रेड यूनियनों की लड़ाई में लगे रहते थे. बहुत से ट्रेड यूनियन लीडर भी स्वंय को साम्यवाद से जोड़ते थे, किन्तु उनका साम्यवाद उतने तक ही सीमित था. व्यावहारिक जीवन में साम्यवाद से उनका कोई मेल नहीं था. सरकार और व्यवस्था के खिलाफ नारे लगाना, धरना-प्रदर्शन को ही वे साम्यवाद समझते थे. ऐसी बात भी नहीं कि कम्युनिज्म के नाम पर सब मुफ्तखोर पाजियों की ही जमात हो, लेकिन तब इस शहर में मुझे सचमुच कोई ऐसा साम्यवादी नहीं मिला.

वर्तमान में भी साम्यवादियों के कई गुट और मत यहां हैं. उनमें कुछ वास्तव में समर्पित लोग भी हैं, जिनमें राजा बहुगुणा और बहादूर सिंह जंगी का नाम उल्लेखनीय है.

राजनीति भी एक प्रकार से नाटकबाजी ही है और कई प्रकार की नाटकबाजियां राजनैतिक क्षेत्र में होती रही हैं. यह क्षेत्र भी इस तरह की नाटकबाजियों से अछूता नहीं रहा है. लेकिन विकास पुरूष के नाम से जाने जाने वाले पं. नारायण दत्त तिवारी का यों देखें तो पूरा राजनैतिक जीवन ही नाटकबाजियों से भरा पड़ा है. यह सच है कि वे इस क्षेत्र का विकास चाहते थे, किन्तु इस चाहने और होने में बहुत बड़ा अन्तर है. सन् 1992 में जब वे सत्ता से बाहर रहे तो उन्होंने विकास रैली के नाम पर अपना काफिला इस क्षेत्र में हांकना शुरू कर दिया. यह 6 नवम्बर 1992 का दिन था जब तिवारी जी ने किच्छा से हल्द्वानी तक गगनधूल उड़ाते हुए विकास यात्रा के नाम पर लोगों को पगला सा दिया. लोगों के मन में उनके प्रति श्रद्धा और आदर भाव रहा है लेकिन यदि इसी श्रद्धा और आदर को नाटकीय मोड़ दे दिया जाए तो लगता है अपने को पुनर्स्थपित करने की यह एक नई चाल थी और राजनीति के अनुरूप इस ‘चाल’ शब्द का प्रयोग किया जाना अनुचित नहीं होगा. तब तक उन्होंने जिस-जिस व्यक्ति को उपकृत किया था उसका कर्तव्य बन गया कि वे उनकी इस कथित विकास यात्रा के लिए भीड़ जुटाएं, वाहनों का इन्तजाम करें, पोस्टर बैनर, नारे तैयार करें और स्थान-स्थान पर भरत मिलाप का जैसा वातावरण पैदा करें. उनकी इस विकास यात्रा का मतलब सिर्फ इतना बताना था कि जिस क्षेत्र की जनता ने उन्हें हराया उसके बीच उनका रूतबा बरकरार है. इस यात्रा पर तत्कालीन कुछ समाचार पत्रों की सोच भी बड़ी विचित्र थी. विचित्र सोच हो भी क्यों न, क्योंकि तिवारी जी इस तरह के अखबारनवीसों और अखबारों को बहुत उपकृत जो कर चुके थे. एक समाचार पत्र में तो यहां तक लिख दिया गया कि – श्री तिवारी को यहां एक दिन ‘गोल्ज्यू’ की तरह पूजा जाएगा. बहरहाल भारी जनसमूह को निहार कर तिवारी जी बहुत गद्गद हो गए.

पीपुल्स कालेज के मैदान में उमड़ पड़ी भीड़ के सामने उन्होंने कहा कि ‘पहाड़ों में, जहां बचपन में वे रहे, 40 साल पहले जो सड़के, पगडंडियां जैसी उन्होंने देखी थीं, आज भी वैसी ही हैं.’ इससे क्या जाहिर होता है, यही न कि अब तक वे ही शासन में रहे और वे ही कुछ नहीं कर पाए. तब कैसा विकास और कैसा विकास पुरूष! यों उन्होंने उमड़ पड़े जनसैलाब में जोश भरने की गरज से कहा कि ‘कुछ विदेशी हथकंडे हिन्दुस्तान के दमदमाते महकते गुलदस्ते तराई क्षेत्र में हिन्दू, मुसलिम और सिख में आपसी नफरत फैला कर देश की अखंडता को चुनौती देना चाहते हैं.’’ इस विकास यात्रा का लाभ उन्हें या उनकी पार्टी को क्यों पहुंचा यह बात दूसरी है, लेकिन इस यात्रा के बाद ‘एन. डी. तेरे चारों ओर लीसा, लकड़ी बजरी चोर’’ का नारा जरूर प्रचलित हो गया.

यह राजनीति का ही तो खेल है कि जिस तराई-भाबरी क्षेत्र को हमारे नेतागण गुलदस्ता कहा करते हैं, वहां यही राजनीति देशी, पहाड़, पंजाबी, पूरबिया, बंगाली आदि का नारा देकर लोगों के दिलों में नफरत पैदा करती. देश के तमाम क्षेत्रों से यहां आकर बस जाने वाले लोग जब यहां के मूल निवासियों की सदाशयता, सहृदयता को आघात पहुंचाने में लगें तो बात चिन्ता की बन जाती है. राजनीति में भी क्षेत्र के मूल निवासियों की सदाशयता कभी पीछे नहीं रही है. चन्द्रभानु गुप्त को एक बार नहीं, कई बार पहाड़वासियों ने जिता कर मुख्यमंत्री बना दिया और पहाड़ के खासमखास लोगों ने गोविन्द सिंह मेहरा को हरा दिया, गोविन्द बल्लभ पंत को कुमाऊॅं से बाहर कर दिया, के.सी.पन्त को हराकर भारत भूषण अग्रवाल को सांसद चुन लिया, महेन्द्रपाल को हराकर तिलकराज बेहड़ को गद्दी पर बिठा दिया, अकबर अहमद डम्पी को सरताज बना दिया, नारायण दत्त तिवारी को हरा कर बलराज पासी को नेता बना दिया. लेकिन राजनीति है कि वह पैंतरे बदलती रहती है.

( जारी )

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से ‘ के आधार पर

पिछली कड़ी का लिंक : हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने – 21

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

यम और नचिकेता की कथा

https://www.youtube.com/embed/sGts_iy4Pqk Mindfit GROWTH ये कहानी है कठोपनिषद की ! इसके अनुसार ऋषि वाज्श्र्वा, जो कि…

21 hours ago

अप्रैल 2024 की चोपता-तुंगनाथ यात्रा के संस्मरण

-कमल कुमार जोशी समुद्र-सतह से 12,073 फुट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ को संसार में…

24 hours ago

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

5 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

1 week ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago