समाज

गड़बड़झाले का ही इतिहास है सुशीला तिवारी अस्पताल का

1982 में जब एनडी तिवारी हेमवती नन्दन बहुगुणा के बाद मुख्यमंत्री बने, उस समय यहां के जंगलों में भीषण आग लगी हुई थी. आग में कई लोग झुलस गये थे और दुर्घटना हुई. उ.प्र. विधानसभा में वनों की आग के विषय में सभी विपक्षी और कांग्रेस नेताओं ने हंगामा किया तथा विधानसभा नहीं चलने दी. तब मुख्यमंत्री ने बयान दिया कि सूचना एकत्रित की जा रही है, कल तक पूरी जानकारी दी जायेगी. Forgotten Pages from the History of Haldwani 45

दूसरे दिन विधानसभा में मुख्यमंत्री ने जो बयान देना था उस विषय में उस समय के वित्त सचिव भोलानाथ तिवारी व वन विभाग के सचिव को बुलाकर परामर्श किया. प्रमुख सचिव (वित्त) ने कहा कि हमारे पास सामाजिक वानिकी के लिए करोड़ों रुपया है जो हम खर्च नहीं कर सके हैं. आग बुझाने के लिए हेलिकाप्टर तथा अन्य अग्निशमन से सम्बन्धित सामान की खरीद इस मद से कर सकते हैं. अगर हमने यह मद खर्च नहीं की तो हमको फिर समाजिक वानिकी के लिए धन नहीं मिलेगा और हमारी सरकार की भद्द उड़ जायेगी. इस पर सुझाव आया कि वन विभाग एक चिकित्सालय हल्द्वानी में खोल दे जहां प्लास्टिक सर्जरी, आधुनिक यंत्रों तथा दवाईयों के जरिये आग से झुलसे हुए मरीजों का इलाज हो सकेगा. उसके लिए देश विदेश से डाक्टर भी बुलाये जा सकते है. बस आनन-फानन में मुख्यमुंत्री ने विधानसभा में घोषणा कर दी कि

वन विभाग का हल्द्वानी में बहुत बड़ा अस्पताल खुलेगा जहां आग से झुलसे हुए रोगियों का इलाज होगा.

किन्तु हल्द्वानी में बर्न अस्पताल आज तक नहीं खुला बल्कि वन विभाग के तथा वित्त विभाग के अधिकारियों ने मिलकर इसे फोरेस्ट हास्पिटल ट्रस्ट बना दिया और सामाजिक वानिकी का रुपया इस ट्रस्ट में डाल दिया. ट्रस्ट ने हल्द्वानी में वन चिकित्सालय खोलने का प्रबन्ध किया और एक अस्पताल बन गया जिसमें बर्न अस्पताल का कोई नाम नहीं था. ट्रस्ट के कर्ताधर्ता वन विभाग और वित्त विभाग के अधिकारी हो गए. लगता है अधिकारियों ने जानबूझ कर यह ट्रस्ट बनाया ताकि इसके जरिये अन्य कारगुजारियां हो सकें.

ट्रस्ट के जरिये हल्द्वानी में वन चिकित्सालय की स्थापना हो गयी तथा करोड़ों रुपया आधुनिकीकरण तथा अन्य मदों के लिए उप्र सरकार द्वारा धन की व्यवस्था की गयी. इसी बीच में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी जो कि स्वास्थ्य विभाग में सहायक निदेशिका थीं. सहा. निदेशिका के पद पर ही सुशीला तिवारी की मृत्यु हुई. यह स्पष्ट आदेश है कि भारत सरकार के किसी सरकारी कर्मचारी के नाम से कोई सार्वजनिक संस्था स्थापित नहीं की जायेगी, पर कुछ चापलूस कांग्रेसियों ने इस अस्पताल का नाम ‘सुशीला तिवारी वन चिकित्सालय’ करा दिया.

तिवारी जी भी इसमें भागीदार हो गये. इस सम्बन्ध में कांग्रेस की बड़ी नेता इन्दिरा गांधी ने गोवाहाटी कांग्रेस में यह स्पष्ट कहा था कि

कोई मुख्यमंत्री सरकारी खजाने से अपने किसी परिजन के नाम से कोई संस्था ने खोले.

तब कई लोगों ने लिखा कि यह ट्रस्ट ही धोखा है और सुशीला तिवारी का नाम अस्पताल से जोड़ना उचित नहीं होगा. न तो वह स्वतंत्रता सेनानी थी और न ही कोई बड़ी सामाजिक कार्यकर्ता. वह केवल राजकीय सेवा में थी. नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुन सकता है.

यह भी कहा गया कि फारेस्ट ट्रस्ट मेडिकल कालेज खोला जाएगा और भारत सरकार से मेडिकल काउन्सिल को उसकी अर्हता पूरी करने के लिए वन चिकित्सालय हल्द्वानी को अपने ट्रस्ट से सम्बन्धित कर मेडिकल काउन्सिल के नियमों की आपूर्ति कर दी. जब से मेडिकल ट्रस्ट ने मेडिकल कालेज व वन चिकित्सालय का कार्यभार उठाया तब से विवादास्पद मामले यहां उठते रहे. ट्रस्ट अपने को सर्वोपरि समझता, उसका उत्तराखण्ड शासन से कोई सम्बन्ध नहीं था. प्रदेश की भाजपा सरकार चाहती थी कि इसे ट्रस्ट के बजाए सरकार अधिग्रहीत कर ले और अब इसे सरकार ने अधिग्रहीत कर लिया है.

जिस भूमि पर ट्रस्ट ने कब्जा किया है वे मेडिकल कालेज की स्थापना की है तथा निर्माण कार्य किया है वह भूमि भी ट्रस्ट को मुफ्त में दी गयी. यह भूमि कृषि विभाग की थी, जहां पर कृषि विभाग का बीज सेवा केन्द्र था. उसकी सारी भूमि ट्रस्ट ने ले ली.

इसके अलावा पीपुल्स कालेज नाम से एक संस्था थी, जिसके भवन और भूमि को भी ट्रस्ट ने अपने कब्जे में कर लिया. अब यहां उत्तराखण्ड फाॅरेस्ट हास्पिटल ट्रस्ट का इस भूमि और भवन पर कब्जा है. मेडिकल कालेज भी सरकारी धन से बना है.

पीपुल्स कालेज भी विवादित रहा है. उ.प्र. विधानसभा की कार्यवाही में यह दर्ज है कि पं. नारायण दत्त तिवारी, जब प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के विधानसभा सदस्य थे, उस समय विदेश यात्रा पर गये थे. तब उन पर आरोप लगा था कि यह पीपुल्स कालेज सी.आई.ए. से अपार धन प्राप्त करके बनाया गया है और इसमें नाई, मोची, धोबी, चमार, थारू, बुक्शा लोगों को एक-एक सप्ताह की ट्रेनिंग दी जाती थी और उनको पीपुल्स कालेज की हैसियत से पं. नारायण दत्त तिवारी के हस्ताक्षर से एक प्रमाणपत्र दिया जाता था.

उ.प्र. विधान सभा में उ.प्र. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने तथा सोशलिस्ट पार्टी ने यह हंगामा किया कि हल्द्वानी पीपुल्स कालेज सीआईए के धन से बना है, सरकार जवाब दे. यह प्रश्न लोकसभा में भी उठाया गया. उस समय तिवारी जी ने स्वीकारा कि वह सीआईए से धन लाये और पीपुल्स कालेज बनाने में खर्च किया. तब मुख्यमंत्री पं. गोविन्द बल्लभ पंत और चन्द्रभानु गुप्त ने तिवारी जी को बचाते हुए कार्यवाही करा दी.

विधानसभा में पंचायतीराज मंत्री बलदेव सिंह आर्य ने घोषणा की कि पीपुल्स कालेज का पंचायती विभाग ने अधिग्रहण कर लिया है और अब वहां पंचायती राज प्रशिक्षण केन्द्र बन जाएगा. इस घोषणा के बाद पीपुल्स कालेज का अध्याय बन्द हो गया परन्तु उप्र के मुख्यमंत्री बनते ही तिवारी जी ने अपने स्व. पिता पूर्णानन्द जी की मूर्ति पीपुल्स कालेज में लगा दी.

प्रारम्भ में तिवारी जी एक अन्य संस्था में कार्य कर रहे हरिकृपाल शर्मा नामक व्यक्ति को इस कालेज में प्रधानाचार्य बना कर लाए. श्री शर्मा भी तिवारी जी की ही तरह स्वीडन आदि देशों में सामाजिक अध्ययन के लिए गए थे. उन्होंने इस पर एक पुस्तक लिखी थी. उसी पुस्तक से प्रभावित होकर तिवारी जी उन्हें यहां ले जाए. उनकी देख-रेख में यूथ लीडर एसोसिएशन का गठन भी हुआ. यूथ टाइम्स नाम एक सामाचार पत्र भी सुधीर विनायक के सम्पादकत्व में निकाला गया. सुधीर विनायक डॉ. अमृतलाल का पुत्र था. उसने एक विवादास्पद पुस्तक भी छापी, उसके बाद उसने आत्महत्या भी कर ली.

युवाओं में जागरूकता पैदा करने व सामाजिक चेतना जागृत करने के उद्देश्य से कई कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे. नवीन तिवारी (पूर्व एमएलसी व पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष) सहित कई युवा यहां जुडे़ थे. कुछ दिन बाद यह कालेज विवादों में घिर गया. युवा दो गुटों में बंट गए. एक गुट का आरोप था कि जिस भवन में अब एचएन विद्यालय चलता है उसे बारबर हास्टल के नाम पर बनाया गया था किन्तु तिवारी जी ने अपने मामा लोगों के नाम पर उसमें विद्यालय बना दिया. इसी से लगा कुछ क्षेत्र मोतीराम सांगुड़ी को भी एक विद्यालय खोलने के लिए दे डाला. युवाओं के इस गुट ने तिवारी जी पर कई आरोप लगा डाले. Forgotten Pages from the History of Haldwani 45

इसी वाद विवाद के चलते हरिकृपाल शर्मा अपने पूर्व संस्थान में वापस चले गए. इसी दौरान दलवीर सिंह सिसौदिया व ज्ञान सिंह को तिवारी जी यहां ले आए. ज्ञान सिंह को प्रधानचार्य बना डाला और सिसौदिया पूरी व्यवस्था देखने लगे. युवाओं का ही आरोप था कि ये लोग एक ओर तिवारी जी के खिलाफ युवाओं के भड़काते थे और दूसरी ओर तिवारी जी के भले बने रहते थे. बाद में ज्ञान सिंह भी चले गए और युवाओं ने भी यहां के कार्यक्रमों से किनारा कर लिया. कई वर्षों तक दलवीर सिंह सिसौदिया यहां के प्रधानाचार्य व सर्वेसर्वा बने रहे. वे तिवारी जी के परम भक्त थे.

पहले यह संस्था विभिन्न फंड़ों से अर्जित सहायता पर चलती थी. बाद में सरकार ने इसे अपने हाथ में ले लिया और प्रसार प्रशिक्षण केन्द्र के नाम पर आम लोगों को दस्तकारी, फोटोग्राफी, कढ़ाई-सिलाई, टंकण, स्टेनोग्राफी, कम्प्यूटर, रेडियो-टेलीविजन की मरम्त बिजली का काम आदि का अल्पकालीन प्रशिक्षण दिया जाने लगा. विभिन्न सरकारी-गैर सरकारी आयोजनों का भी यह केन्द्र बन गया. दलवीर सिंह सिसौदिया बड़े वाचाल, मिलनसार और फुर्तीले व्यक्ति थे.वे इस संस्थान में चल रहे कई कार्यक्रर्मों में एक साथ भागीदारी के साथ व्यवस्था संभालते दिखाई देते थे.

सिसौदिया जी से मेरा परिचय तब हुआ तब 1969 में वे मेरे पास थारूओं में जागरूकता लाने के उद्देश्य से एक पुस्तक छपवाने के लिए आए थे. वे इस पुस्तक के माध्यम से थारू समाज को यह बताना चाहते थे कि वे राणा सांगा-महाराणा प्रताप के वंशजों में से हैं उनके साथ एक बहुत बड़ी त्रासदी यह थी कि उनकी पत्नी मानसिक रूप से पीड़ित थीं. वे उनके आवास से निकल कर विद्यालय परिसर में निकल पड़ती और उनके विषय में बहुत कुछ कहने लगतीं. वे अक्सर नारायण दत्त तिवारी व मोतीराम सांगुड़ी को गालियां देती रहतीं. सिसौदिया जिस दिशा से वे आ रही होंती उसकी विपरीत दिशा की ओर रुख कर लेते ताकि लोगों के सामने आमना-सामना न हो सके.

मेडीकल बनने से पहले ट्रस्ट में तत्कालीन सरकार ने सिसौदिया को कोआर्डीनेटर नियुक्त किया था. उसी दौरान उन्हेांने दवा बनाने की एक फैक्ट्री लगाई, किन्तु उसमें उन्हें घाटा आ गया. उनके द्वारा इतने सालों से अर्जित प्रतिष्ठा को उनके पुत्र के कारनामों ने धूमिल कर डाला. पुलिस को उन्हें भी शराब तस्करी में गिरफ्तार करना पड़ा. तब इनके घर से एक ट्रक शराब बरामद हुई थी. शराब की तस्करी में ही गोली लगने से उनका पुत्र अपाहिज भी हुआ और उसे अपना एक पैर गवाना पड़ा. इसके बाद जागरण समूह के अंग्रेजी दैनिक ‘मिड डे’ के इन्वेस्टीगेटर एडीटर ज्योतिर्मय डे की हत्या में इस्तेमाल किए रिवाल्वर को उपलब्ध कराने के आरोप में उसे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया. 11 जून 2011 केा अंडरवलर्ड डान छोटा राजन के इशारे पर जेडी की मुम्बई में दिन दहाड़े हत्या की गई थी. Forgotten Pages from the History of Haldwani 45

पिछली कड़ी : हल्द्वानी के पुराने डाक्टरों ने अपना पेशा बड़ी ईमानदारी से निभाया

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर

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Girish Lohani

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