सन 80 से पहले पहाड़ी क्षेत्रों को मैदानी क्षेत्रों से जोड़ने वाली यातातया व्यवस्था वर्तमान के मुकाबले बहुत ही कम थी. तब आज की तरह सरपट रात-दिन भागने वाले छोटे वाहनों की भी कमी थी. Forgotten Pages from the History of Haldwani 43
पहाड़ से मैदानी शहरों को जाने वाले तथा मैदानी शहरों से पहाड़ जाने वाले यात्रियों को हल्द्वानी रुकना पड़ता था. तब यात्रियों के टिकने की इतनी व्यवस्था का भी अभाव था और यात्री होटलों में टिकना भी अपनी जेब के अनुरूप पसन्द नहीं करते थे. इसलिए वे अपने किसी परिचित के घर का रूख करते थे.
उन दिनों यहां रह रहे लोगों के घरों में अक्सर मेहमानदारी ही रहती थी. लेकिन सम्पन्न घरों में मेहमान कम ही जाया करते थे. शायद उन्हें या तो उनके घर जाने में हिचक लगती थी या लगता था कि वहां उनको सम्मान नहीं मिल पाएगा.
अभावों के बावजूद जिन आम लोगों के घरों में लोग टिका करते थे वहां आत्मीयता का रोज ही एक संगम जैसा दिखाई देता था.
लोग भी बहुत आत्मीयता से उन्हें रखते, उनके खाने, रहने की व्यवस्था करते, बाजार से सामान खरीदने में भी मदद करते और प्रातः ही उनका सामान कंधे में ढोकर उन्हें गाड़ी में बैठाने जाते.
उन दिनों पहाड़ की ओर जाने वाली गाड़ियाँ प्रातः चार बजे से चलना शुरू कर देती थीं उसके बाद कोई वाहन नहीं मिलता था. सुबह ही सुबह रिक्शा वगैरह भी नही मिल पाता था, इस लिए सामान उन्हें कंधे पर ढोकर ले जाना पड़ता था.
मेरे आवास में भी नित्य ही मेहमानदारी बनी रहती थी. स्थान की कमी के बावजूद परेशानी महसूस नहीं होती थी. लोगों को पहाड़ के अपने घर और मैदानी शहरों में नौकरी करने वाले लोगों को इस मिलन से आपसी एक जुड़ाव व आत्मीयता की अनुभूति होती थी. किन्तु अब तेज रफ्तार होती तमाम व्यवस्था ने लोगों को अलग-थलग कर दिया है.
लोग सरपट भागे चले जा रहे हैं और लगाव खत्म हो गया है. तब लोगों के सामने यहां टिकना एक मजबूरी भी थी. किन्तु आज आग्रह के बावजूद न टिक पाना एक मजबूरी बन गया है. Forgotten Pages from the History of Haldwani 43
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर
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आधुनिकता ने वास्तव में हमें अब दूर कर दिया है।। लोग समझते हैं कि प्रोद्योगकी की क्षेत्र में हमने तरक्की कर के दुनिया को पास कर लिया लेकिन जाने अंजाने में हम अपनो से ही दूर हो गए।
विडंबना