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जब राष्ट्रीय स्तर के नेता भी हल्द्वानी में बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के भाषण देते थे

आजादी की लड़ाई में बहुत बड़ा योगदान देने वालों और बाद में क्षेत्र का नेतृत्व करने वालों के सम्बंध में कुछ खरी-खरी कहना उनके सम्मान में कमी लाना नहीं है. बल्कि यह बताना है कि राजनीति में यह सब जायज करार दे दिया गया. इन बातों का क्षेत्र के हितों से कोई लेना-देना नहीं है और न इस तरह की राजनीति किसी विकास का हिस्सा बन सकती है. कहने का मतलब यह है कि जब हम आज की राजनीति और आज से चालीस-पचास साल की राजनीति में तुलना करने बैठते हैं तो लगता है कि राजनीति का चरित्र लगभग एक जैसा होता है. तब की राजनीति ने समाज को तोड़ने का कम प्रयास नहीं किया, जिसे अच्छा तो नहीं ही कहा जा सकता है. यही कारण है कि एक अच्छे और विचारवान व्यक्ति को इस राजनीति में सफलता नहीं मिल पायी. Forgotten Pages from the History of Haldwani-20

आपातकाल के दौरान संजय गांधी के अभ्युदय के साथ एक उच्छृंखल पीढ़ी का राजनीति में प्रवेश तमाम राजनैतिक परिदृष्य को ही बदल गया. इस पीढ़ी ने कुछ को छोड़ कर पुराने सिक्कों को चलन से बाहर कर दिया और राजनीति की नयीं खेमेबाजी शुरू कर दी. डॉं. डी. डी. पन्त जैसे लोगों को इस राजनीति ने बाहर कर दिया. पुराने नेताओं में अपनी धरती से कुछ लगाव तो था किन्तु वर्तमान राजनीति ने माफियागर्दी का साथ देकर राजनीति के नए समीकरण बनाने शुरू कर दिए हैं. जंगलों की लूट, खनिज की लूट, शराब की तस्करी, भूमियों की खरीद-फरोख्त, लूट-पाट आदि में साझीदारी राजनीति का प्रमुख अंग बन गया है और इसी तरह के तत्व डर, भय और प्रलोभन से आम लोगों को प्रभावित करने में लगे हैं. Forgotten Pages from the History of Haldwani-20

तराई में हुई भूमि की लूट के लिए पं. गोविन्द बल्लभ पंत और सी. बी. गुप्ता याद किए जाते रहे हैं, किन्तु तब उस लूट में उनका मकसद अपने लिए धन अर्जित करना नहीं था वरन अपनी राजनीति को पुख्ता करना था. यद्यपि राजनीति के नाम पर इस लूट को जायज करार नहीं दिया जा सकता किन्तु आज पूरे राज्य को खोखला करने और इसे माफियागर्दी के हवाले करने की जो प्रवृति इस राजनीति का हिस्सा बन गई है वह बहुत बड़ी घातक है.

आज राजनीति में वही प्रवेश पा सकता है जो अनैतिक प्रयासों से धन अर्जित कर सकता है और बाहुबल का सहारा ले सकता है. तब असामाजिक तत्व राजनीति में बहुत कम प्रवेश पा सकते थे, यदि पाते थे तो एक मोहरा बन कर, किन्तु अब उन्हीं के हाथों समूची राजनीति की पतवार है. आनन-फानन में धन अर्जित कर लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति अब समाज में उस धन के बल पर प्रतिष्ठा भी पा जाना चाह रहा है और यह प्रतिष्ठा उसे राजनीति में प्रवेश भी दिला सकती हैं.

राजनीति के साथ अब मीडिया में भी माफियाओं का हस्तक्षेप व प्रवेश बढ़ गया है. तराई-भाबरी क्षेत्र में नारायण दत्त तिवारी के कांग्रेस में उदय के बाद जहां राजनीति में दलालों और चापलूसों की फौज खड़ी हुई वहीं संजय गांधी की आड़ में माफिया व गुंड़ों को प्रश्रय मिलने लगा. आजादी के बाद भुखमरी के कगार पर पहुंचे और पी. एल. 48 के तहत विदेशी अनाज का मुंह ताक रे इस देश को बचाने में पन्तनगर विश्वविद्यालय की परिकल्पना करने वाला नेतृत्व भी हमें मिला और यदि सही मायनों में देखा जाए तो उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था का एक मात्र आधार ही हरितक्रांति का सूत्रधार यह विश्वविद्यालय बन सकता था, वहीं विकास पुरूष की विकास यात्रा ने इस हरित क्रांति को कंक्रीट क्रांति में बदल डाला है.

राजनीति में बढ़ती चापलूसों की फौज का इससे बेहतरीन नमूना दूसरा नहीं हो सकता है. यह फौज रेमन सम्राट नीरो की तरह अपने ही लिखे बेतुके नाटकों को देखने के लिए मजबूर कर गयी है. राजनीति में प्रवेश करते ही साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान सब की समझ यों ही आ जाती है इन्हें.

फर्क बहुत आया है तब अलग – अलग दलों के राजनेता एक साथ बैठा करते थे, एक दूसरे की बातें सुनते थे, उनके बीच एक सामाजिकता का भाव भी था. संघ परिवार से जुड़े दान सिंह बिष्ट व सूरज प्रकाश अग्रवाल बराबर दीगर सामाजिक गतिविधियों में शामिल हुआ करते थे. उसमें कहीं से कहीं तक संघ की कट्टरता का भाव नहीं होता था. सतीश अग्रवाल जिन्होंने कुछ दिन तक ‘शैलराज’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन भी किया समाचार पत्र की प्राथमिक जानकारी के लिए हमारे बीच बैठ कर विचारों का आदान प्रदान करते थे.

विरोधी दलों के राष्ट्रीय नेताओं के भाषणों को सुनने के लिए बड़ी भीड़ जुटती थी और सभी दलों के लोग वहां पहुंचते थे. अच्छी बातों की सराहना भी करते थे. अपनी और अपने दल की बात कहने के लिए बड़ी सूझबूझ के साथ पर्चे छपवा कर बटवाए जाते थे. उन पर्चों का बहुत बड़ा महत्व होता था, उनका अर्थ होता था. अब समाचार पत्रों ने ही पर्चों का काम सभाल लिया है. छोटे-बड़े सब नेताओं के बयानों से समाचार पत्र काले किये जाते हैं लेकिन उन बयानों का वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता है. इसी अखबारी बयानबाजी ने नेताओं की फौज में बढ़ोतरी की है. तब नेताओं को अपनी रक्षा के लिए अंगरक्षकों की जरूरत भी नहीं रहती थी.

मुझे अच्छी तरह याद है कि नैनीताल रोड में कासगंज जिला एटा के महाराज सिंह की ‘प्राग आयल डिपो’ नाम से एक दुकान हुआ करती थी. यहां प्राग आयल मिल का गणेश मार्का सरसों का मशहुर तेल मिलता था. उस दुकान पर सी. बी. गुप्ता बैठा करते थे. कालाढुंगी रोड पर जेल रोड चौराहे के सामने गंगा दत्त पाण्डे के घर पर मंडल कांग्रेस का कार्यालय हुआ करता था. गुप्ता जी पैदल ही लाठी टेकते हुए वहां पहुचं जाते, साथ मे दो चार पुराने कांग्रेसी हुआ करते थे, उनके चारों और किसी प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था नहीं हुआ करती थी. अलबत्ता रतनकुंज कालाढूंगी रोड निवासी भाई जगदीश गुप्ता और सतीश गुप्ता सक्रिय कार्यकर्त्ता के रूप में उनके साथ रहा करते थे. उन दिनों वे युवा थे और उनके पास एक फिएट कार थी. उस जमाने में बिरले ही लोगों के पास कार हुआ करती थी. वे राजनैतिक जलसों में मुझे अपने साथ ले जाया करते थे और एक पड़ोसी होने के नाते भी मेरे उनसे मैत्रीपूर्ण सम्बंध बन गए. 

8 जनवरी 1969 को उप – प्रधानमंत्री मोरारजी देशाई को भी बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के वर्तमान स्टेडियम के मैदान में भाषण देते मैंने देखा है. हां प्रधानमंत्री के रूप में 16 जनवरी 1969 को आई इंदिरा गांधी के लिए बैरीकेटिंग जरूर लगाया गया था. किन्तु सुरक्षा व्यवस्था कड़ी नहीं थी. श्यामलाल वर्मा अकेले ही रात में भी जीप चला कर किसी भी स्थान का भ्रमण करने चले जाया करते थे. वे अक्सर देर शाम अपने फार्म गैबुवा, शान्तिपुरी या नैनीताल अपने निवास की ओर अकेले चल पड़ते थे.

आज मुख्यमंत्री के आने पर सारा ही शहर संत्रास में घिर जाता है. सड़कें जाम हो जाती हैं आवागमन रूक जाता है. पुलिस की नाकेबन्दी कड़ी हो जाती है. आम आदमी अपने ही मुख्यमंत्री से अपनी बात कहने नहीं पहुंच पाता है. आज अदने से नेता के पास भी दो गनर हुआ करते है. समझ में नहीं आता कि खतरनाक लोगों को भला किस बात का खतरा? आम आदमी को यह समझ नहीं आ रहा है कि पूर्व में जहॉं गुंडों को अंगरक्षक रखने की आवश्यकता पड़ती थी वहीं अब अपने को लोकप्रिय जनसेवक कहने वालों को रक्षक रखने की जरूरत क्यों पड़ने लगी. लेकिन खतरे के नाम पर अंगरक्षक रखना ‘स्टेटस सिममबल’ बन गया है.

अपराध घटित होता है, किन्तु पहले तो अपराध का खुलासा ही नहीं हो पाता है, खुलासा हो भी तो कैसे? पहले तो अपराधी ही कोई राजनेता या उसका चेला होता है फिर राजनीति पुलिस पर भारी पड़ जाती है. यदि अपराधी का खुलासा हो भी गया तो राजनेता उसे छुड़ाने के लिए पूरी ताकत झौंक देते हैं. इस दबंग और अपराध में सनी राजनीति ने कानून व्यवस्था को भी अपंग सा बना डाला है. अपराध तब भी होते थे किन्तु जिस तेजी से अपराधों में वृद्धि हुई है उसके पीछे निश्चित रूप से राजनीति का अपराधीकरण हो जाना ही है.

प्रसंगवश प्रधानमंत्री देवेगौड़ा का कथन यहां याद आ जाता है. वे 28 जुलाई 1996 में वन चिकित्सालय का उद्घाटन करने हल्द्वानी आए थे. उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा कि ‘‘48 वर्षों में देश को ऐसी व्यवस्था मिली है कि देश के प्रधानमंत्री से आम आदमी न बात कर सकता है और न मिल सकता है. मुझे देखने–सुनने के लिए हजारों लोग सड़कों के किनारे खड़े हैं लेकिन सभा स्थल पर हजार-पॉच सौ लोग उपस्थित हो पाए हैं इस बात का मुझे बेहद दुःख है. एक नब्बे करोड़ की जनता का प्रधानमंत्री आम आदमी की बातें सुनने–समझने से वंचित रह जाए और आम आदमी उस तक अपनी भावनायें न पहुंचा सके, इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है. ’’

जारी…

पिछली कड़ी का  लिंक

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर

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Girish Lohani

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