राजनीति के क्षेत्र में हल्द्वानी क्षेत्र की एक ऐसी महिला का जिक्र करना आवश्यक हो जाता है जो एक साधारण परिवार की साधारण अध्यापिका से असाधारण हो गयी. और 24 साल तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य रहने के बाद उत्तराखण्ड में कैबिनेट मंत्री का पद बखूबी संभाल कर समाज में स्वयं को प्रतिस्थापित कर गयीं. एक महिला होने का दंश इंदिरा हृदयेश को पग पग पर झेलना पड़ा और तमाम झंझावातों का सामना करते हुए उन्होंने समाज व राजनीति में अपना स्थान बनाया. यही उनकी असाधारण होने की कहानी है. Forgotten Pages from the History of Haldwani-24
शिक्षण के साथ में 1970 से वे राजनीति में आ गई और 1974 से सन 2000 तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद में गढ़वाल-कुमाऊँ से विधायक रहीं. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वे पांच साल तक सूचना, लोक निर्माण विभाग, संसदीय कार्य तथा विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी मंत्री रहीं. 2007 में भाजपा के बंशीधर भगत से हार जाने के बावजूद उनके सामाजिक व राजनीतिक व्यक्तित्व में कमी नहीं आयी. 2012 में एक बार फिर जीत कर विभिन्न मंत्रालयों का कार्यभार संभाला. हल्द्वानी में एक अच्छे होटल की परिकल्पना भी शायद सबसे पहले उन्होंने ही की. सौरभ होटल नाम से नैनीताल रोड में एक शानदार होटल बनवाया. Forgotten Pages from the History of Haldwani-24
पृथक पर्वतीय राज्य की बातें तो आजादी के बाद से ही महसूस की जाने लगी थीं और बाद में उत्तराखंड के लोगों को यह साफ तौर पर लगने लगा कि इतने बड़े उत्तर प्रदेश में उनका प्रतिनिधित्व कम होने के कारण उनकी भौगोलिक व आर्थिक समस्याओं पर विचार नहीं हो पा रहा है. पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा के चलते 1978 में उत्तराखंड राज्य परिषद के बैनर तले पृथक राज्य की मांग को मुखर करने का प्रयास हुआ. Forgotten Pages from the History of Haldwani-24
इसी बीच राजनीतिक व सामाजिक चेतना जागृत करने वाली कई घटनाएं घटी और उन्हीं के परिणामस्वरूप 24 25 जुलाई 1979 को मसूरी में उत्तराखंड के विकास के संदर्भ में आयोजित गोष्ठी में पृथक राज्य उत्तराखंड के लिए एक राजनीतिक दल के गठन का विचार पैदा हुआ और उत्तराखंड क्रांति दल का जन्म हुआ. इसके बाद 9 सितंबर 1979 को रामपुर रोड स्थित हिंदू धर्मशाला में उक्रांद की बड़ी गर्मजोशी के साथ हुई बैठक में केंद्रीय समिति ने 4 सीटों पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया और संसदीय बोर्ड का गठन कर शेष निर्णय उसे सौंप दिया. चुनाव मैदान में एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल के रूप में उतरने के निर्णय के साथ अल्मोड़ा पिथौरागढ़ संसदीय सीट से डीडी पंत व नैनीताल-बहेड़ी सीट पर कल्लू खां को चुनाव मैदान में उतारा गया.
यद्यपि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का मुकाबला यह दल नहीं कर सका लेकिन आम लोगों में एक राज्य की अवधारणा का सवाल घर कर गया. तब डीडी पंत जैसे बुद्धिजीवी, जसवंत सिंह जैसे निश्छल समाजवादी, उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले इंद्रमणि बडोनी जैसे निष्ठावान लोगों के अलावा विपिन त्रिपाठी, नित्यानंद भट्ट, ललित किशोर पांडे, दिवाकर भट्ट, काशी सिंह ऐरी जैसे जुझारू लोग इसमें जुड़े. किंतु इस दल का एक राजनीतिक ढांचा प्रारंभ से ही तैयार नहीं हो सका. नित्यानंद भट्ट ने, जहां इन दिनों जिलाधिकारी कार्यालय के सामने चर्च कंपाउंड, जहां अब एक बड़ी बिल्डिंग बन चुकी है, की खाली पड़ी भूमि पर लकड़ी का एक शेड बनवाया और अपना छापा खाना शुरू किया, उसी छापेखाने में उन्होंने ‘केंद्रीय सचिवालय उत्तराखंड क्रांति दल’ का बोर्ड लगाकर गतिविधियां शुरू कर दीं. प्रारंभ में ललित किशोर पांडे बड़ी ईमानदारी से हिसाब-किताब रखते रहे किंतु बाद में दल की पूरी आर्थिक व्यवस्था सिमटकर रह गयी. डॉ. पन्त भी चुनाव हारने के बाद और तमाम अनियमितताओं के चलते शांत होकर बैठ गए. नित्यानंद भट्ट पूरी व्यवस्था अपने हाथ में रखना चाहते थे. वे एक बार हल्द्वानी विधानसभा सीट से चुनाव भी लड़े. Forgotten Pages from the History of Haldwani-24
इतना तो तय है कि राज्य की मांग का शोर जो व्यापक बन कर 1994 में आंदोलन का रूप धारण कर गया उसमें उत्तराखंड क्रांति दल की मुख्य भूमिका रही, किंतु दल का अपना आतंरिक ढांचा प्रारंभ से ही व्यवस्थित नहीं हो पाया. दल का जनवादी सोच भी समाप्त होता गया. इसलिए जनसंघर्षों से जुड़े कई जुझारू लोग दल से नहीं जुड़ पाये. पार्टी का न निश्चित कार्यालय रहा, न कोष रहा, न कोई निश्चित अनुशासित कार्यप्रणाली. जरूरत के अनुरूप ली जाने वाली सहायता राशि सदस्यता आदि से प्राप्त आय आदि का भी कोई हिसाब नहीं रखा गया. सब अपनी-अपनी डफली बजाते रहे. यही कारण रहा कि राज्य गठन के बाद प्रतिनिधित्व बढ़ने के बजाय घटता ही चला गया. यही नहीं महत्वाकांक्षाओं की होड़ ने जो भी राजनीतिक फैसले दल में लिए जाते रहे वे सर्वदा दल के प्रति सद्भावना रखने वालों को भी विचलित कर गए और भावनाओं से हट कर रह गया.
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